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आज की चुनौतियां
और भगत सिंह
--संजय पराते
भगत सिंह को 23 मार्च 1931
को फांसी की सजा दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन
स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये , जिन्होने
देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी । उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद
को ललकारा । मात्र 23 साल की उम्र में उन्होनें शहादत पाई, लेकिन
शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को
लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिको को जाति, भाषा,
संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले । निश्चित
ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक
आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था । इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद
की ओर आकर्षित हुए. उन्होने
मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विषद
अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक
कम्युनिस्ट के रूप में हुआ । अपनी फांसी के चंद मिनट पहले वे ‘ लेनिन
की जीवनी ‘ को पढ़ रहे थे और उनके ही शब्दों में एक
क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा था । उल्लेखनीय है कि लेनिन ही वह
क्रांतिकारी थे, जिन्होने रूस में वहां के राजा जार का तख्ता पलट कर दुनियां में
पहली बार किसी देश में मजदूर - किसान राज की स्थापना की थी, सोवियत संघ का गठन किया था और मार्क्सवादी
प्रस्थापनाओं के आधार पर शोषणविहीन समाज के गठन की ओर कदम बढ़ाया था । लेनिन के
नेतृत्व में यह कार्य वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने ही किया था । इसलिए वैज्ञानिक
समाजवाद के दर्शन को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम से ही पूरी दुनिया में जाना जाता
है । स्पष्ट है कि भगतसिंह भी इस देश से
अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भगाकर मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रस्थापनाओं के
आधार पर ही ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे ,जहां मनुष्य,
मनुष्य का शोषण न कर सके । अपने वैज्ञानिक
अध्ययन और क्रांतिकारी अनुभवों के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि यह
काम कोई बुर्जुआ -पूंजीवादी दल नही कर सकता, बल्कि केवल और केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही समाज का ऐसा रूपान्तरण कर सकती है । इसलिए
कम्युनिस्ट पार्टी और उसके क्रांतिकारी जनसंगठनों का गठन, ऐसी पार्टी और जनसंगठनों
के नेतृत्व में आम जनता के तमाम तबको की उनकी ज्वलंत मांगो और समस्याओं के इर्द-गिर्द
जबरदस्त लामबंदी और क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यवाहियों का आयोजन बहुंत जरूरी है ।
व्यापक जनसंघर्षों के आयोजन के बिना और इन संघर्षों से प्राप्त अनुभवों से समाज की
राजनैतिक चेतना को बदले बिना किसी बदलाव की उम्मीद नही की जानी चाहिये । 'नौजवान
राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम' पत्र में भगत सिंह ने अपने इन विचारों का विस्तार
से खुलासा किया है ।
इस प्रकार, भगतसिंह हमारे देश की आजादी के
आंदोलन के क्रांतिकारी-वैचारिक प्रतिनिधि बनकर उभरते हैं, जिन्होनें हमारे देश की
आजादी की लड़ाई को केवल अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति तक सीमित नही रखा, बल्कि
उसे वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ाई से भी जोड़ा और पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता तथा
पूंजीवादी-सामंती विचारों से मुक्ति की अवधारणा से भी जोड़ा । मानव समाज के लिए
ऐसी मुक्ति तभी संभव है, जब उन्हें धार्मिक आधार पर बांटने वाली सांप्रदायिक
ताकतों और विचारों को जड़ मूल से उखाड़ फेंका जाये , जातिवाद
का समूल नाश हो, धर्म को पूरी तरह से निजी विश्वासों तक सीमित कर दिया जाय और
आर्थिक न्याय को सामाजिक न्याय के साथ कड़ाई से जोड़ा जाय । ऐसा सामाजिक न्याय -- जो
जातिप्रथा उन्मूलन की ओर बढ़े और जो स्त्री-पुरूष असमानता को खत्म करें , व्यापक
भूमि सुधारों के बल पर सांमती विचारों की सभी अभिव्यक्तियों व प्रतीकों के खिलाफ
लड़कर ही हासिल किया जा सकता है । भारतीय समाज बहुरंगी है, कई धर्म हैं, कई भाषाएं
हैं, सांस्कृतिक रूप से धनी इस देश में सदियों से कई संस्कृतियां आकर घुलती-मिलती
रही है । लोगों के पहनावे ,खान-पान तथा आचार-व्यवहार भी अलग-अलग
है । इसलिए भारतीय संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति है, हमारी विविधता में एकता यही
है कि इतनी भिन्नताओं के बावजूद हमारी मानवीय समस्याएं, सुख-दुख,
आशा-आकाक्षाएं एक है । हमारे देश की एकता और अखण्डता की रक्षा तभी की जा सकती है,
जब हम इस विविधता का सम्मान करना सीखें और इसके
बहुरंगीपन को खत्म कर एक रंगत्व में ढालनें
की कोशिशों को मात दी जाय । इसी विविधता में हमारा सामूहिक अस्तित्व और
संप्रभुता सुरक्षित है । भगतसिंह का संघर्ष भारत की एकता के लिए इसी विविधता की
रक्षा करने का संघर्ष था । इस संघर्ष के क्रम में वे सांप्रदायिक-जातिवादी संगठनों
व उसके नेताओं की तीखी आलोचना भी करते है। भगतसिंह गांधीजी और और कांगेस की आलोचना
भी इसी प्ररिप्रेक्ष्य में करते हैं कि उनकी नीतियां अंग्रेजी साम्राज्यवाद से
समझौता करके गोरे शोषकों की जगह काले शोषकों को तो बैठा सकती है, लेकिन एक
समतामूलक समाज की स्थापना नही कर सकती ।
इस प्रकार भगतसिंह देश की आजादी की लड़ाई को
साम्राज्यवाद से मुक्ति, सांप्रदायिकता और जातिवाद से मुक्ति, वर्गीय
शोषण से मुक्ति तथा देश की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता व विविधता
की रक्षा के लिये संघर्ष से जोड़ते है और इसमें कमजोरी दिखाने के लिए आजादी के
तत्कालीन नेतृत्व की आलोचना करते हैं । भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि कितनी सटीक
थी, आज हम यह देख रहे हैं । अंग्रेजी साम्राज्यवाद चला गया, लेकिन वर्गीय शोषण बदस्तूर
जारी है । हमने राजनैतिक आजादी तो हासिल कर ली, किन्तु गांधीजी के ही 'अंतिम
व्यक्ति' के आंसू पोंछने का काम ठप्प पड़ा हुआ है, क्योंकि इस राजनैतिक आजादी को
अपने साथ आर्थिक आजादी तो लाना ही नहीं था । इस आर्थिक आजादी के बिना सामाजिक
न्याय की लड़ाई भी आगे बढ़ नही सकती और
हमारे राष्ट्रीय जीवन में सामाजिक अन्याय के विभिन्न रूपों का बोलबाला हो
चुका है । आर्थिक-सामाजिक न्याय के अभाव में हमारे देश की विविधता भी खतरे में पड़
गई है और सांप्रदायिक-फांसीवादी विचारधारा फल-फूल रही है, जिससे देश की
एकता-अखंडता-संप्रभुता ही खतरे में पड़ती जा रही है । स्पष्ट है कि कांग्रेस और
गांधीजी के नेतृत्व में जो राजनैतिक आजादी हासिल की गई, उसने हमारे देश-समाज की
समस्याओं को हल नहीं किया । इसे हल करने के लिए तो हमें भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि
से ही जुड़ना होगा और इसी दृष्टि पर आधारित वैकल्पिक नीतियों के इर्द-गिर्द
जनलामबंदी व संघर्षों को तेज करना होगा और पूंजीवादी-सांमती सत्ता को ही उखाड़
फेंकने की लड़ाई लड़ना होगा ।
भगतसिंह की विचारधारा के बारे में इतनी लंबी टिप्पणी
इसलिए कि आज जब राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की तस्वीरें लगातार धुंधली होती जा रही
है और जब आजादी के आंदोलन के दूसरे नेता लोंगो की स्मृति से गायब होते जा रहे है, भारतीय
जनमानस में और विशेषकर वर्तमान युवा पीढ़ी में आज भी भगतसिंह किंवदंती बनकर जिंदा
है और उनकी शहादत से प्रेरणा ग्रहण करता है । यही कारण है कि आज देश में भगतसिंह
को उनकी विचारधारा से काटकर पेश करने की कोशिश हो रही है । यह षड़यंत्र कितना गहरा
है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिन लोंगो का और जिन संगठनों और
दलों का भी भगतसिंह की विचारधारा से दूर-दूर तक संबंध नही है, वे ही भगतसिंह की
विरासत को हडपने की कोशिश कर रहे हैं । इस क्रम में वे भगतसिंह को सिख समाज के
नायक के रूप में पेश करते हैं, जबकि भगतसिंह पूरे देश के क्रांतिकारी आंदोलन का
प्रतिनिधित्व करते हैं और वास्तव में वे नास्तिक थे । इस क्रम में वो भगतसिंह को
आंतकवादी के रूप में पेश करते हैं, जबकि आतंकवाद से उनका दूर दूर तक कोई लेना-देना
नहीं था। कोर्ट में अपने मुकदमें के दौरान उन्होने स्पष्ट रूप से बयान दिया है -- ‘‘ क्रांति के लिए खूनी लड़ाईयां अनिवार्य
नही है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है । वह बम और
पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है । क्रांति से हमारा अभिप्राय है -- अन्याय पर आधारित
मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन ।‘‘ स्पष्ट है कि भगतसिंह की क्रांतिकारी
विरासत का ‘‘ माओवादी‘‘ उग्र-वामपंथी विचारधारा से भी कोई संबंध
नही है, जो सशस्त्र क्रांति के नाम पर केवल निरीह लोंगो की हत्या तक सीमित रह गया
है ।
भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश
वे हिन्दूवादी संगठन भी कर रहे हैं, जिनका आजादी के आंदोलन में कोई भी योगदान नही
था और वास्तव में तो वे अंग्रेजों की चापलूसी में ही लगे थे । ऐसे लोग उन्हें सावरकर
के बराबर रखने की कोशिश करते हैं, जबकि भगतसिंह का धर्मनिरपेक्षता में अटूट विश्वास
था और जिस नौजवान भारत सभा की उन्होंने स्थापना की थी, उसकी प्रमुख हिदायत ही यह
थी कि सांप्रदायिक विचारों को फैलाने वाली संस्थाओं या पार्टियों के साथ कोई संबंध
न रखा जाय और ऐसे आंदोलनों की मदद की जाय, जो सांप्रदायिक भावनाओं से मुक्त होने
के कारण नौजवान सभा के आदर्शों के नजदीक हों । इस प्रकार शोषणमुक्त समाज की
स्थापना में वे सांप्रदायिकता को सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे । यदि सांप्रदायिक
ताकतें आज भगतसिंह का गुणगान कर रही है, तो केवल इसलिए कि युवा समुदाय को दिग्भ्रमित
कर शोषणमुक्त समाज की स्थापना के संघर्ष को कमजोर किया जा सके ।
इस प्रकार भगतसिंह का जमीनी और वैचारिक संघर्ष देश
की आजादी के लिए साम्राज्यवाद के खिलाफ तो था ही, वर्गीय शोषण से मुक्ति और
समाजवाद की स्थापना के लिए सांप्रदायिकता, जातिवाद और असमानता के खिलाफ भी था
और देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता की रक्षा
के लिए आतंकवाद के खिलाफ भी था । देश के सुनहरे भविष्य के लिए भगतसिंह की यह सोच
उन्हें अपने समकालीन स्वाधीनता संग्राम के नेताओं से अलग करती है तथा उन्हें उत्कृष्ट
दर्जे पर रखती है । एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए उन्होने जो वैचारिक जमीन
तैयार की तथा इसके लिए जो संघर्ष किया, उसी के कारण भगतसिंह आज भी हिन्दुस्तानी
भारतीय-पाकिस्तानी जनमानस में जिंदा है ।
भगतसिंह ने मात्र 23 साल की
उम्र में शहादत पायी, लेकिन शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए यह उनकी वैचारिक
प्रखरता ही थी कि अंग्रेजी जेलों से मुक्त होने के बाद उनके साथ काम करने वाले
अधिकांश साथी कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये । शिव वर्मा, किशोरीलाल, अजय घोष, विजय
कुमार सिन्हा तथा जयदेव कपूर आदि इनमें शामिल थे । अजय घोष तो 1951-62
के दौरान संयुक्त सीपीआई के महासचिव भी बने । शिव वर्मा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट
पार्टी के प्रखर नेता बने । उन्होनें भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू
आदि के बारें में उनकी मानवीय कमजोरियों, खूबियों के साथ बेहतरीन संस्मरण भी लिखे
हैं । भगतसिंह और उनके साथियों की यह लड़ाई आज भी देश की प्रगतिशील जनवादी-वामपंथी
ताकतें ही आगे बढ़ा रही है । वे ही आज भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत के सच्चे
वाहक हैं ।
भगतसिंह ने तीन प्रमुख नारें दिये -- इंकलाब
जिंदाबाद! मजदूर वर्ग जिंदाबाद!! और साम्राज्यवाद का नाश हो!!! ये नारे आज भी देश
के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख नारे है और 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा तो लोक
प्रसिद्ध नारा बन चुका है । ये तीनो नारे उनके संघर्षों के सार सूत्र है । अपने
मुकदमे में उन्होने अदालत से कहा --
‘‘ समाज का प्रमुख
अंग होते हुये भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प
जाते हैं । दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज
है । दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों
के तन को ढंकने को भी कपड़ा नही पा रहा है । सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले
राजगीर, लोहार तथा
बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं । इसके
विपरित समाज में जोंक रूपी शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा
न्यारा कर देते हैं ।
यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया
गया भेदभाव दुनियां को एक बहुंत बड़ी उथल-पुथल
की ओर लिए जा रहा है । यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नही रह सकती । स्पष्ट है कि
आज का धनिक वर्ग एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है ।
सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते संभाला नही
गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा । देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और
जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर
समाज का पुनर्निर्माण करें ।
क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है, जिसका
अपहरण नही किया जा सकता । स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है ।
श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना
श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है ।
इन आदर्शों और विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड
दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे । क्रांति की इस पूजा वेदी पर हम अपना यौवन नैवद्य के रूप
में लाए हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है । ‘‘
भगतसिंह के इस बयान से साफ है कि जनसाधारण और
मेहनतकश मजदूर-किसानों के लिए जीवन स्थितियां और ज्यादा प्रतिकूल हुई है, क्योकि
साम्राज्यवादी शोषकों की जगह पूंजीवादी-सामंती शोषकों ने लिया है । ये काले शोषक अपनी
तिजोरियां भरने के लिए साम्राज्यवादपरस्त उदारीकरण की नीतियों को बड़ी तेजी से
लागू कर रहे हैं और हमारे देश का बाजार
उनकी लूट के लिए खोल रहे हैं । अमीरों और गरीबों की बीच की असमानता, शोषक और शोषितों
के बीच का संघर्ष भगतसिंह के बाद के 84 सालों में
सैकड़ों गुना बढ़ गया है. इसलिए समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता और समानता के
सिद्धान्त पर आधारित शोषणविहीन समाज की स्थापना की जरूरत पहले की अपेक्षा और
ज्यादा प्रासंगिक हो गई है । लेकिन समाज का यह पुनर्गठन मजदूर-किसानों और समाज के
तमाम उत्पीडि़त-दलित तबकों की एकता के बिना और इसके बल पर व्यापक जनसंघर्षों को
संगठित किये बिना संभव नही है । वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित मार्क्सवादी-लेनिनवादी
दृष्टिकोण ही इस एकता और संघर्ष को विकसित करने का हथियार बनेगा । लेकिन व्यवस्था
में ऐसे आमूलचूल परिवर्तनो के लिए आवश्यक साधनों का संगठन आसान काम नही है और
राजनैतिक कार्यकर्ताओं से बहुंत बड़ी कुर्बानियों की मांग करता है । ये रास्ता
काटों भरा है, जिसमें यंत्रणा, उत्पीड़न, दमन और जेल है । लेकिन केवल इसी रास्ते
से होकर क्रांति का रास्ता आगे बढ़ता है ।
ऐसा क्यों? इसलिए कि भगतसिंह के समय में जो
साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद के रूप में जिंदा था, आज वह वैश्वीकरण के रूप में फल-फूल
रहा है । भगतसिंह के समय में विश्व स्तर पर समाजवाद की ताकते आगे बढ़ रही थी,
सोवियत संघ के पतन के बाद आज वह कमजोर हो गया है । स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवादी
मूल्यों ने जाति भेद की दीवारों ने कमजोर किया था और सांप्रदायिक ताकतों को पीछे
हटने के लिए मजबूर किया था, लेकिन आजादी के बाद सत्ताधारी पूंजीपति-सामंती वर्ग ने
ठीक उन्हीं ताकतों से समझौता किया, नतीजन समाज में जाति आधारित उत्पीड़न और
जातिवादी विचारों को फिर फलने-फूलने का मौका मिला और सांप्रदायिक-फासीवादी विचारों
की वाहक ताकतें तो सीधे केन्द्र की सत्ता में ही है । विश्व स्तर समाजवाद की ताकतों
के कमजोर होने और इस देश में वामपंथ की संसदीय ताकत में कमी आने के कारण कार्पोरेट
मीडिया को पूंजीवाद के अमरत्व का प्रचार करने का मौका मिल गया । इस प्रकार आज के
समय में भगतसिंह के विचारों और समाजवादी क्रांति की प्रासंगगिकता तो बढ़ी है,
लेकिन इस रास्ते पर अमल की दुश्वारियां तो कई गुना ज्यादा बढ़ गई है ।
1990 के दशक में हमारे देश में वैश्वीकरण-उदारीकरण
की जिन नीतियों को लागू किया गया जा रहा है, उसका चौतरफा दुष्प्रभाव समाज और
अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में पड़ा है । ये ऐसे दुष्प्रभाव हैं कि एक-दूसरे
के फलने-फूलने का कारण भी बनते हैं और हमारा सामाजिक-आर्थिक जीवन चौतरफा संकटों से
घिरता जाता है । इससे उबरने, बाहर निकलने का कोई उपाय आसानी से नजर नही आता ।
हमारे देश की शासक पार्टियां विशेषकर कांग्रेस और भाजपा इन संकटों से उबरने का जो
नुख्सा पेश करती है, उससे और एक नया संकट पैदा हो जाता है । वास्तव में उनकी
नीतियां संकट को हल करने की नही, देश को संकटग्रस्त करने की ही होती है ।
हमारा देश कृषि प्रधान देष है और इस देश के
विकास की कोई भी परिकल्पना कृषि को दरकिनार करके नहीं की जा सकती । इस देश में कृषि
और किसानों का विकास करना है, तो भूमिहीन व गरीब किसानों को खेती व आवास के लिए
जमीन देना होगा । आज देश में तीन-चौथाई भूमि का स्वामित्व केवल एक तिहाई संपन्न
किसानों के हाथों में है । आजादी के बाद भूमि सुधार कानून बनाए गये, लेकिन लागू
नही किए गए । इसलिए गरीबों को देने के लिए जमीन की कोई कमी नहीं है । इसी प्रकार लगभग दो करोड़ आदिवासी परिवारों का
वनभूमि पर कब्जा है । आदिवासी वनाधिकार कानून तो बना, लेकिन इसका भी सही तरीके से
क्रियान्वयन नही किया गया और आज भी वे जंगलों से बेदखल किये जा रहे हैं । इन
गरीबों को जमीन दिये जाने के साथ ही उन्हें खेती करने की सुविधाएं यथा सस्ती दरों
पर बैंक कर्ज, बीज, खाद, दवाई, बिजली, पानी
देना चाहिये । खेती किसानी के मौसम के बाद इन्हें मनरेगा में गांव में ही काम
मिलना चाहिये । इसके लिए ग्रामीण विकास के कार्यो में सरकार को निवेश करना होगा ।
किसानों की पूरी फसल को लाभकारी दामों पर खरीदने की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिये
। इस अनाज को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ते दामों पर देश के सभी नागरिकों
को वितरित करना चाहिये, ताकि गरीब लोग बाजार के उतार-चढ़ाव के झटकों तथा
कालाबाजारी व महंगाई से बच सके ।
इन उपायों से कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा और
उसका वितरण भी सुनिश्चित हो सकेगा । इससे ग्रामीण जनता की आय में वृद्धि होगी और
बाजार में उनके खरीदने की ताकत बढ़ेगी । इससे औद्योगिक मालों की मांग बढ़ेगी, नये
कारखाने खुलेंगे तथा बेरोजगारों को काम मिलेगा । शहरी बेरोजगारों को काम मिलने से
और पुनः उनकी भी क्रय शक्ति बढ़ने से अर्थव्यवस्था को और गति मिलेगी । भारतीय अर्थव्यवस्था
के विकास का यही सीधा-सरल सूत्र है ।
लेकिन आजादी के बाद और खासकर वैश्वीकरण-उदारीकरण
के इस जमाने में हो उल्टा रहा है । किसानों को जमीन नही दी गई और जिनके पास थोड़ी-बहुत
जमीन है, उसे कानून बदलकर या षड़यंत्र रचकर पूंजीपतियों के लिए छीना जा रहा है ।
आदिवासी, दलितों
व आर्थिक रूप से वंचितों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है । कृषि सामग्रियों पर
सब्सिडी खत्म की जा रही है, जिससे फसल का लागत मूल्य बढ़ रहा है. सरकार न तो
न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए तैयार और न ही उसका अनाज खरीदने के लिए ।
बाजार में लुटने के सिवा उनके पास कोई चारा नही है । मनरेगा कानून को भी खत्म कर
उन्हें ग्रामीण रोजगार से वंचित किया जा रहा है । सस्ते राशन की प्रणाली से सभी
गरीब व जरूरतमंद धीरे-धीरे बाहर किये जा रहे हैं और उन्हें बाजार में महंगे दरों
पर खाद्यान्न खरीदनें के लिए बाध्य किया जा रहा है । इससे ग्रामीण जनता की क्रय शक्ति
में भंयकर गिरावट आ रही है, वे कर्ज के मकड़जाल में फंस रहे हैं, खेती-किसानी छोड़
रहे हैं और पलायन करने या आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं । जब 75
प्रतिशत जनता की खरीदने की शक्ति कमजोर होगी, तो मांग भी घटेगी । मांग घटने से
कारखाने बंद होंगे और जिन लोंगो के पास काम है, वे भी बेरोजगारी की दलदल में ढकेले
जायेंगे । इससे पूरे देश की अर्थव्यवस्था मंदी फंस जायेगी. और वास्तव में यही हो
रहा है । खेती-किसानी भी बर्बाद हो रही है और कारखानें भी बच नही रहे हैं ।
इस मंदी और संकट के लिए जिम्मेदार कौन है? निश्चित ही वे पूंजीवादी पार्टियां, जिन्होंने
आजादी के बाद इस देश पर राज किया है और लम्बे समय तक राज करने वाली क्रांग्रेस और
भाजपा भी इसमें शामिल है । इन्हीं के राज में विश्व व्यापार संगठन से समझौता किया
गया था कि हमारे देश के बाजार में विदेशी जितना चाहे, जो चाहें, बेच सकते हैं और
यहां के अनाज मगरमच्छों को भारी सब्सिडी देकर. इसलिए इस देश के किसानों का अनाज
खरीदने के लिए कोई तैयार नही है । इन्हीं के राज में मांग घटने पर सरकारी कारखानें
बंद किये जा रहे है, ताकि पूंजीपतियों के कारखाने चलते रहे और वे भारी मुनाफा
बटोरते रहें । बेरोजगारी बढ़ने का फायदा वे उठाते हैं मजदूरी में और कमी कर,
ज्यादा मुनाफा बटोरने के लिए । वे इसी कारण से स्थानीय मजदूरों को जानबूझकर काम
नही देते, बल्कि बाहर से मजदूर मंगाते है और ठेकेदारों के जरिए काम करवाते हैं ।
ये पूंजीपति विदेशी पूंजीपतियों से सांठगाठ करते हैं और इनके जरिये बाजार में निवेश
करते हैं, जिसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कहते हैं । खुदरा व्यापार में ये
निवेश कर रहे हैं और 4 करोड़ खुदरा व्यापारियों, जिनमें ठेले वाले से
लेकर सड़क पर बैठने वाले खुदरा कारोबारी और छोटे-मोटे दुकानदार शामिल हैं, की रोजी-रोटी
संकट में है । विदेशी पैसो की ताकत इन सबको तबाह करने में पर तुली है । वे इस देश
के बीमा क्षेत्र को, बैंक को, रेल को, रक्षा क्षेत्र को -- अर्थव्यवस्था के सभी
महत्वपूर्ण क्षेत्रों को -- हड़पनें में लगे हैं । जनता तबाह हो जाए, लेकिन इनका
मुनाफा बढ़ता रहे, यही इन सरकारों की नीति है ।
इस संकट का एक और आयाम है । ये कारखाना बनाने
के नाम पर केवल किसानों की जमीन ही नहीं, इस देश की प्राकृतिक संपदा को छीन रहे
हैं । बिजली, सीमेंट या इस्पात कारखाना बनाने के लिए कोयला खदानों की मांग वे करते
हैं । कोयला खोदने के लिए जंगलों को उजाड़ते हैं और वहां बसे आदिवासियों को भगाते
हैं । कोयला खदानों के स्वामित्व के बल पर वे अपनी कंपनियों के शेयरों के भाव
बढ़ाकर जमकर मुनाफा कमाते है । बिजली, सीमेंट इस्पात आदि बने या ना बने, कोयला
खोदकर मुनाफा कमाते हैं । यदि कारखाने शुरू हो जाये, तो इसे चलाने के लिए नदियों
पर कब्जा करते हैं और समाज को
नदियों के जल के उपयोग तक से वंचित करते हैं । और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए वे
पूरा औद्योगिक कचरा नदियों में बहाते हैं, पर्यावरण व जैव-पारिस्थितिकी को बर्बाद
करते हैं । इस कारखाने को चलाने के लिए वे बैंको से कर्ज लेते हैं, जहां हमारा ही
पैसा जमा होता है । यानी, इन पूंजीपतियों की गांठ से कुछ नही जाता, वे हमारे ही
पैसे से हमको उजाड़ने का खेल खेलते हैं और मुनाफा, मुनाफा ...और मुनाफा ही कमाते हैं
। इस सबके बावजूद, इस मुनाफे पर वे कानूनी टैक्स भी नही देते और कांग्रेस-भाजपा की
सरकारें हर साल 6 लाख करोड़ रूपयों का टैक्स वसूलना छोड़ देने
की घोषणा करती है । जन साधारण के लिए समाज कल्याण के कार्यो के लिए इन सरकारों के
पास फंड नही होते, लेकिन पूंजीपतियों को लुटाने के लिए पूरा बजट है । इस लूट को और
तेज करने के लिए आम जनता के हित में बनाये गये तमाम कानूनों को वो खत्म कर रहे हैं,
तोड़-मरोड़ रहे हैं, या कमजोर कर रहे है। इनमें तमाम श्रम कानून शामिल है, भूमि
अधिग्रहण और पुनर्वास कानून है, मनरेगा कानून है, आदिवासी वनाधिकार कानून, पेसा कानून आदि सभी शामिल है । प्राकृतिक संपदा की हड़प नीति को इस सरकार का संरक्षण मिला हुआ
है, जिसने लाखों करोड़ों रूपयों के 2-जी, कोल घोटाला जैसे घोटालों को जन्म
दिया है ।
मानव सभ्यता का इतिहास शोषण के खिलाफ संघर्ष का
इतिहास है और जब इतने बड़े पैमाने पर समाज
को उसके नैसर्गिक अधिकार से वंचित किया जायेगा, उसके कानूनी आधिकार छीने जायेंगे
और उनकी भावी पीढि़यों को भी संचित निधि से वंचित कर उनको बरबाद करने की साजिश रची
जायेगी, तो निश्चित ही जनसंघर्ष भी विकसित होंगे । इन जनसंघर्षों को कुचलने की
साजिश भी पूंजीवादी सत्ताएं करती है । कानून और इसकी व्याख्या शोषकों के हितों में
काम करती है । लेकिन जब इससे भी काम नही चलता, तो जनता को धार्मिक-जातिगत आधार पर
बांटने की कोशिश की जाती है । सांप्रदायिक और जातीय दंगे भड़काये जाते हैं, नफरत
की दीवार खड़ी करके एक गरीब को दूसरे गरीब के खिलाफ भड़काया जाता है । भगतसिंह के
समय अंग्रेजो की जो ‘‘बांटो और राज करो'' की नीति
थी, वही नीति आज भी चल रही है । सांप्रदायिक और धार्मिक तत्ववादी ताकतें अपना खुला
खेल खेल रही है । सवर्णो का अवर्णो पर जातीय उत्पीड़न जारी है । सामाजिक न्याय की
लड़ाई को कुचलनें के लिए ‘‘कमंडल में कमल'' खिलाया
जा रहा है ।
इसलिये साम्राज्यवाद के खिलाफ, सांप्रदायिकता,
जातिवाद व सामाजिक अन्याय के खिलाफ, आर्थिक विषमता के खिलाफ -- और इस सबके लिए जिम्मेदार
पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता के खिलाफ लड़ाई और ज्यादा प्रासंगिक हो गई है । आज समाज
में जो बिमारियां दिख रही है, उसका इलाज भगतसिंह के दिखाए रास्ते पर ही चलकर हो सकता
है । और वह रास्ता है मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अवधारणाओं और वैज्ञानिक समाजवाद के
बुनियादी सिद्धान्तों के आधार पर समाज के आमूलचूल बदलाव का रास्ता । इस रास्ते पर
इस देश की वामपंथी ताकतें और जनसंगठन ही चल रहे है, जो अपने उदयकाल से आज तक
वर्गहीन, शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्ष कर रही है । राजनैतिक आजादी को
आर्थिक आजादी व सामाजिक न्याय की दिशा में आगें ले जाने की कोशिश कर रही है ।
लेकिन यह संघर्ष आसान नहीं है । यह भारी
कुर्बानियों, धैर्य और अहं को त्यागने की मांग करता है । भगतसिंह के ही
प्रेरणास्पद शब्दों में -- ‘‘ अगर
आप इस दिशा में काम शुरू करते है, तो आपको बहुत संयत होना पड़ेगा । क्रांति के लिए
न तो भावनाओं में बहने की जरूरत है, न मौत की । इसके लिए दरकार है अनवरत संघर्ष, पीड़ा
तथा कुर्बानियों से भरे जीवन की । सबसे पहले अपने ‘अहं‘ को खत्म करो । व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं के
सपने को छोड़ दो ! इसके बाद काम शुरू करो । आपको इंच-दर-इंच बढ़ना होगा । इसके लिए
साहस, दृढता और बहुत दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए । कोई मुश्किल, कोई बाधा आपको
हतोत्साहित न कर पाये । कोई असफलता व विश्वासघात आपको हताश न कर पाये । आप पर ढाया
गया जुल्म आपकी क्रांतिकारी लगन को खत्म न कर पाये । तकलीफों व कुर्बानियों की
पीड़ा के बीच आप विजयी निकलें । और यह अलग-अलग जीतें क्रांति की मूल्यवान संपति
बनें ।‘‘
वर्तमान अन्यायकारी राजसत्ता से लड़ने और समाज
को बदलनें के लिए भगतसिंह के आव्हान पर ऐसे ही राजनैतिक कार्यकर्ता और वैज्ञानिक
समाजवाद के दर्शन की समझ को विकसित करने की जरूरत है । समाजवाद के सिद्धान्त को
भगतसिंह की व्यवहारिक समझ से जोड़कर ही इस संघर्ष को आगे बढ़ाया जा सकता है ।
आइए शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए हम सब
वामपंथ के साथ एकजुट हों।
(मो) 094242-31650