Wednesday 31 August 2016

नवउदारवाद के खिलाफ बढ़ता प्रतिरोध


सोवियत संघ के विघटन के बाद जो विश्व-अर्थव्यवस्था अस्तित्व में आई, उसे उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम से पहचाना गया. इसका मकसद पूरी दुनिया को एक ऐसे बाज़ार में ढालना था, जो बेहतर तरीके से अमेरिकी हितों की सेवा कर सके और विकासशील तथा अविकसित देशों के सस्ते श्रम को लूटकर अधिक से अधिक मुनाफा पैदा कर सके. अधिकतम मुनाफा अर्जित करने के लिए न केवल सस्ते श्रम को निशाना बनाया गया, बल्कि इन देशों की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा को हथियाने की "आदिम" प्रक्रिया को भी तेज किया गया और इसके लिए संबंधित देशों के धनाढ्य वर्ग को भी इस लूट का हिस्सेदार बनाया गया. इस लूट को सुगम बनाने के लिए यह दावा और प्रचार किया गया कि एक वैश्विक बाज़ार आम जनता की सभी समस्याओं का समाधान होगा, क्योंकि विश्व स्तरीय बाज़ार उसकी आय को बढ़ाकर उसे एक बेहतर जीवन-स्तर प्रदान करेगा और इससे एक औसत भारतीय एक औसत अमेरिकी के बराबर आ खड़ा होगा.  

वर्ष 1990-91 से लागू इन नीतियों को ढाई दशक पूरे हो चुके हैं. उस समय जो वादे और दावे किये गये थे, उसकी हकीकत आज सबके सामने हैं. एक वैश्विक बाज़ार मानव-जीवन की बुनियादी आर्थिक समस्याओं को हल नहीं कर पाया. फलस्वरूप, पूरे विश्व में इन नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध आंदोलन तेज हुए हैं. इस प्रतिरोध की गूंज अलग-अलग देश/समाज में अलग-अलग तरीके से हो रही है. कहीं वह राजनैतिक अभिव्यक्ति के रूप में सामने आ रही है -- चुनावों में वामपंथी/समाजवादी ताकतों को बढ़त के रूप में, तो कहीं मजदूर/छात्रों के विशाल आंदोलनों के रूप में, जो समाज कल्याणकारी योजनाओं में कटौतियों से त्रस्त हैं. खुद अमेरिका में इसकी गूंज "वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो" जैसे आंदोलन के रूप में हुई है, जिसका नारा ही था कि पूंजीवाद को उखाड़ फेंको.

भारत भी इन नीतियों के दुष्परिणामों से अछूता नहीं रहा. हालांकि नवउदारवाद की नीतियों को लागू करने के मामले में वामपंथ को छोड़कर लगभग सभी पार्टियों में एक आम सहमति रही है. इन पार्टियों का जो कुछ भी विरोध दिखा, वह चुनावी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आम जनता को बरगलाकर उनका समर्थन पाने के लिए ही रहा है. लेकिन आर्थिक सुधारों की रफ़्तार को हर आने वाली सरकार ने तेज ही किया है. हाल ही में जीएसटी पर हुई कवायद इसका उदाहरण है.

इन नीतियों का एक प्रभाव तो यही रहा है कि हमारे देश का सकल घरेलू उत्पाद तेजी से बढ़ा है, जिसे सत्ताधारी पार्टियों ने अपनी सफलता के रूप में पेश किया है. लेकिन इसके साथ यह भी सच्चाई है कि देश की संपत्ति गरीबों के हाथों में नहीं, धनाढ्यों के हाथ में ही सिमटती गई है. उदारीकरण संपत्ति और आय के न्यायपूर्ण और समान वितरण की अवधारणा के खिलाफ काम करता है. वह धनाढ्यों के प्रति तो उदार होता है, लेकिन गरीबों के प्रति बेरहम. यही कारण है कि हमारे देश के सबसे धनी 10% लोगों के हाथों में तीन-चौथाई से ज्यादा संपदा जमा हो गई है, जबकि शेष 90% जनता की औसत मासिक आय दस हजार रूपये से भी कम है. सातवें वेतन आयोग ने न्यूनतम 18000 रूपये मासिक आय की जरूरत का आंकलन किया है. ट्रेड यूनियनों का आंकलन 26000 रूपये है. इससे स्पष्ट है कि हमारे देश में अमीर और गरीबों के बीच आर्थिक असमानता की खाई और चौड़ी हो रही है, लेकिन इसे पाटने की कोई नीति सरकार के पास नहीं है.

आय का सीधा संबंध पोषण-स्तर से होता है. नेशनल न्यूट्रीशन मॉनिटरिंग ब्यूरो की रिपोर्ट भी यही बताती है कि वर्ष 1975-79 के स्तर से औसत भारतीय ग्रामीण के पोषण स्तर में 550 कैलोरी याने एक-चौथाई से ज्यादा की कमी आई है. यही कारण है कि ग्रामीण बच्चों और महिलाओं का भारी बहुमत कुपोषितों का ही है.

निजी क्षेत्र में और सरकारी क्षेत्र में भी मजदूर भुखमरी के स्तर पर ही जिंदा है. श्रमिकों की सुरक्षा के लिए जो क़ानून बने हैं, या तो उन्हें ख़त्म किया जा रहा है, या फिर उनके उल्लंघन पर मालिकों को कोई दंड नहीं है. इसका असर केवल औद्योगिक मजदूरों पर ही नहीं पड़ा है, ग्रामीण मजदूरों और किसानों पर भी इसकी बुरी मार पड़ रही है. कानूनन न सही, लेकिन व्यावहारिक रूप से मनरेगा को ख़त्म करने की साजिश हो रही है. बजट आबंटन में कटौती के साथ ही उसके मजदूरी के हिस्से में भी कमी की गई है. राज्यों पर सैकड़ों करोड़ रुपयों की मजदूरी देना बकाया है. मजदूरी भुगतान में भी तरह-तरह की अड़चनें पैदा की जाती है, ताकि कृषि मजदूर मनरेगा से विमुख हो जाएं.

दूसरी ओर, उदारीकरण की नीतियां आम जनता को सब्सिडी देने के खिलाफ है, क्योंकि वह इसे विश्व-बाज़ार के विस्तार में अड़चन के रूप में देखता है. उसे धनाढ्यों को लाखों करोड़ रुपयों की कर-रियायतें देना मंजूर है, उसे यह भी पसंद है कि प्रभुत्वशाली वर्ग बैंकों के लाखों करोड़ रूपये डकार जाएं, लेकिन किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप लाभकारी मूल्य देने की मांग करो या उनको सरकारी और साहूकारी कर्जे से मुक्त करने की बात करो, तो उसे अपने खाली खजाने की याद आती है. संकटग्रस्त किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन न व्यवस्था को और न ही उसके कर्णधारों को कोई कचोट होती है. इस कृषि संकट का एक असर तो कृषि से जुड़े ग्रामीण परिवारों की भूमिहीनता तथा ऋणग्रस्तता के रूप में सामने आया है, जिसका सीधा असर देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता पर पड़ा है. वर्ष 1991 में यह उपलब्धता 510 ग्राम थी, जो आज घटकर लगभग 400 ग्राम ही रह गई है. इसी से जुड़ा खाद्यान्न संकट है, जिसका फायदा जमाखोर उठाते हैं और आम जनता महंगाई के रूप में भुगतती है. कभी दाल, तो कभी शक्कर के भाव आसमान छूते रहते हैं. थोक सूचकांक तो स्थिर रहता है, जिसे सरकार महंगाई-नियंत्रण के रूप में प्रचारित करती रहती है, लेकिन उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आसमान छूता रहता है, जो वास्तविक महंगाई का प्रतिबिम्ब होता है.

उदारीकरण-वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने बड़े पैमाने पर निजीकरण की प्रक्रिया को भी उन्मुक्त किया है और आज अर्थव्यवस्था का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जो इससे अछूता हो. इसने पूरी मानव सभ्यता, उसके मूल्यों और समस्याओं को बाजार में लाकर पटक दिया है. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी मानवीय सुविधाएं भी आम आदमी की पहुंच में नहीं रह गई है. सेंटर फॉर वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग की रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश के अव्वल शिक्षा संस्थाओं के स्तर में किस तेजी से गिरावट आ रही है. नेशनल हेल्थ अकाउंट की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि सरकारी फंडिंग भी किस तरह निजी अस्पतालों की ओर मोड़े जा रहे हैं. ये मानव-मूल्यों पर पूंजी-सभ्यता हावी होने के दुष्परिणाम है.

प्रेमचंद ने 'महाजनी सभ्यता' के जिन दुर्गुणों को रेखांकित किया था, वह वैश्वीकरण की प्रमुख विशेषताओं में शुमार हो चुका है. लेकिन मानव-सभ्यता 'उदात्तता' पर पलती-बढ़ती है. इसलिए पूंजी की (अ)सभ्यता से उसका तीखा टकराव होना स्वाभाविक है. जब पूरी दुनिया में उदारीकरण के खिलाफ संघर्ष तेज हो रहे हो, तो भारत कैसे अछूता रह सकता है?

भारत के ट्रेड यूनियन आंदोलन ने 2 सितम्बर को 16वीं बार देशव्यापी हड़ताल का आह्वान कर दिया है. यह हड़ताल हर बार व्यापक से व्यापक होती गई है. पिछली बार 12 करोड़ लोगों ने इस हड़ताल में हिस्सा लिया था, इस बार 15 करोड़ का दावा है. उल्लेखनीय तथ्य यह है कि भाजपा के पास भी 17-18 करोड़ लोगों का ही समर्थन है. इस प्रकार, दक्षिणपंथी और वामपंथी-प्रगतिशील ताकतों के बीच एक तीखे टकराव की अभिव्यक्ति यह हड़ताल बनने जा रही है.

लेकिन खतरे केवल आर्थिक ही नहीं है. उदारीकरण की नीतियों ने राजनैतिक स्वायत्तता का भी क्षरण किया है. जब जनता में असंतोष फैलता है, तो उसे दबाने के लिए सत्ता-समर्थक ताकतें धर्म और जाति के नाम पर उन्हें बांटने का खेल खुलकर खेलती है. पिछले दिनों महिलाओं-आदिवासियों-दलितों-अल्पसंख्यकों पर बड़े पैमाने पर हमले हुए हैं और लोगों को सामंती-पुरातनपंथी और कथित राष्ट्रवादी चेतना के आधार पर लामबंद करने की कोशिशें हुई है. इससे हमारे संविधान की बुनियादी अवधारणाओं -- धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, समानता व भ्रातृत्व -- को ही ठेस पहुंची है. स्पष्ट है कि यदि संविधान नहीं बचेगा, तो एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में हमारा देश भी नहीं बचेगा. इसलिए इस हड़ताल को देश को बचाने के संघर्ष में बदलना जरूरी है.  
                                                                                                                 sanjay.parate66@gmail.com



Saturday 27 August 2016

'विश्व-गुरू' बनने का जुमला !!

वर्ष 2016 के लिए सेंटर फॉर वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग की रिपोर्ट आ चुकी है. यह सेंटर पूरी दुनिया के शिक्षा संस्थानों को आठ मानदंडों पर कसता है -- शैक्षणिक गुणवत्ता, रोजगार, शिक्षकों की योग्यता, प्रकाशन. प्रभाव, प्रतिष्ठा, शैक्षणिक बोर्ड की भूमिका तथा पेटेंट के मामलों में. इन आठ मानकों पर कसने के बाद यह सेंटर किसी संस्थान-विशेष की रैंकिंग तय करता है.

विश्व में हजारों शैक्षणिक संस्थाएं हैं और भारत में सैकड़ों. विश्व के पहले दस शैक्षणिक संस्थानों में हमारा स्थान पहले भी नहीं था. प्रथम सौ सर्वश्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों में भी हमारी कोई जगह नहीं है. लेकिन हम खुश हो सकते हैं कि विश्व के प्रथम 1000 बेहतरीन शिक्षा संस्थाओं में से 16 हमारे देश के हैं. भले ही, आईआईटी-दिल्ली की रैंकिंग पिछले वर्ष के 341 से गिरकर 354 पर आ गई है, लेकिन यह आज भी देश की शिक्षा संस्थाओं में अव्वल है. इसका अर्थ है कि विश्व रैंकिंग में देश की अन्य श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों की रैंकिंग में भी गिरावट आई ही होगी ! हुआ भी ऐसा ही है -- देश के दूसरे स्थान पर प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय की रैंकिंग पिछले वर्ष के 379 से गिरकर 419 हुई है, तो तीसरे स्थान पर खड़ी भारतीय विज्ञान संस्थान की रैंकिंग भी 448 से गिरकर 471 तथा चौथे पायदान पर खड़ी पंजाब विश्वविद्यालय की रैंकिंग 491 से गिरकर 511 पर पहुंच गई है. इससे स्पष्ट है कि देश में श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों के शैक्षणिक-स्तर में गिरावट आई है.

सेंटर फॉर वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग की यह रिपोर्ट हमारे देश में शिक्षा के गिरते स्तर पर तीखी टिप्पणी है. जिन मानकों पर शिक्षा संस्थानों को कसा गया है, प्रायः उन सभी में देश में अव्वल मने जाने वाले शैक्षणिक संस्थानों में गिरावट दर्ज की गई है. शैक्षणिक गुणवत्ता की कसौटी पर आज भी कलकत्ता विश्वविद्यालय देश में अव्वल है, लेकिन विश्व रैंकिंग में इसका स्थान 140 से गिरकर 150 हो गया है. इसी तरह, सर्वाधिक जर्नल व अन्य प्रकाशनों के साथ भारतीय विज्ञान संस्थान ने देश में अपना अव्वल स्थान तो बनाए रखा है, लेकिन विश्व रैंकिंग में अपनी गिरावट को नहीं रोक पाया. पिछले साल इसे 315वां स्थान मिला था, तो इस बार इसे 327वां स्थान मिला है. इस संस्थान के बोर्ड की भूमिका देश में बेहतरीन है और इसने विश्व रैंकिंग में 470वां स्तान पाया है, लेकिन वह पिछले साल 447वें स्थान पर था. इसी तरह यह संस्थान पेतेंटके पैमाने पर विश्व रैंकिंग में 303वें स्थान पर और देश में अव्वल है, लेकिन पिछले साल 176वीं रैंकिंग के साथ आईआईटी-बॉम्बे देश में अव्वल था. इसका अर्थ है कि हमारे देश के बौद्धिक संस्थान पेटेंट की लड़ाई में विश्व-स्तर पर तेजी से पिछड़े हैं.

यदि विश्व रैंकिंग में गिरावट के साथ कुछ शिक्षा संस्थान देश में अव्वल बने हुए हैं, तो इसका अर्थ यह भी है किइन शिक्षा संस्थाओं के शैक्षणिक स्तर में भी गिरावट जारी है. लेकिन यदि वे फिर भी अव्वल बने हुए हैं, तो इसका यह भी अर्थ है कि अन्य शिक्षा संस्थानों के स्तर में और तेज़ी के साथ गिरावट जारी है. इसलिए यह अव्वलता 'शैक्षणिक अभ्युदय' नहीं, भारतीय शिक्षा संस्थाओं के पतन की ही कहानी कहती है.

क्या इसी गिरावट के साथ भारत 'विश्व-गुरू' बनने का दावा करेगा? यदि इस दावे को शिक्षा के क्षेत्र में जारी निजीकरण से जोड़कर देखें, तो यह स्पष्ट है कि अन्य बातों की तरह यह दावा भी एक 'जुमला' ही बनने जा रहा है.  
                                                                                                        sanjay.parate66@gmail.com  


Friday 26 August 2016

जरूरत है मनरेगा को जिन्दा रखने की


2 सितम्बर को आहूत मजदूरों की हड़ताल की एक प्रमुख मांग यह भी है कि रोजगार गारंटी का विस्तार शहरी क्षेत्रों  में भी किया जायें और काम के न्यूनतम दिनों की संख्या बढ़ाकर 200 की जाएं. इसके लिए वे बजट में वृद्धि की भी मांग कर रहे हैं. यह मांग मनरेगा की सार्थकता को भी दिखाती है, बावजूद इसके कि यह योजना तमाम बुराईयों से ग्रस्त है.

देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मनरेगा का महत्त्वपूर्ण स्थान है. इसके बावजूद सत्ताधारी पार्टियों ने इसका क्रियान्वयन कभी भी ईमानदारी से नहीं किया और इसको 'निर्जीव' बनाने की कोशिशें जारी है. मनरेगा में काम मांगने वाले सभी परिवारों को 100 दिन का काम देने के लिए ही आज 90000 करोड़ रुपयों की जरूरत है, जबकि बजट आबंटन है केवल 30-32 हजार करोड़ रूपये ही. मजदूरों को 100 दिन काम की जगह औसतन 47-49 दिन काम ही मिल रहा है, लेकिन सही समय पर भुगतान की कोई गारंटी नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर 42% मजदूरों को, तो छग प्रदेश स्तर पर 81% लोगों को देरी से भुगतान हो रहा है और इससे इस योजना के प्रति मजदूरों की अरुचि बढ़ना स्वाभाविक है. छत्तीसगढ़ में इस वर्ष जून अंत तक मजदूरी का 300 करोड़ रुपयों से अधिक बकाया था और देरी से भुगतान के मामले में देश में दूसरे स्थान पर खड़ा है. मजदूरी दर भी असमान है, केरल में 232 रूपये, तो राजस्थान में 116 रूपये प्रतिदिन ही -- याने न्यूनतम मजदूरी से भी ग्रामीण मजदूर वंचित हैं. केन्द्र की भाजपा सरकार ने मजदूरी और सामग्री का अनुपात 60:40 से बदलकर 51:49 कर दिया है. इससे रोजगार उपलब्धता में गिरावट के साथ ही भ्रष्टाचार की आशंका भी बढ़ी है.

लेकिन जिस तरह देश में खेती-किसानी का संकट बढ़ रहा haiहै और संकर से जुड़े दुष्परिणाम -- भूमिहीनता, ऋणग्रस्तता, पलायन, किसान आत्महत्या आदि -- सामने आ रहे हैं, मनरेगा की प्रासंगिकता बढती जा रही है.  तमाम अध्ययन भी यही दिखाते हैं कि मनरेगा ने किस तरह ग्रामीण जीवन को सबल बनाया है. रिज़र्व बैंक के अनुसार, इससे ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा-इतर कार्यों में मजदूरी दरों में 10% की वृद्धि हुई है. नेशनल कौंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च के अनुसार, इसके कारण देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 25% परिवारों की गरीबी कम हुई है. मनरेगा में लगभग आधी महिला मजदूर हैं और इसने महिला-पुरूष मजदूरी में समानता का सबक भी सिखाया है, जो कि निजी क्षेत्रों में श्रम कानूनों के जरिये आज भी हासिल नहीं किया जा सका है. जिस हद तक मनरेगा ने ग्रामीणों को सही अर्थों में रोजगार दिया है, उस हद तक उनका पलायन भी रूका है. इस क़ानून से सबसे ज्यादा लाभान्वित हुए हैं आदिवासी-दलित-महिला व कृषि मजदूर जैसे वंचित सामाजिक-वर्गीय समूह, जिन्होंने आर्थिक सशक्तिकरण के कारण ग्रामीण सामंती प्रभुओं की दादागिरी को चुनौती दी है. इसलिए निहित स्वार्थों के लिए मनरेगा हमेशा आंखों का कांटा बना रहा है.

हमारे देश का कृषि संकट यह है कि देश में आज भी आधे से ज्यादा परिवार खेती-किसानी से जुड़े हैं, जो कि घाटे का सौदा हो गया है. वे खेती केवल इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि उनके पास आजीएविका का कोई दूसरा साधन नहीं है. जिन्होंने हिम्मत दिखाई है, वे दिहाड़ी मजदूर बनकर रह गए हैं -- उनके लिए शहरों में काम नहीं और गांव वे छोड़ नहीं पाए. ऐसी हालत में मनरेगा ने उन्हें 'राहत' जरूर ही दी है. इसीलिए देश के गरीबों को जिन्दा रखने के लिए आज मनरेगा को जिन्दा रखने की जरूरत है.

वामपंथ के दबाव में संप्रग सरकार को मनरेगा लागू करना पड़ा था. भाजपा-नीत सरकार वामपंथ के किसी भी निशानी के जिन्दा रहने के खिलाफ है. सो, मनरेगा उसके खुले-दबे निशाने पर है. इसीलिए आम जनता के हितों के लिए चिंतित तमाम संगठनों को इसे अपने एजेंडे में लेना चाहिए.
                                                          

Saturday 13 August 2016

आंकड़े गवाह है कि अल्पसंख्यक समुदाय भेदभाव का शिकार है....


भारत में शिक्षा और रोजगार के संबंध में हाल ही में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) ने जो आंकड़े जारी किये हैं, उससे एक बार फिर साफ़ हो गया है कि देश में अल्पसंख्यक समुदाय भयंकर भेदभाव का शिकार है.
इन आंकड़ों के अनुसार देश में मुस्लिम अल्पसंख्यक आज भी भयंकर अशिक्षा का शिकार है और ग्रामीण मुस्लिमों में उनकी निरक्षरता का प्रतिशत 30% और महिलाओं में 49% है, तो शहरी मुस्लिमों में भी यह क्रमशः 19% और 35% है. यह स्थिति उस समय है, जब देश एक दिन बाद ही स्वतंत्रता की 69वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है. यदि अशिक्षा का सीधा संबंध उनकी आर्थिक स्थिति से है, तो इसका सीधा अर्थ यह भी है कि यह समुदाय देश के सबसे गरीब, वंचित व पिछड़े तबकों में से एक है और उनकी इस स्थिति के लिए इस देश का शासक वर्ग और उनकी नीतियां ही सीधे-सीधे जिम्मेदार है.
गरीबी और अशिक्षा का सीधा असर रोजगार पर पड़ता है और सरकारी नौकरियों में उनका बहुत कम प्रतिनिधित्व है. इस समुदाय के अधिकांश लोग स्व-रोजगार से जुड़े हैं और यह स्व-रोजगार भी उनके लिए "जैसे-तैसे पेट भरने" का माध्यम भर होते हैं, उनकी आर्थिक उन्नयन का माध्यम नहीं. यही कारण हैं कि मुस्लिमों में बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 3.9% तथा शहरी क्षेत्रों में 2.6% है.
लेकिन शिक्षा भी अल्पसंख्यक तबकों के लिए रोजगार की गारंटी नहीं है. यदि ऐसा होता, तो इस देश का ईसाई समुदाय बेरोजगारी की बीमारी से जूझ नहीं रहा होता. एनएसएसओ के ही आंकड़े बता रहे हैं कि ईसाईयों में निरक्षरता दर सबसे कम है और स्नातकों का प्रतिशत सबसे अधिक. लेकिन इसके बावजूद उनमें बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 4.5% तथा शहरी क्षेत्रों में 5.9% है.
इसके साथ ही यह भी जोड़ लें कि इन दोनों अल्पसंख्यक समुदायों से बाहर बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय में आदिवासी-दलित तबकों (जो इस देश की आधी आबादी है) की स्थिति भी शिक्षा और रोजगार के मामले में बहुत ही दयनीय है. इनके बीच भी बेरोजगारी की दर देश में बेरोजगारी की औसत दर से बहुत ऊंची है. समग्र रूप से देश में बेरोजगारी की औसत दर 3.8% है, (ग्रामीण क्षेत्र में 1.7% और शहरों में 3.4%).
फिर इस देश में शिक्षा और रोजगार के अवसर किसके लिए सुरक्षित हैं? जो लोग "योग्यता" का शोर मचाते हैं, उन्हें जवाब देना होगा कि फिर ईसाई समुदाय रोजगार में उचित प्रतिनिधित्व से वंचित क्यों हैं? जो लोग "मुस्लिम तुष्टिकरण" का शोर मचाते हैं, उन्हें जवाब देना चाहिए कि फिर मुस्लिम समुदाय में इतनी गरीबी और निरक्षरता क्यों? जो लोग जीडीपी वृद्धि से रोजगार वृद्धि के दावे कर रहे हैं, उन्हें भी यह जवाब देना होगा कि यह पूरी वृद्धि "अल्पसंख्यक सवर्णों" की तिजोरियों में ही क्यों कैद हो रही है?
साफ़ है कि हमारे देश के विकास की कहानी दरअसल धर्म, जाति और वर्ग के आधार पर शोषण के जरिये चंद लोगों के विकास की ही कहानी है, जिसका गुणगान परसों परिधान मंत्रीजी लाल किले से करने जा रहे हैं.