सरकारी स्कूल बंद करने का मतलब
--संजय पराते
कम दर्ज
संख्या के आधार पर पूरे देश में 40000 स्कूलों को बंद किया जा रहा है.इनमें
छत्तीसगढ़ के लगभग 2000 स्कूल हैं. इसे 'युक्तियुक्तकरण' का नाम दिया जा रहा है. इन
स्कूलों के बंद होने से छत्तीसगढ़ में लगभग 50-60 हजार बच्चों के प्रभावित होने तथा
लगभग 4000 मध्यान्ह भोजन बनाने वाले मजदूरों और सफाईकर्मियों का रोजगार ख़त्म होने
की आशंका है. सरकार ने यह तो स्पष्ट किया है किबंद होने वाले स्कूलों के बच्चों को
पास के ही किसी और स्कूल में प्रवेश दे दिया जायेगा, लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं
किया है कि रोजगार खोने वाले इन 4000 मजदूरों को रोजगार-सुरक्षा कैसे दी जाएगी?
तर्क चाहे
कुछ भी हों, जिन उदारवादी नीतियों पर मोदी सरकार और तेजी से चल रही है और जिसके
फलस्वरूप समाज कल्याण कार्यों में खर्च होने वाले बजट में बड़े पैमाने पर कटौती की
जा रही है तथा संविधान द्वारा घोषित राज्य के 'कल्याणकारी' चरित्र को ख़त्म कर इसे
'सब्सिडी मुक्त राज्य' बनाने की पहल की जा रही है, उसके चलते शिक्षा क्षेत्र पर
हमला होना ही था. शिक्षा अब राज्य की जिम्मेदारी नहीं रही, बल्कि अब उस बाज़ार की
जिम्मेदारी हो गई है, जो मांग और आपूर्ति के नियमों पर काम करती है और जिसके लिए
मुनाफा बटोरना ही विकास का पैमाना होता है. ऐसे विकास के लिए अब राज्य व केन्द्र
सरकारों के संरक्षण में शिक्षा माफिया प्रतिबद्ध है. इसी प्रतिबद्धता के चलते 'शिक्षा
मंदिरों' का कुकुरमुत्तों की तरह विकास हो रहा है. विकास के इस रास्ते पर सभी
पूंजीवादी पार्टियों के नेता अपना योगदान दे रहे हैं.
तो
छत्तीसगढ़ के 2000 स्कूल बंद हो रहे हैं और इनमें से अधिकांश विरल आबादी व जटिल
भौगोलिक क्षेत्र वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्थित हैं. ये ऐसे गांव हैं, जहां दो
मजरों-टोलों के बीच की दूरी भी दो-तीन किमी. होती है, जिन्हें कोई नदी, नाला या
पहाड़ पृथक करता हो सकता है. ये ऐसे गांव हैं, जहां गिनती के 10-15 घर भी न मिले,
तो पूरे गांव में पढ़ने वाले 60 बच्चे मिलना तो दूर की बात है! ये ऐसे गांव हैं,
जहां स्कूल सालों से पेड़ के नीचे लग रहे हो सकते हैं या स्कूल भवन का निर्माण इतना
घटिया हुआ हो सकता है कि ग्रामीण और स्कूल शिक्षक वहां अपने बच्चों को पढ़ने देना
मुनासिब न समझते हो. ये ऐसे गांव भी हो सकते हैं, जहां स्कूल बिल्डिंग तो पक्की
हो, लेकिन नक्सलियों से निपटने के लिए पुलिस और सैन्य बलों ने कब्ज़ा कर रखा हो.
ऐसे स्कूल भी हो सकते हैं ये, जहां शौचालय तक की सुविधा न हो और मध्यान्ह भोजन कुछ
प्रभावशाली लोगों के पेट में ही पच जाता हो. इन गांवों में ऐसे स्कूल भी मिल सकते
हैं, जहां शिक्षक की जगह कोई चपरासी ही बच्चों को 'अ आ इ ई' और 'एक दो तीन चार'
पढ़ाता नजर आये और इस पुनीत काम के लिए कुछ अतिरिक्त मजदूरी शिक्षक से प्राप्त करता
हो. यहां ऐसे स्कूल भी हैं, जहां शिक्षक अपने खेतों में बच्चों को 'व्यावहारिक
कृषि प्रशिक्षण' देते नजर आएं और आप इन बच्चों को बगैर मजदूरी बैलों की तरह खटते
पाएं! छत्तीसगढ़ के इन गांवों में ये स्कूल बच्चियों के लिए कितना सुरक्षित हैं,
इसका पता समय-समय पर उजागर होने वाले यौन शोषण मामलों से लग जाता है. लेकिन इन
तमाम मुसीबतों के बावजूद इन सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ रहे हैं, तो ग्रामीणों के
हौसलों को ही सलाम कहना चाहिए.
जब ये
स्कूल खुले थे, तब भी इनमें दर्ज संख्या 60 नहीं रही होगी. इसके बावजूद, तब जिन
आधारों पर ये स्कूल खोले गए थे, क्या वे
कारण अब निराधार और अप्रासंगिक हो गए हैं? इसके पीछे निश्चित ही एक आधार यही था कि
शिक्षा क्षेत्र में पिछड़े हुए प्रदेश को और इसमें भी सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े
आदिवासियों-दलितों व अन्य तबकों को किस तरह आगे बढ़ाया जाएं. यह भी चिंता रही होगी
कि जब तक इस प्रदेश के एक-एक बच्चे को शिक्षा की रौशनी के दायरे में नहीं समेटा
जाता, हमारा समाज व प्रदेश मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर पिछड़ा ही रहेगा.
'शिक्षा बाज़ार' की ताकतों के प्रभाव को दरकिनार करते हुए भी ये स्कूल खुले होंगे.
कम दर्ज संख्या के बावजूद इन स्कूलों में शिक्षक रहे, बुनियादी सुविधाएं बच्चों को
मिले, ड्रॉप-आउट रोकने के लिए मध्यान्ह भोजन उन्हें मिले, छात्रवृत्ति और पाठ्य
सामग्री तक उनकी पहुंच बने-- ये सभी चिंताएं भी तब काम कर रही होगी. लेकिन अब ऐसा
लगता है कि निजीकरण-उदारीकरण के दौर में अब ये चिंताएं सरकारों की प्राथमिकता में
नहीं रहीं.
देश में
शिक्षा की स्थिति क्या है? नेशनल आरटीई फोरम के अनुसार, 40% स्कूलों में छात्रों
के लिए व 38% स्कूलों में छात्राओं के लिए शौचालय नहीं हैं, 54% स्कूल चारदीवारी
से सुरक्षित नहीं हैं, 43% स्कूलों में लाइब्रेरी नहीं हैं और 14% स्कूलों में
पीने का पानी. प्राथमिक स्कूलों में ही देश में 12 लाख शिक्षकों की कमी है और 35%
से ज्यादा स्कूलों में केवल एक या दो शिक्षक ही हैं , जो पांचों कक्षाओं की पढ़ाई
करवाते हैं. आरटीई के तहत निर्धारित शिक्षा संबंधी मापदंडों पर केवल 8% स्कूल ही
खरे उतरते हैं. आज भी देश में 6.6 लाख शिक्षक 'अप्रशिक्षित' हैं. इसीलिए सरकारी
स्कूलों की बदहाली के दम पर निजी स्कूल फल-फूल रहे हैं और आज ग्रामीण भारत में
इनकी संख्या 30.8% हैं. लोकसभा में पेश जानकारी के अनुसार, गांवों में आज आधे से
ज्यादा बच्चे इन्हीं निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं.
छत्तीसगढ़
की हालत भी ऐसी ही दयनीय है. एक रिपोर्ट के अनुसार, स्कूल शिक्षा सुविधाओं में
राष्ट्रीय स्तर पर हमारा स्थान 27वां है. 50% सरकारी स्कूल छात्राओं के लिए शौचालय
से, 59% स्कूल खेल के मैदान से, 44% स्कूल चारदीवारी से, 93% से अधिक कंप्यूटर
सुविधाओं से तथा 36% स्कूल शेडयुक्त किचन से वंचित हैं. यह वंचना इतनी ज्यादा है
कि प्रदेश में जहां प्राइमरी स्तर पर ड्रॉप-आउट रेट 3.5% है, वाही मिडिल स्तर पर
यह बढ़कर 5.5% हो जाती है. वर्ष 2013 में कुल 76204 बच्चों ने स्कूलों को 'अलविदा'
कहा. प्राथमिक स्तर पर जितने बच्चे नाम
दर्ज करवाते हैं, उनमें से 15% भी हायर
सेकेंडरी स्तर पर प्रवेश नहीं लेते. केवल 6.2% स्कूल ही आरटीई के मापदंडों को पूरा
करते हैं. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में कक्षा पांचवीं के 48% बच्चे
दूसरी कक्षा का भी पाठ नहीं पढ़ पाते और एक-तिहाई बच्चे गुणा-भाग तक नहीं कर पाते.
बच्चों की इस दयनीय स्थिति के लिए उन अप्रशिक्षित शिक्षकों का योगदान भी कम नहीं
है, जो 20 लाख बच्चों को पढ़ा रहे हैं. परदेश के इन स्कूलों में व्याख्याताओं,
प्राचार्यों तथा प्रधान पाठकों के 30 हजार से ज्यादा पड़ रिक्त हैं.
बदहाली के
इस आलम में प्रदेश में 14% निजी स्कूलों ने पांव पसार लिए हैं, जिनमें आज 15 लाख
से ज्यादा बच्चे 'कमरतोड़ फीस' की मार सहते पढ़ रहे हैं. आरटीई के तहत इन निजी
स्कूलों को 39 हजार गरीब, अजा-जजा व विकलांग बच्चों को प्रवेश देना है, लेकिन ये
इससे इंकार कर रहे हैं और सरकार असहाय है.
सवाल यही
है कि इन सरकारी स्कूलों के बंद होने से क्या बाकी बचे स्कूलों की सेहत में कुछ
सुधर हो जायेगा? दशकों से वंचना झेल रहे हमारे बच्चों को क्या कुछ बुनियादी
सुविधाएं मिलने लगेगी?? हमारे स्कूलों में क्या शिक्षकों की कमी दूर हो जाएगी और
शिक्षा का स्तर ऊंचा हो जायेगा??? हमारा अनुभव तो यही कहता है कि इस सबकी कोई आशा
ही नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सरकार की नीतियां-नीयत भी ऐसा करने की नहीं है. बल्कि
उसका जोर तो शिक्षा क्षेत्र के हरेक स्तर पर निजी शिक्षण संस्थाओं को बढ़ावा देने
का ही है. यही कारण हैं कि प्रदेश के 10 हजार निजी शिक्षण संस्थाओं में औसतन 150
छात्र पढ़ रहे हैं, तो सकरी स्कूलों में केवल 100. इस गणित से 2000 सरकारी स्कूलों
के बंद होने पर 500 से ज्यदा निजी स्कूल खुलने की संभावना पैदा हो जाती है. इन
स्कूलों के केवल भारी-भरकम फीस पर नजर डालें (और औसतन 6000 रूपये प्रति वर्ष की ही
फीस मानें), तो सरकारी स्कूलों को बंद करने का यह कदम 40-50 करोड़ रुपयों का
'बाज़ार' पैदा करेगा. और यह केवल छत्तीसगढ़ का गणित है!! इसे पूरे देश के पैमाने पर
प्रक्षेपित किया जाएं, तो यह नीति 8000 निजी शिक्षण संस्थाओं के लिए 700 करोड़ रुपयों
से ज्यादा का बाज़ार पैदा करने जा रही है. फिर यह सवाल भी नाजायज नहीं है कि इस
'शिक्षा बाज़ार' पर कब्ज़ा करने वाला असली खिलाडी कौन है?
भाजपा और
आरएसएस घोषित तौर पर संपूर्ण शिक्षा पद्धति का पुनर्गठन 'हिन्दूवादी मूल्यों' को
स्थापित करने के लिए करना चाहती है. अपने इस इरादे को उन्होंने कभी छुपाया भी नहीं
है और इस दिशा में पाठ्यक्रम के पुनर्गठन, पाठ्यपुस्तकों में अपने मनमाफिक बदलाव
से लेकर 'हिन्दू मूल्यों के प्रचार के लिए प्रतिबद्ध' शिक्षा संस्थाओं के संचालन तक
सतत उद्यमशील रहे हैं. भाजपा के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद उनकी ऐसी
उद्यमशीलता में काफी तेजी आई है. विद्या भारती की छतरी के नीचे शिशु मंदिरों से
लेकर विश्वविद्यालयों तक चलने वाले हजारों शैक्षणिक संस्थाओं का अनुभव उनके पास
हैं कि किस प्रकार सरकारों को धता बताकर, संविधान के बुनियादी सिद्द्घंतों के खिलाफ
ही अपने संकीर्ण-सांप्रदायिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए सार्वजनिक संसाधनों
का उपयोग किया जा सकता है. स्पष्ट है कि इन सरकारी स्कूलों को बंद करने से इस खली
होने वाले 'रिक्त स्थान' को कौन भरेगा!! इस 'रिक्त स्थान' में वे सरकारी भवन भी
आते हैं, जिनका उपयोग शिशु मंदिरों के विकास के लिए किया जा सकता है. इस 'रिक्त
स्थान' में वे छात्र-पालक भी आते हैं, जिनके पास पढ़ने-पढ़ाने की ललक तो है, लेकिन
निजी स्कूलों के सिवा और कोई विकल्प नहीं होगा. आदिवासी क्षेत्रों में आरएसएस को
जमाने का सुनियोजित प्रयास काफी लंबे समय से चल रहा है और शिशु मंदिरों की स्थापना
काफी सहायक हुई है. इस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ने का ही यह कदम है. लेकिन जो
ताकतें इस देश के संविधान और संवैधानिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हैं, जो इस देश
के 'कल्याणकारी' राज्य के चरित्र को बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें इन सरकारी
स्कूलों की रक्षा के लिए आगे आना होगा.