Friday 26 May 2017

जुमलेबाजी के तीन साल

तीन साल बाद भाजपा का '2 करोड़ लोगों को हर साल काम' देने का वादा 'जुमला' साबित हो गया. अमित शाह ने कह दिया कि सबको काम देना संभव नहीं है, लोग स्व-रोजगार खोजे. भारतीय युवाओं के लिए इससे बड़ा छल और कुछ नहीं हो सकता, जिन्होंने संप्रग सरकार की रोजगार विरोधी नीतियों से तंग आकर मोदी का साथ दिया था और आज भी यह आशा लगाये हुए हैं कि 'डिजिटल इंडिया' से लेकर 'मेक इन इंडिया' तक की कसरत कल उनके लिए छप्पर-फाड़ रोजगार पैदा करेगी. अब तो अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का यह दावा ही हकीकत है कि वर्ष 2016 में भारत में 1.77 करोड़ लोग बेरोजगार थे, तो वर्ष 2018 में उनकी संख्या बढ़कर 1.80 करोड़ हो जायेगी. हर साल रोजगार के बाज़ार में 2 लारोड़ नौजवान कदम रखते हैं, लेकिन पिछले वर्ष काम मिला केवल 1.35 लाख लोगों को ही -- मोदी सरकार का श्रम विभाग भी यही बता रहा है.

लेकिन मोदी ने केवल नौजवानों के साथ ही जुमलेबाजी नहीं की, किसान भी इससे अछूते नहीं रहे, जिनसे ये वादा किया गया था कि उनकी फसल का एक-एक दाना लागत मूल्य से डेढ़ गुना कीमत पर सरकार खरीदेगी. किसानों ने क़र्ज़ लेकर बम्पर उत्पादन किया और फसल लेकर मंडी पहुंचते, उससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कह दिया कि सरकार के लिए इतना पैसा देना संभव नहीं. तब किसानों के लिए आत्महत्या के सिवा और चारा भी क्या था? सो. मोदी-राज में किसान आत्महत्याएं डेढ़ गुना बढ़नी ही थी. वादा तो 'किसानों की क़र्ज़मुक्ति' का था, लेकिन बैंकों के क़र्ज़ माफ़ हुए माल्या-जैसे पूंजीपतियों के. हर बजट में 5 लाख करोड़ की कर-छूट के साथ ही 6-7 लाख करोड़ बैंकों के भी एनपीए बनाकर उन्होंने हड़प लिए हैं. लेकिन ऐसा कोई वादा मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान धनकुबेरों से नहीं किया था.

सो वादे तो 'जुमलेबाजी' के लिए होते हैं. असली वादे तो वही होते हैं, जो घोषणापत्र में लिखे नहीं जाएं, लेकिन जिसके बारे में चुनाव में धन लगाने वाले जानते हो कि उनका 'इन्वेस्टमेंट' कब और कितना 'रिटर्न' देगा.

इसीलिए यदि हिन्दी अखबारों का सर्वे यदि कहता है कि 59% लोग मानते हैं कि मोदी के आने से उनके जीवन-स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. 'सबका विकास' तो विज्ञापन था, असलियत यही है कि आदिवासियों पर नक्सलियों के नाम पर, दलितों को गाय के नाम पर, मुस्लिमों को बाबर का औलाद बताकर, तो ईसाईयों पर धर्मांतरण के नाम पर हमले कई गुना बढ़ गए हैं. हमलावरों में भगवा कच्छाधारी बड़े पैमाने पर शामिल होते हैं और पुलिस अधिकारीयों की नाक के नीचे हंगामा करके फरार हो जाते हैं. 'हिन्दू राष्ट्र' की मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि जनतंत्र, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को पैरों तले कुचला जाएं और हिटलर-मुसोलिनी की तरह नस्लीय, धार्मिक घृणा फैलाई जाएं.

लोगों को यदि शिक्षा नहीं दोगे, स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रखोगे, उनके श्रम का उचित मूल्य नहीं दोगे, रोजगार से वंचित रखोगे, तो जो असंतोष पैदा होगा, उससे निपटने के लिए धर्म और जाति के आधार पर लोगों को बांटने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचता. मोदी महाशय यही कर रहे हैं. हर तानाशाह अपनी गद्दी बचाने के लिए यही करता है. फिलहाल संघी गिरोह इसमें सफल हैं. इसी सफलता का जश्न आज से वे मना रहे हैं. लेकिन लोगों की कब्र पर ऐसा जश्न उन्हें ही मुबारक, जो मांस-भक्षण पर तो पाबंदी लगाना चाहते हैं, लेकिन लोगों की हत्याएं करते, निरपराध महिलाओं का गर्भ चीरकर अजन्मे बच्चे को तलवार की नोंक पर घुमाते जिनके हाथ जरा भी नहीं कांपते.

Thursday 25 May 2017

'हिन्दू राष्ट्र' के हवन कुंड में "आदिवासी स्वाहा" के लिए कल्लूरी का आमंत्रण....


"दिल्ली में बैठकर कोई बस्तर की समस्या को नहीं समझ सकता. इसके लिए दिल्ली में बैठे जिम्मेदार लोगों को बस्तर में जाने की जरूरत है." -- ये कहना था आईजी एसआरपी कल्लूरी का दिल्ली के जन संचार संस्थान (आइआइएमसी) में. दिल्ली के 'नासमझों' को बस्तर से चलकर यही समझाने आये थे वे, लेकिन प्रचार तो ऐसा था जैसे वे नक्सलियों के 'शहरी नेटवर्क' का पर्दाफ़ाश करने जा रहे हैं. लेकिन खोदा पहाड़, निकली चुहिया!! उनके भाषण का न तो उनके विषय से कोई संबंध था, न ही उनकी कथनी-करनी से. वैसे ये सवाल भी पलटकर पूछा जा सकता है कि बस्तर में बैठकर दिल्ली के नेटवर्क को समझने की उनमें कितनी अक्ल है?
लेकिन बस्तर दौरे का आमंत्रण नंदिनी सुन्दर या अर्चना प्रसाद के लिए नहीं है, क्योंकि न ही वे "बैठे" हैं और न ही "जिम्मेदार". 'दिल्ली में बैठे जिम्मेदार लोगों' की पहचान भी रमनसिंह के साथ मिलकर कल्लूरी ही करेंगे. पहचाने वही जायेंगे, जो रमन-कल्लूरी के दिखाए को देखेंगे, जो उनके कहे को सुनेंगे और जो उनके सुनाये को बतायेंगे. इसलिए उनकी पहचान उस संघी गिरोह के बाहर नहीं हो सकती, जो आजकल सेक्स रैकेट चलाने के नाम पर प्रसिद्धि पा रहे हैं. पिछले दिनों कन्हैया कुमार के मामले में उन्होंने नाम कमाया था. आजकल अरूंधती रे और शहला राशिद को गाली-गलौज करने में पूरे नंगे हो रहे हैं. देश का सवाल है और उसकी भक्ति का भी. देशभक्ति के लिए नंगे होने में कोई हर्ज़ नहीं है. इसी 'देशभक्ति' को दर्शाने के लिए कल्लूरी ने महिलाओं को 'फ़क यू' का संदेशा भिजवाया था. ये देश हिन्दुओं का है और उनकी रक्षा करने के लिए 'राष्ट्रविरोधियों' को 'फक' करना उनका पूरा-पूरा संवैधानिक अधिकार है!!!
तो बस्तर में जाने की इज़ाज़त केवल 'राष्ट्र भक्तों' को ही मिल सकती है. पहले 'राष्ट्र भक्त' है एबीवीपी के अध्यक्ष सौरभ कुमार, जिन्होंने कल्लूरी से प्रेरणा ली है और बस्तर की समस्या को समझने के लिए वहां कूच कर गए हैं. अब वे क्या समाधान खोदकर लाते हैं, यह तो बाद की बात है, लेकिन लगे हाथों जेएनयू में भाषण पेलने का निमंत्रण दे आये है. आखिर, हिन्दू संस्कृति में आमंत्रण का जवाब निमंत्रण ही तो होता है.
तो कल्लूरी, अबकी बार चूकना मत. तुम्हारे हाथ में सबूत हो या न हो, न हो तो फर्जी सबूत गढ़ने की पुलिसिया ट्रेनिंग का इस्तेमाल करना, लेकिन नंदिनी सुन्दर और अर्चना प्रसाद को गिरफ्तार करके जरूर लाना. अपनी वर्दी पर एकाध मैडल टांगना हो तो जीप की बोनट पर बांधकर लाना. 'राष्ट्र विरोधियों' से निपटने का एक नायाब तरीका हमारे देश की सेना ने खोजा है. उसका इस्तेमाल करना हर राष्ट्रभक्त 'ठोले' का कर्तव्य है. जब तक दिल्ली में ये बने रहेंगे, किसी आयोग, किसी कोर्ट या किसी ब्यूरो की उछलकूद जारी रहेगी.
मत चूकना कल्लूरी. इलाके बदलने से इरादे नहीं बदलते, इसे फील्ड में भी दिखाना होगा. इरादे नहीं बदलने वाले ही उंचाईयों पर चढ़ते हैं. टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी-जिंदल की सेवा ही 'राष्ट्र की सेवा' है. 'राष्ट्रभक्ति' का तकाज़ा है कि सभी आदिवासियों को माओवादी बताओ, आदिवासियों और उनके अधिकारों की बात करने वालों को माओवादियों के शहरी नेटवर्क का हिस्सा बताओ. जो इस 'बताओ अभियान' में बाधा डाले, ऐसे 'देशद्रोहियों' को कीड़े-मकोड़ों की तरह मसल देना चाहिए. जो आदिवासियों के जीवन की बात करें, जो उनके लिए बनाए गए कानूनों के पालन की बात करें, जो जवानों पर हत्या-बलात्कार-आगजनी के आरोपों का सबूत जुटाए, वे आखिर 'राष्ट्रभक्त' कैसे हो सकते हैं? ऐसे लोगों को गोलियों से उड़ा देना चाहिए. इन्हें सबक सीखाना राष्ट्रभक्तों का 'परम कर्तव्य' हैं.
मत चूकना चौहान. मौका सुनहरा है मोदी-राजनाथ-जेटली-रमन की नज़रों में चढ़ने का. जेएनयू 'राष्ट्रद्रोहियों' का सबसे बड़ा गढ़ है. इस पर जो हमला करेगा, संघी गिरोह की नज़रों में उतना ही चढ़ेगा. इस चढ़ाई पर पूरी दुनिया की नज़र पड़ेगी. न भी पड़े, तो ट्रम्प की तो जरूर पड़ेगी. आखिर हमारे मोदी सहित पूरी दुनिया के बादशाह उसकी नज़रों में चढ़ने को बेताब हैं. ट्रम्प की नज़र पड़ी, तो शायद काबिलियत को पहचान ले और अपनी पुलिस का ही सरताज बना दे. हम भी गर्व से कह सकेंगे, बस्तर का अनुभव पूरे अमेरिका को रास्ता दिखा रहा है.
और हां, दिल्ली में बैठी सुप्रीम कोर्ट को न छोड़ना. इसी 'राष्ट्रविरोधी' संस्था ने 'सलवा जुडूम' के मंसूबों को ध्वस्त किया है. उस मानवाधिकार आयोग को भी मत छोड़ना, जिसने बलात्कारों के खिलाफ आदिवासी-पीड़ा को जबान दी. और उस सीबीआई को तो छोड़ना ही मत, जिसने रमन-मोदी के प्रति 'भक्ति' निभाने के बजाये ताड़मेटला के धुएं को पूरे देश में फैलाने का 'राष्ट्र विरोधी' काम किया. आखिर हमारी बिल्ली, हमसे ही म्याऊं!! उस 'राष्ट्र विरोधी' एडिटर्स गिल्ड को भी मत छोड़ना, जिसने कल्लूरी-राज में पत्रकारों के दमन पर अपनी मुहर लगाई है. इन सबको जेएनयू में ही देख लेने का मौका सौरभ हमें दे रहे हैं. हे सौरभ, ऐसे विरल मौके दिलाने के लिए तुमको शत-शत नमन!!!
मत चूकना कल्लूरी. इस देश की सभी राष्ट्रविरोधी संस्थाओं को ध्वस्त करना है.इनका विनाश ही इस देश के आदिवासी-दलितों को उनकी औकात बताएगा. नंदिनी-अर्चना की अक्ल को ठिकाने लगायेगा. आइआइएमसी में जो हवन जलाया गया है, उसमें इन सबको स्वाहा करना है. "स्वाहा-स्वाहा" का यह खेल ही 'हिन्दू राष्ट्र' का निर्माण करेगा. आओ, मौका अच्छा है. 'हिन्दू राष्ट्र' के हवन कुंड में "स्वाहा-स्वाहा" करते अपने हाथ सेंक लें और जेब भी.

Monday 22 May 2017

रस्सी जल गई, लेकिन ऐंठ नहीं गई...बेचारा कल्लूरी!!


उनके किये अपराधों से रमन सरकार भी शर्मिंदगी महसूस कर रही है. इसी कारण बस्तर से हटाकर रायपुर लाया गया. रायपुर में भी निठल्ले बैठे हुए है. सरकार को उनकी काबिलियत की परवाह होती, तो शहरी नेटवर्क को ही ध्वस्त करने का काम दे सकती थी. लेकिन इस सरकार को उनका निठल्लापन पसंद है, लेकिन काबिलियत नहीं. यह सरकार कई निठल्लों को बैठे-बैठाए पगार दे रही है, उसमें एक की बढ़ोतरी और हुई!!
हरिशंकर परसाई ने 'निठल्ले की डायरी' लिखकर खूब नाम कमाया. वे बुद्धिजीवी थे. ये महाशय भी अपने निठल्लेपन का बखान कर सकते है. लेकिन ये बेचारे परसाई-जैसे बुद्धिजीवी नहीं है कि निठल्ले-समय पर अपने अक्ल को रोप सके. वैसे कार्पोरेट सेवा में अक्ल का क्या काम!! अक्ल लगाने से 'मेवा' से भी वंचित होना पड़ेगा. रौब-रुतबे से वंचित तो उस सरकार ने कर ही दिया है, जिसकी जी-हुजूरी करने में पूरी जिन्दगी बिता दी.
लेकिन निठल्ले-समय का उपयोग तो करना ही था. मानवाधिकार आयोग में पेशी में हाजिर होने का समय भले ही न मिला हो, लेकिन आईआईएमसी में भाषण देने के लिए वक़्त तो है ही. बाहर भले ही 'मुर्दाबाद' के नारे लग रहे हो, लेकिन इसी शहरी नेटवर्क के खिलाफ तो उनकी लड़ाई है. ये तो वक्त-वक्त की बात है. आज तो वे सिर्फ नारे सुन रहे हैं, कल तक तो वे ऐसे लोगों को गोलियों से भून रहे थे. नारे लगाना भी कोई बहादुरी है बच्चू...!!!
सो, उधर वे नारे लगा रहे थे, इधर वे 'हवन' में आदिवासियों को स्वाहा कर रहे थे. बता रहे थे कि बस्तर का आदिवासी गरीब और भूखा नहीं है. इसलिए उसको क्रांति की जरूरत भी नहीं है. कितना गहरा और विषद शोध और अध्ययन है कल्लूरीजी का. ऐसे ज्ञान पर कौन नहीं मर मिटेगा!!! अब रमन सरकार को चाहिए कि तमाम आदिवासी योजनाओं को बंद कर दे. आदिवासियों की कथित सेवा के नाम पर जो कल्याण आश्रम आरएसएस (-- रैकेट ऑफ़ सेक्स स्कैंडल्स --) ने खोल रखे है, उन्हें बंद कर दे. इससे आदिवासियों की हजारों करोड़ रुपयों की हथियाई गई भूमि भी मुक्त हो जायेगी.
बस्तर में न तो आदिवासियों को क्रांति की जरूरत है, न कल्लूरी को. तो फिर कल्लूरी महोदय किसकी सेवा कर रहे है? स्पष्ट है, उन लोगों की जिनको प्रतिक्रांति की जरूरत है. वे टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी-जिंदल की सेवा कर रहे है. उन्हें आदिवासियों की जमीन चाहिए, उन्हें वहां की नदियों का बहता पानी चाहिए, उन्हें उनके जंगल चाहिए, उन्हें वह सब कुछ चाहिए जो उनके जंगलों में दबा पडा है. इस सब को पाने के लिए बस्तर के जंगलों से आदिवासियों को भगाना जरूरी है. इसके लिए कल्लूरी जरूरी है. कल्लूरी के इरादों को मजबूत करने के लिए भाजपा-आरएसएस जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट क सलवा जुडूम पर निर्णय इसी जरूरत का पर्दाफाश करता है. कोर्ट इसे 'कार्पोरेट आतंकवाद' का नाम देता है.
लेकिन कल्लूरी महाशय के लिए इस देश का कानून-कोर्ट-संविधान कोई महत्व नहीं रखता. वे ही संविधान हैं, वे ही कानून, वे ही अदालत हैं और वे ही जज. अभियोग और मुक़दमा चलाने वाली पुलिस तो खैर वे है ही. तो भाई साहब, जो कल्लूरी से पंगा लेगा, उसकी खैर नहीं. नंदिनी सुन्दर, अर्चना प्रसाद, संजय पराते आदियों की गिरफ़्तारी पर भले ही सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी हो, लेकिन उन्हें जब-तब गिरफ्तार करने की धमकी-चमकी तो दी ही जा सकती है. कौन झूठा और कौन सच्चा -- इसका सर्टिफिकेट तो बांटा ही जा सकता है. कोर्ट और मानवाधिकार आयोग के सामने पेश होते भले ही चड्डी गीली होती हो, लेकिन टीवी में बहादुरी दिखाने में, महिलाओं को 'फ़क यू' का मेसेज करने में उनकी अक्ल का जाता क्या है?
तो दिल्ली में कल्लूरी महाशय ने शहरी नेटवर्क को खूब गरियाया. लेकिन नक्सलियों के नाम पर जिन निर्दोष आदिवासियों को उन्होंने जेलों में कैद करके रखा है, उस पर वे चुप थे. उनके बहादुर सैनिकों ने जिन गांवों को जलाया, जिन महिलाओं से बलात्कार किया, जिन नौजवानों की हत्याएं की और मानवाधिकार आयोग ने जिन आरोपों की पुष्टि की है, उस पर बेचारे मौन ही रहे. अपने राज में हुए फर्जी मुठभेड़ों और फर्जी आत्मसमर्पणों पर उनको चुप ही रहना था. बस्तर में पूरा लोकतंत्र और मानवाधिकार सैनिक बूटों के नीचे कराह रहा है, उस पर वे चुप ही रहेंगे. हमें तो लगता था कि आरोप मानकर ही वे इसका खंडन कर देते, लेकिन ऐसी हिम्मत 'कार्पोरेट दल्लों' में नहीं होती.
तो हे कल्लूरी, तुम्हारी धमकी-चमकी-बदतमीजी से नक्सली डर सकते है, वे लोग नहीं, जो इस देश में लोकतंत्र और संविधान को बचाने की, इस देश के आम नागरिकों को कार्पोरेट लूट से बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. याद रखो, इस देश की जनता भगतसिंह को याद करती है, जनरल डायर को नहीं. हम जानते हैं कि रस्सी जलने के बाद भी ऐंठ नहीं जाती, लेकिन उसमें कोई बल भी नहीं होता.