Wednesday, 25 July 2018

अंधेरगर्दी के खिलाफ टिमटिमाते दीये थे कॉ. रमेश नेताम

कॉ. रमेश नेताम नहीं रहे. एक लंबी बीमारी के बाद उनका निधन 23 जुलाई को हो गया. वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कांकेर जिला सचिव थे. ट्रेड यूनियन नेता के नाते मजदूरों के संगठनकर्ता थे. लेकिन वे केवल मजदूरों के नेता नहीं थे, आम जनता के दुःख-दर्दों में भी वे समान रूप से भागीदार थे और इस नाते लोकप्रिय जन नेता भी थे. दरअसल, वे अंधेरगर्दी के खिलाफ एक ऐसे टिमटिमाते दीये थे, जिसकी रौशनी के सहारे मंजिल की पहचान की जा सकती है.
इस 'टिमटिमाते दीये' के महत्त्व को #कमल_शुक्ला #Kamal_Shukla ने इस प्रकार रेखांकित किया है :
"बहुत कम पढ़े लिखे कॉमरेड रमेश बिना द्वंदवाद और मार्क्सवाद को पढ़े एक सच्चे कम्युनिष्ट थे । आज एक घटना की याद आ रही है । सम्भवतः 1998 की बात है , कांकेर नया नया जिला बना , तय हुआ कि जिला मुख्यालय शहर के बीच बनी ढाई सौ झोपड़पट्टी को तोड़कर बनाई जाए । करोड़ों का बजट भी आ गया । मैंने इस प्रोजेक्ट के खिलाफ खूब लिखा , शहर के विकास और खर्च की लागत कम करने के लिए नया रास्ता भी सुझाया और जिद में अड़े तत्कालीन कलेक्टर अजीत केसरी को यह सलाह भी दी कि इस प्रोजेक्ट में उजड़ने वाले सभी गरीबों को पहले व्यवस्थित किया जाय । मेरे लगातार लिखने के बाद नजीब कुरैशी के नेतृत्व में एक बड़ा जन आंदोलन हुआ , भोपाल में भी प्रदर्शन हुआ । हालांकि बाद में अनावश्यक नक्शा बदल कर ढाई सौ झोपड़पट्टी की जगह मात्र सात आठ ही तोड़ा गया, जो आंदोलन की जीत थी.।
गुस्साए कलेक्टर ने अहम और गुस्से में मेरे खिलाफ कई बड़ी कार्यवाही की । मेरे दो कमरे के छोटे से झोपड़े ( जो कि प्रोजेक्ट स्थल से बाहर था ) का पट्टा रदद् कर उसे राजसात कर दिया । तब महीने भर रिटायरमेंट के लिए बचे मालखाना अधिकारी ने मेरे मकान पर ताला लगाने से इनकार कर दिया था , गुस्साए कलेक्टर ने तब दल बल के साथ घर पहुंचकर मेरे घर का लाईट कटवाया । उसी रात सैकड़ों गरीब साथियों के साथ मोमबत्ती और दिया लेकर साथी रमेश नेताम ने मेरे घर मे बेसमय दीवाली मनाकर उस जिद्दी और धूर्त कलेक्टर को सबक सिखाया और मेरे पूरे परिवार की हताशा को खुशी में बदल दिया था , हम सब रो पड़े थे ।"
कॉ. रमेश नेताम के साथ जुड़ी ऐसी अनेक कहानियां होंगी, जिसे लेखनीबद्ध किया जाना चाहिए. लेकिन ये कहानियां किसी 'काल्पनिक' महामानव का निर्माण नहीं करती, बल्कि एक ऐसे इंसान को चित्रित करती है, जो अंधेरे और अंधेरगर्दी के खिलाफ लड़ रहा है, जूझ रहा है और यह लड़ना-जूझना बहुतों को इस बात का हौसला देता है कि जिंदगी में कभी 'अच्छा' भी होगा, इस धरती पर जीवन कभी खुशहाल भी होगा.
एक आदिवासी किसान परिवार में उनका जन्म हुआ. पिछले तीन दशकों से खेती-किसानी जिस दौर से गुजर रही है, वह हम सबको मालूम है. वे भवन निर्माण मजदूर बन गए.इस दौरान मजदूरों के शोषण को उन्होंने शिद्दत से महसूस किया. इसी बीच वे पार्टी और कांकेर में जुझारू पार्टी नेता कॉ. नजीब कुरैशी के संपर्क में आये. इस संपर्क ने उन्हें वामपंथ की ओर आकर्षित किया. वे निर्माण मजदूरों को संगठित करने में जुट गए. वे पार्टी के सदस्य बने, फिर जिला समिति सदस्य और फिर जिला सचिव. हमारे पुरखों ने मजदूर वर्ग के लिए जो लड़ाईयां लड़ी हैं, उसने सरकारों को 'दिखावे के लिए ही सही', कई कल्याणकारी योजनाएं बनाने के लिए बाध्य किया है. कॉ. रमेश नेताम इस दिखावे को सच्चाई में बदलने की लड़ाई लड़ते रहे. आज कांकेर जिले में जितने भी मजदूर श्रम कल्याण की योजनाओं का लाभ ले रहे हैं, वह कॉ. रमेश नेताम के नेतृत्व में हुए संघर्षों का ही नतीजा है.
उन्होंने दो बार विधानसभा का भी चुनाव लड़ा. छत्तीसगढ़ी में दिए उनके जोशीले भाषण से कॉ. बृंदा करात भी काफी प्रभावित हुई. उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के केंद्र में मजदूरों-किसानों व आम जनता की समस्याओं को रखा. उन्हें हमेशा सम्मानजनक वोट मिले. ये वोट कांग्रेस-भाजपा की तरह पैसों व शराब से खरीदे गए वोट नहीं थे, बल्कि उन संघर्षशील लोगों के वोट थे, जिन्होंने धनबल के आगे बिकने से, घुटने टेकने से इंकार कर दिया.
एक साधारण इंसान, साधारण नेता कभी आलोचना से परे नहीं होता. लेकिन उनके निधन से सभी स्तब्ध हैं, आलोचनाओं पर ताले लटके हैं. सबको उनकी कमी खल रही है. इस कमी को वामपंथ को मजबूत करके, उनके संघर्षों को आगे बढ़ाकर ही भरा जा सकता है.
इस कमी को भरने के लिए 9 अगस्त का देशव्यापी 'जेल भरो' आंदोलन है. मजदूरों-किसानों के संयुक्त सत्याग्रह से कांकेर भी अछूता नहीं रहेगा. कॉ. रमेश नेताम ने संघर्षों की जिस लौ को जगाया है, उसे मशाल में/ज्वाला में बदलने का हौसला हम सब मिलकर दिखायेंगे, यही संकल्प उनकी चिता पर लिया गया है.
लाल सलाम! कॉ. रमेश नेताम – लाल सलाम!
लेकिन रूठने से पहले बता तो देना था!! लेकिन तुम ऐसे जिद्दी कि माफ़ी तो मांगने से रहे – और मैं भी तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूंगा.
लेकिन ऐसे जाना भी नहीं था यार!!!

Sunday, 17 June 2018

भाजपा गठबंधन के सत्ता से बाहर होने की संभावना ज्यादा

पूरा मीडिया 'मोदीमय' है. ऐसे समय कोई सर्वे यह कहे कि मोदी की 'लोकप्रियता' तेजी से घट रही है, तो उस सर्वे का मीडिया की नज़रों से ओझल रहना ही अवश्यंभावी है. ठीक ऐसा ही लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के साथ हुआ है.
लोकनीति-सीएसडीएस अपने सर्वे के जरिये एक विश्वसनीय चुनावी आंकलन करने के लिए प्रसिद्ध है. इस वर्ष अप्रैल-मई के मध्य उसने जो सर्वे किया है, उसके अनुसार आज भाजपा-नीत राजग गठबंधन ठीक उसी प्रकार की 'अलोकप्रियता' का सामना कर रहा है, जैसी जुलाई 2013 में कांग्रेस-नीत संप्रग गठबंधन कर रहा था. जुलाई 2013 के बाद कांग्रेस की अलोकप्रियता तेजी से बढ़ी थी और उसे अप्रैल 2014 के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था. लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के अनुसार आज भाजपा की स्थिति ऐसी ही है. सर्वे में शामिल 47% लोग अब मोदी को दुबारा मौका नहीं देना चाहते और न केवल दलित-आदिवासियों और मुस्लिम-ईसाई-सिख अल्पसंख्यक समुदायों के बीच, बल्कि हिन्दुओं के बीच भी भाजपा का समर्थन तेजी से घट रहा है. जैसे-जैसे दिन गुजर रहे हैं, जीएसटी एक प्रमुख मुद्दा बनकर सामने आ रहा है और इसके खिलाफ आम जनता की नाराजगी लगातार बढ़ रही है. 40% लोग आज जीएसटी के पक्ष में नहीं है. 60% से ज्यादा लोग यह मानते हैं कि यह सरकार 'भ्रष्ट' है.
लेकिन जो लोग भारतीय राजनीति को 'व्यक्ति-आधारित चमत्कार' के रूप में देखते हैं, उनके लिए भी यह सर्वे कोई राहत नहीं देता. सर्वे के अनुसार, आज नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी को पसंद करने वाले लोगों की तादाद बराबर-बराबर 43% है. लेकिन इस बीच वे 30% लोग, जो पहले राहुल के विरोधी थे, आज उनके समर्थक है. 35% लोग, जो पहले मोदी के समर्थक थे, आज उनके विरोधी है. इस प्रकार, मोदी का जन समर्थन तेजी से घट रहा है और राहुल बढ़त बना रहे हैं.
सर्वे के अनुसार, आज मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पास 49% वोट है, तो भाजपा के पास महज 34% और आगामी विधानसभा चुनावों में उसकी निर्णायक हार तय है. इसी प्रकार, राजस्थान में भाजपा पर कांग्रेस 5% ज्यादा वोटों की बढ़त बनाए हुए हैं और उसके पास 44% वोट हैं. उत्तरप्रदेश में भी राजग गठबंधन के पास 35% वोट हैं, तो सपा-बसपा –रालोद जैसे क्षेत्रीय गठबंधन के पास 55% वोट हैं.
'The Quint' में राघव बहल ने इस सर्वे की तुलना इस वर्ष अभी तक हुए 10 लोकसभा और 21 विधानसभा उपचुनावों के नतीजों से की है और लोकनीति के सर्वे को 'विश्वसनीयता' प्रदान की है. ये चुनाव जनवरी-मई के मध्य हुए थे और 15 राज्यों के 1.25 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं ने इसमें 19 से ज्यादा राजनैतिक पार्टियों के लिए वोटिंग किया था. इन उपचुनावों में भाजपा गठबंधन ने केवल दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट ही जीती हैं और उसे 36% वोट मिले हैं; तो वहीँ कांग्रेस गठबंधन को 32% तथा सपा-बसपा गठबंधन को 13.3% वोट मिले हैं. इस प्रकार आज देश के पैमाने पर कांग्रेस के पास 25% वोट हैं, तो भाजपा के खिलाफ उभर रहे 'नए गठबंधन' का संयुक्त मत-प्रतिशत 42% से ऊपर हो रहा है, जो किसी भी गठबंधन को केन्द्रीय सत्ता में पहुंचा सकता है. जिस प्रकार भाजपा गठबंधन की लोकप्रियता गिर रही है और उसके पास आम जनता को लुभाने के लिए और कोई मुद्दा बचा नहीं दिखता, भाजपा गठबंधन के सत्ता से बाहर होने की संभावना को ही ज्यादा बल मिलता है.

Friday, 11 May 2018

यदि पत्थलगड़ी 'असंवैधानिक' है, तो क्या हिन्दू-राष्ट्र 'संवैधानिक' है?



वे लेनिन की मूर्ति को तोड़ रहे हैं, क्योंकि वे अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन और शोषणविहीन समाज निर्माण के प्रणेता हैंI वे पेरियार की मूर्ति तोड़ रहे हैं, क्योंकि वे जातिवाद के खिलाफ संघर्ष के उत्कृष्ट नायक हैंI वे अंबेडकर की मूर्ति भंजन कर रहे हैं, क्योंकि मनु के संविधान को लागू करना चाहते हैंI वे गांधीजी की मूर्ति तोड़ रहे हैं, क्योंकि गोड़से को 'महात्मा' बनाना चाहते हैंI वे आदिवासी अधिकारों की उद्घोषणा करने वाले पत्थरों (पत्थलगड़ी) को तोड़ रहे हैं, क्योंकि उनसे जल-जंगल-जमीन के अधिकार  को छीनना चाहते हैंI वे केवल तोड़-फोड़ करना जानते हैंI अभी तक उन्होंने कुछ बनाया नहीं है, लेकिन कह रहे हैं कि 'हिन्दू-राष्ट्र' बनाना है, इसलिए जो कुछ है, उसे तोड़ना-फोड़ना जरूरी हैI कानून को, संविधान को, मस्जिद को, किले को, संसद को, विधानसभा को –सबको- यहां तक कि मूर्तियों और तस्वीरों को भीI जिस संविधान को तोड़ना चाहते हैं, उसको बनाने वाले की मूर्ति पहले टूटनी चाहिएI जिन दलितों-आदिवासियों और मेहनतकशों का वे दमन करना चाहते हैं, उनके आदर्शों को पहले बिखरना चाहिएI जिन किलों को स्वतंत्रता संग्राम का स्मारक बताया जा रहा है, उसे पहले बिकना चाहिएI जिसे वे दुश्मन बता रहे हैं, उसकी निशानी पहले टूटना चाहिएI इस देश की जनता ने जो कुछ पीढ़ियों से बनाया है, उसे तोड़ने के लिए 'जाहिलों की फ़ौज' चाहिएI ऐसी फ़ौज, जो तीन दिनों में 'सेना' की जगह ले सकेI जाहिलों की फ़ौज जितनी बड़ी होगी, तोड़ना-फोड़ना उतना ही आसान होगा और 'हिन्दू-राष्ट्र' की स्थापना की राह भी उतनी ही आसान होगीI

इसीलिये छत्तीसगढ़ में अब वे 'पत्थर' तोड़ रहे हैंI वे चाहते हैं कि आदिवासी उनके हिन्दू-राष्ट्र को गढ़ने के काम में आये, उन पत्थरों को गाड़ने के लिए नहीं, जो 'राष्ट्रसेवकों' की राह में कांटे बिछाएI उन्हें अब पत्थरों से भी डर लगता है, क्योंकि वे 'जीवित शिलालेख' हैं, जो आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की उद्घोषणा कर रहे हैंI इन अधिकारों को उसी संसद ने पारित किया है, जिस पर आज मोदी बैठे हैंI ऐसा करते हुए संसद ने और उस पर काबिज तब के सत्ताधारियों ने आदिवासियों से माफ़ी मांगी थी, उनके साथ हो रहे 'ऐतिहासिक अन्याय' को दूर करने का आश्वासन दिया थाI लेकिन यह माफ़ी भी चालाकी ही साबित हुईI प्रभु वर्ग ने न अंबेडकर के संविधान में रखे पांचवीं-छठी अनुसूची के प्रावधानों को उसकी भावनाओं में लागू किया, न पेसा कानून को और न ही वनाधिकार कानून कोI आदिवासी तब भी मानवाधिकारों से वंचित थे, आज भी हैंI जल-जंगल-जमीन पर उनके अधिकार आज और तेजी से छीने जा रहे हैंI इसीलिए ये पत्थर 'जीवित शिलालेख' हैं कि बस, बहुत हुआ – अब और नहींI ये हमारे संवैधानिक अधकार हैंI ये हमारे कानून हैंI ये हमारे गांव की चौहद्दी है, जिसमें किसी का अतिक्रमण बर्दाश्त नहीं किया जाएगाI पेसा कानून में ग्राम सभा की जिस 'सर्वोच्चता' को स्थापित किया गया है, हम उसे बहाल करते हैंI

यही 'पत्थलगड़ी' है, जिसके खिलाफ 'हिन्दू-राष्ट्र' के सैनिक आक्रामक हैंI वे इसे नक्सलवादी आंदोलन बता रहे हैंI वे इसे सामाजिक सद्भाव को तोड़ने की चाल बता रहे हैंI वे इसे धर्मांतरण की साजिश बता रहे हैंI वे इन 'जीवित शिलालेखों' को तोड़ने के लिए यात्राएं निकल रहे हैंI भाजपा सरकार की ताकत 'पत्थरतोड़ी' करने वालों के साथ हैंI

तो इस सरकार से सवाल पूछा ही जाना चाहिए : क्या हमारा संविधा, हमारा पेसा कानून, 5वीं-6वीं अनुसूची, वनाधिकार कानून – ये सब नक्सलवाद के जनक हैं? क्या ये सब धर्मांतरण को बढ़ावा दे रहे हैं?? क्या 'राष्ट्र सेवकों' द्वारा परिभाषित 'सामाजिक सद्भाव' को बनाए रखने के लिए आदिवासियों को अपने अधिकारों, मानवाधिकारों और विशेषाधिकारों का त्याग कर देना चाहिए? सत्ता में बैठी कोई भी सरकार – भाजपा भी – इन सवालों का जवाब "नहीं" में ही देगीI तब यह भी पूछा जाना चाहिए कि फिर इन संवैधानिक प्रावधानों को आज तक लागू क्यों नहीं किया गया? क्यों आदिवासी आज भी अपने ईलाकों में 'दोयम दर्जे' का नागरिक बनकर जीने के लिए अभिशप्त हैं? सरकार बताएं कि कहां, कब और किस मामले में उनके अधिकारों को मान्यता दी गई है? यदि आदिवासी ईलाकों में 'आदिवासी स्वशासन' को ही मान्यता नहीं दी जाएगी, तो आदिवासी अपने ईलाकों में किसी रमन-मोदी या टाटा-अंबानी-अडानी को ही राज करने की इजाजत क्यों दें??

लोकतंत्र निरंकुश बहुमत और अल्पसंख्यकों के दमन का तंत्र नहीं होता, जैसा कि स्वघोषित राष्ट्रसेवक समझाना चाहते हैंI पूरी दुनिया के लोकतंत्र का इतिहास यही बताता है कि यह अल्पसंख्यक और कमजोर समुदायों के सम्मान और उनके अधिकारों की प्रतिष्ठा पर टिका होता हैI सामजिक सद्भाव के लिए भी यह जरूरी हैI हमारा संविधान व्यक्ति को किसी भी धर्म, ईश्वर को मानने या न मानने या इन पर अपनी आस्था बदलने का भी अधिकार देता हैI लेकिन धर्मांतरण का हौवा खड़ा करके आदिवासियों के खिलाफ गैर-आदिवासियों को लामबंद करना संघी गिरोह की बहुत पुरानी चाल हैI 'पत्थलगड़ी' के खिलाफ 'पत्थरतोड़ी' अभियान भी इसी चाल का हिस्सा हैI वे आदिवासी-अधिकारों की उद्घोषणा करने वाले पत्थरों को तोड़ रहे हैं और उनके अधिकारों के दमन का जश्न मना रहे हैंI




अब आदिवासियों को भी समझ में आ रहा है कि वर्तमान भाजपा राज्य में या भविष्य के कथित 'हिन्दू राष्ट्र' में उनके अधिकार सुरक्षित नहीं हैI उन्हें 'स्वशासन' का अपना अधिकार त्यागकर 'हिन्दू राष्ट्र की पालकी ढोने वाले कहारों' के रूप में ही रहना होगा, जिसमें उन्हें अपने नायकों की नहीं, गोड़से-सावरकर की पूजा करने के लिए बाध्य किया जाएगा, जिसमें उनके देवों की स्थिति हिन्दू देवों के अधीनस्थ चरणों की ही होगीI अंबेडकर ने ठीक ही कहा था कि 'हिन्दू राष्ट्र' दलित-दमितों के लिए विपदा ही होगी और उनकी गुलामी की घोषणाI

Thursday, 3 May 2018

सत्ता पर सवार 'विकास यात्रा'


                        

यह आलेख लिखते समय मुझे शरद जोशी का व्यंग्य 'जीप पर सवार इल्लियां' की याद आ रही है. भाजपा की मजबूरी है कि चुनावी वर्ष में वह गली-कूचे की ख़ाक छान रही है. पहले प्रशासन उतरा, फिर विधायक – और अब पूरी भाजपा ही सड़कों पर आने वाली है. उनकी मंशा आम जनता को प्रदेश के उस 'विकास' को दिखाना है, जिसकी पोल सरकारी आंकड़े खुद खोलते हैं और जिसके आधार पर ही सरकारी भोंपू बने नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने छत्तीसगढ़ को देश के पिछड़े हुए राज्यों में शुमार किया है. यह अलग बात है कि दो दिन बाद ही वे इससे पलटते नज़र आये.

छत्तीसगढ़ की जनता पिछले चार वर्षों से मोदी के 'अच्छे दिनों' को देख-देखकर ऊब चुकी है. भाजपा की 'विकास यात्रा' इस ऊब को दूर करेगी. वैसे ही, जैसे किसी बोर फिल्म में किसी अगली पिक्चर के ट्रेलर का मजा दर्शक लेते हैं – यह मालूम होते हुए भी कि आगामी फिल्म भी उनके जेब को चूना ही लगाएगी. इस 'विकास यात्रा' में ही लोग 'अच्छे दिनों' की झलक खोजेंगे और अपनी ऊब दूर करेंगे.

जो पार्टी जीडीपी वृद्धि दर को ही विकास का एकमात्र संकेतक मानती हो या चुनावी वर्ष में चप्पल, साइकिल, साड़ी और मोबाइल बांटने में यकीन करती हो, उस पार्टी की विकास यात्रा को आसानी से चुनौती दी जा सकती है. 'विकास' के जिस मॉडल को भाजपा ने छत्तीसगढ़ में पेश किया है, उसमें आम जनता के विकास के अलावा सब कुछ है. यहां कारोबारी सुगमता है, कॉर्पोरेट लूट है, समाज में बढ़ती असमानता है, सांप्रदायिक घृणा और नैतिक दरोगागिरी के आधार पर काम करने वाले संगठनों का फैलाव है और गले तक भ्रष्टाचार में डूबी सरकार है. भाजपा की कथित यात्रा इस मॉडल को बनाए रखने की जद्दोजहद ही है. इसलिए बुनियादी मानव सुविधाओं – शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, यातायात, आय आदि से जुड़े संकेतकों पर वे कोई बात नहीं करना चाहते. वे अपनी 'उपलब्धियों' के तौर पर कुछ अमूर्त दावे तो करते हैं, लेकिन इसका राज्य के मानव विकास सूचकांक पर क्या प्रभाव पड़ा, इस पर प्रायः मौन ही है.

भाजपा ने रोजगार देने का सपना बेरोजगारों को दिखाया था. लेकिन इस समय राज्य में 24 लाख से ज्यादा पंजीकृत बेरोजगार है और हर साल इनकी संख्या में 4.26 लाख से ज्यादा का इजाफा हो रहा है. लेकिन पिछले पांच सालों से सरकारी विभागों में डेढ़ लाख से ज्यादा छोटे-बड़े पद ज्यों-के-त्यों खाली हैं. इन पदों को भरने की घोषणायें कभी पूरी नहीं हुई – बल्कि आवेदन पत्रों के नाम पर हजारों करोड़ रूपये सरकार ने ही डकार लिए. पीएससी हमेशा विवादों में ही रही. निजी क्षेत्र की रुचि केवल 'हायर एंड फायर' में ही है, स्थायी रोजगार देने में नहीं. जरूरत है तो काम पर रखो, नहीं तो निकाल बाहर करो. न्यूनतम मजदूरी की भी कोई गारंटी नहीं. इन बेरोजगारों के लिए 'पकौड़ा रोजगार' भी नहीं बचता, क्योंकि आम जनता की हालत तो 'ठन-ठन गोपाल' ही है. प्रदेश के 40 लाख से ज्यादा परिवारों की मासिक आय 10000 रुपयों से कम है, जबकि रिपोर्टें कह रही हैं कि किसी परिवार को अपनी बुनियादी आवश्यकताएं पूरी करने तथा मानवीय गरिमा के साथ जिंदा रहने के लिए 21000 रूपये मासिक की जरूरत है.

70-80 हजार पद तो शिक्षाकर्मियों के ही खाली हैं, जो विकास की राह में 'नियमित शिक्षक' बनने का सपना पाले हुए हैं. युक्तियुक्तकरण के नाम पर आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्र की हजारों स्कूलों को बंद करने और लगभग एक लाख बच्चों को शिक्षा क्षेत्र से बाहर ढकेलने के बाद यदि प्रदेश में 5वीं का कोई बच्चा दूसरी का पाठ नहीं पढ़ पाता, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है. इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि प्रदेश का कोई भी संस्थान टॉप-20 की सूची में नहीं है. कैग ने ही बताया है कि आदिवासी और दलित छात्र-छात्राओं की छात्रवृत्ति को किस तरह दूसरे मदों में मोड़कर भ्रष्टाचार किया जाता है.

शिशु मृत्यु दर व बाल मृत्यु दर के आधार पर स्वास्थ्य के मामले में छत्तीसगढ़ देश में 12वें स्थान पर खड़ा है. प्रदेश के एक-तिहाई परिवार स्मार्ट कार्ड से वंचित हैं और जिन लोगों की स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच हैं, वे कॉर्पोरेट लूट के शिकार हैं. नसबंदी और आंखफोड़वा कांड के दाग अभी भी छत्तीसगढ़ से धुले नहीं है और रायपुर के प्रतिष्ठित एम्स में ही ऐसी घटनाएं हो रही हैं. मलेरिया से पीड़ित होने वाले और मरने वालों की संख्या में हर साल वृद्धि हो रही है. आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण और इससे होने वाली मौतें चिंता का विषय है. पिछले दो वर्षों में ही बस्तर संभाग में 56000 से ज्यादा बच्चे 'कुपोषित' के रूप में चिन्हित हुए हैं. लेकिन भाजपा की 'विकास यात्रा' के पथ पर यह मुद्दा रूकावट नहीं है.

रूकावट तो किसान आत्महत्या का मुद्दा भी नहीं है, जिसकी दर यहां देश में सबसे ज्यादा है. वादा तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर समर्थन मूल्य देने और क़र्ज़ मुक्ति का था, लेकिन हर चुनाव के समय केवल 'बोनस-बोनस' का ही खेल खेला गया. कृषि क्षेत्र में नोटबंदी और जीएसटी से हुई तबाही को छोड़ भी दिया जाए, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से वंचित चना उत्पादक किसानों को इस साल ही 1620 करोड़ रुपयों का नुकसान उठाना पड़ा है. वे बैंकिंग और महाजनी दोनों प्रकार के कर्जों में फंसे हुए हैं. एनएसएसओ का आंकलन है कि प्रदेश के हर किसान परिवार पर औसतन 47000 रुपयों का क़र्ज़ है, जबकि उसकी वार्षिक आय 20000 रूपये भी नहीं है. यही कारण है कि हर साल औसतन 1550 किसान आत्महत्या कर रहे हैं. लेकिन भाजपा एनसीआरबी की इस रिपोर्ट को भी मानने के लिए तैयार नहीं है. इन आत्महत्याओं का प्रदेश के कृषि संकट से सीधा संबंध हैं.

किसान लाभकारी समर्थन मूल्य से, तो मजदूर भी न्यूनतम मजदूरी से वंचित है. यहां त्रिपक्षीय वार्ता में बनी सहमति को भी बदल दिया गया. ट्रेड यूनियनों और मालिकान से वार्ता के बाद 9620-11830 रूपये न्यूनतम मजदूरी की अधिसूचना जारी की गई थी, जिसे बाद में मालिकों के दबाव में 8320-10530 रूपये कर दिया गया. दैनिक मजदूरी में 1300 रूपये की कटौती छोटी नहीं होती. लेकिन भाजपा की नज़रों में यह पूंजीपतियों के लिए औद्योगिक प्रोत्साहन है, जबकि इन्हीं पूंजीपतियों को 238 करोड़ रुपयों की बिजली सब्सिडी भी दी गई है. भले ही मनरेगा मजदूरों की 300 करोड़ रुपयों की मजदूरी देना बकाया हो, लेकिन उन्हें इस सरकार को उसकी संवेदनशीलता के लिए बधाई देनी ही चाहिए कि उनकी मजदूरी में उसने 2 रूपये प्रतिदिन की वृद्धि की है!!

कॉर्पोरेटों के पक्ष में प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने का ही नतीजा है कि प्रदेश में कृषि व वनभूमि का रकबा घटा है. छत्तीसगढ़ गठन के समय वर्ष 2000 में किसानों की संख्या 45% थी, जो आज घटकर 33% रह गई. इतनी ही संख्या में खेत मजदूर बढ़े हैं. याने भाजपा राज में किसानों का दरिद्रीकरण और सर्वहाराकरण तेज हुआ है. जिन आदिवासियों को वनाधिकार के आधे-अधूरे पट्टे भी मिले हैं, उन्हें छीना जा रहा है. 7 लाख आदिवासियों के वनभूमि पर दावों के आवेदन निरस्त कर दिए गए हैं. आदिवासी क्षेत्रों में 5वीं अनुसूची व पेसा कानून के प्रावधान प्रायः निष्क्रिय ही हैं और इसके खिलाफ आदिवासियों की दो बड़ी जनलामबंदियां हो चुकी है. दलित संगठनों के आह्वान पर 2 अप्रैल का छत्तीसगढ़ बंद भी भाजपाई विकास की पोल खोलने के लिए काफी है.

हर सरकारी योजना भ्रष्टाचार के रोग से ग्रस्त है. फसल बीमा योजना में पिछले वर्ष प्रीमियम से निजी बीमा कंपनियों ने वसूले तो 9041 करोड़ रूपये, लेकिन सूखे के मौसम में भी भरपाई की केवल 570 करोड़ रुपयों की. चुनावी फायदे के लिए 2100 करोड़ रुपयों के मोबाइल वितरित किए जायेंगे और लेकिन इसके लिए निजी टेलिकॉम कंपनियों के मोबाइल टावर भी वित्त आयोग के पैसों से यह सरकार ही खर्च करेगी. चाहे आवास योजना हो, या सड़क-बांध निर्माण की योजना, पूरा विकास 'ऋण लेकर घी पीने जैसा' है, क्योंकि विकास के नाम पर पिछले चार सालों में रिज़र्व बैंक से ही 19600 करोड़ रुपयों का क़र्ज़ लिया गया है, जिसका भुगतान इस प्रदेश की आने वाली पीढ़ियों को ही करना है.

कानून-व्यवस्था की हालत यह है कि प्रदेश में हर रोज 5 बलात्कार हो रहे हैं और हर चार दिन में एक सामूहिक बलात्कार. 'हिन्दू राष्ट्र' के यज्ञ में सांप्रदायिक सद्भाव की आहूति दी जा रही है और सबसे बड़ी अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी की रोजी-रोटी पर हमले का कोई मौका नहीं छोड़ा गया है. चर्च भी हिन्दुत्ववादी संगठनों के हमलों से सुरक्षित नहीं है.

छत्तीसगढ़ का निर्माण आदिवासियों के नाम पर किया गया था. राज्य बनने के बाद लोग यह आशा कर रहे थे कि उनकी जिंदगी की रोजमर्रा की समस्याएं हल हो जाएगी. राज्य में पिछले 17 वर्षों में से 14 वर्षों से लगातार भाजपा सत्ता में है और उसकी नाकामियां जगजाहिर है. भाजपा की विकास यात्रा इन नाकामियों पर पर्दा डालने की ही यात्रा है. यह यात्रा सत्ता पर कार्पोरेटों के नियंत्रण को सुनिश्चित करने की यात्रा है. लेकिन दिक्कत यह है कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की भी उदारीकरण की नीतियों से कोई असहमति नहीं है. इसलिए आम जनता को इन नीतियों से उपजे दुष्परिणामों के खिलाफ आंदोलित करने के बजाये वह लालटेन लेकर 'विकास की चिड़िया' की खोज कर रही है. वह केवल आशा ही कर सकती है कि इस नाटक से 'सत्ता की चिड़िया' उसके हाथ में आ जाये और उसका वनवास ख़त्म हो. इसलिए यह यात्रा भाजपा को फायदा पहुंचाएगी या कांग्रेस की वापसी का रास्ता खोलेगी, यह देखना मनोरंजक होगा.
                                                       sanjay.parate66@gmail.com
                                    
              
  

  

Friday, 26 May 2017

जुमलेबाजी के तीन साल

तीन साल बाद भाजपा का '2 करोड़ लोगों को हर साल काम' देने का वादा 'जुमला' साबित हो गया. अमित शाह ने कह दिया कि सबको काम देना संभव नहीं है, लोग स्व-रोजगार खोजे. भारतीय युवाओं के लिए इससे बड़ा छल और कुछ नहीं हो सकता, जिन्होंने संप्रग सरकार की रोजगार विरोधी नीतियों से तंग आकर मोदी का साथ दिया था और आज भी यह आशा लगाये हुए हैं कि 'डिजिटल इंडिया' से लेकर 'मेक इन इंडिया' तक की कसरत कल उनके लिए छप्पर-फाड़ रोजगार पैदा करेगी. अब तो अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का यह दावा ही हकीकत है कि वर्ष 2016 में भारत में 1.77 करोड़ लोग बेरोजगार थे, तो वर्ष 2018 में उनकी संख्या बढ़कर 1.80 करोड़ हो जायेगी. हर साल रोजगार के बाज़ार में 2 लारोड़ नौजवान कदम रखते हैं, लेकिन पिछले वर्ष काम मिला केवल 1.35 लाख लोगों को ही -- मोदी सरकार का श्रम विभाग भी यही बता रहा है.

लेकिन मोदी ने केवल नौजवानों के साथ ही जुमलेबाजी नहीं की, किसान भी इससे अछूते नहीं रहे, जिनसे ये वादा किया गया था कि उनकी फसल का एक-एक दाना लागत मूल्य से डेढ़ गुना कीमत पर सरकार खरीदेगी. किसानों ने क़र्ज़ लेकर बम्पर उत्पादन किया और फसल लेकर मंडी पहुंचते, उससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कह दिया कि सरकार के लिए इतना पैसा देना संभव नहीं. तब किसानों के लिए आत्महत्या के सिवा और चारा भी क्या था? सो. मोदी-राज में किसान आत्महत्याएं डेढ़ गुना बढ़नी ही थी. वादा तो 'किसानों की क़र्ज़मुक्ति' का था, लेकिन बैंकों के क़र्ज़ माफ़ हुए माल्या-जैसे पूंजीपतियों के. हर बजट में 5 लाख करोड़ की कर-छूट के साथ ही 6-7 लाख करोड़ बैंकों के भी एनपीए बनाकर उन्होंने हड़प लिए हैं. लेकिन ऐसा कोई वादा मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान धनकुबेरों से नहीं किया था.

सो वादे तो 'जुमलेबाजी' के लिए होते हैं. असली वादे तो वही होते हैं, जो घोषणापत्र में लिखे नहीं जाएं, लेकिन जिसके बारे में चुनाव में धन लगाने वाले जानते हो कि उनका 'इन्वेस्टमेंट' कब और कितना 'रिटर्न' देगा.

इसीलिए यदि हिन्दी अखबारों का सर्वे यदि कहता है कि 59% लोग मानते हैं कि मोदी के आने से उनके जीवन-स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. 'सबका विकास' तो विज्ञापन था, असलियत यही है कि आदिवासियों पर नक्सलियों के नाम पर, दलितों को गाय के नाम पर, मुस्लिमों को बाबर का औलाद बताकर, तो ईसाईयों पर धर्मांतरण के नाम पर हमले कई गुना बढ़ गए हैं. हमलावरों में भगवा कच्छाधारी बड़े पैमाने पर शामिल होते हैं और पुलिस अधिकारीयों की नाक के नीचे हंगामा करके फरार हो जाते हैं. 'हिन्दू राष्ट्र' की मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि जनतंत्र, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को पैरों तले कुचला जाएं और हिटलर-मुसोलिनी की तरह नस्लीय, धार्मिक घृणा फैलाई जाएं.

लोगों को यदि शिक्षा नहीं दोगे, स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रखोगे, उनके श्रम का उचित मूल्य नहीं दोगे, रोजगार से वंचित रखोगे, तो जो असंतोष पैदा होगा, उससे निपटने के लिए धर्म और जाति के आधार पर लोगों को बांटने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचता. मोदी महाशय यही कर रहे हैं. हर तानाशाह अपनी गद्दी बचाने के लिए यही करता है. फिलहाल संघी गिरोह इसमें सफल हैं. इसी सफलता का जश्न आज से वे मना रहे हैं. लेकिन लोगों की कब्र पर ऐसा जश्न उन्हें ही मुबारक, जो मांस-भक्षण पर तो पाबंदी लगाना चाहते हैं, लेकिन लोगों की हत्याएं करते, निरपराध महिलाओं का गर्भ चीरकर अजन्मे बच्चे को तलवार की नोंक पर घुमाते जिनके हाथ जरा भी नहीं कांपते.

Thursday, 25 May 2017

'हिन्दू राष्ट्र' के हवन कुंड में "आदिवासी स्वाहा" के लिए कल्लूरी का आमंत्रण....


"दिल्ली में बैठकर कोई बस्तर की समस्या को नहीं समझ सकता. इसके लिए दिल्ली में बैठे जिम्मेदार लोगों को बस्तर में जाने की जरूरत है." -- ये कहना था आईजी एसआरपी कल्लूरी का दिल्ली के जन संचार संस्थान (आइआइएमसी) में. दिल्ली के 'नासमझों' को बस्तर से चलकर यही समझाने आये थे वे, लेकिन प्रचार तो ऐसा था जैसे वे नक्सलियों के 'शहरी नेटवर्क' का पर्दाफ़ाश करने जा रहे हैं. लेकिन खोदा पहाड़, निकली चुहिया!! उनके भाषण का न तो उनके विषय से कोई संबंध था, न ही उनकी कथनी-करनी से. वैसे ये सवाल भी पलटकर पूछा जा सकता है कि बस्तर में बैठकर दिल्ली के नेटवर्क को समझने की उनमें कितनी अक्ल है?
लेकिन बस्तर दौरे का आमंत्रण नंदिनी सुन्दर या अर्चना प्रसाद के लिए नहीं है, क्योंकि न ही वे "बैठे" हैं और न ही "जिम्मेदार". 'दिल्ली में बैठे जिम्मेदार लोगों' की पहचान भी रमनसिंह के साथ मिलकर कल्लूरी ही करेंगे. पहचाने वही जायेंगे, जो रमन-कल्लूरी के दिखाए को देखेंगे, जो उनके कहे को सुनेंगे और जो उनके सुनाये को बतायेंगे. इसलिए उनकी पहचान उस संघी गिरोह के बाहर नहीं हो सकती, जो आजकल सेक्स रैकेट चलाने के नाम पर प्रसिद्धि पा रहे हैं. पिछले दिनों कन्हैया कुमार के मामले में उन्होंने नाम कमाया था. आजकल अरूंधती रे और शहला राशिद को गाली-गलौज करने में पूरे नंगे हो रहे हैं. देश का सवाल है और उसकी भक्ति का भी. देशभक्ति के लिए नंगे होने में कोई हर्ज़ नहीं है. इसी 'देशभक्ति' को दर्शाने के लिए कल्लूरी ने महिलाओं को 'फ़क यू' का संदेशा भिजवाया था. ये देश हिन्दुओं का है और उनकी रक्षा करने के लिए 'राष्ट्रविरोधियों' को 'फक' करना उनका पूरा-पूरा संवैधानिक अधिकार है!!!
तो बस्तर में जाने की इज़ाज़त केवल 'राष्ट्र भक्तों' को ही मिल सकती है. पहले 'राष्ट्र भक्त' है एबीवीपी के अध्यक्ष सौरभ कुमार, जिन्होंने कल्लूरी से प्रेरणा ली है और बस्तर की समस्या को समझने के लिए वहां कूच कर गए हैं. अब वे क्या समाधान खोदकर लाते हैं, यह तो बाद की बात है, लेकिन लगे हाथों जेएनयू में भाषण पेलने का निमंत्रण दे आये है. आखिर, हिन्दू संस्कृति में आमंत्रण का जवाब निमंत्रण ही तो होता है.
तो कल्लूरी, अबकी बार चूकना मत. तुम्हारे हाथ में सबूत हो या न हो, न हो तो फर्जी सबूत गढ़ने की पुलिसिया ट्रेनिंग का इस्तेमाल करना, लेकिन नंदिनी सुन्दर और अर्चना प्रसाद को गिरफ्तार करके जरूर लाना. अपनी वर्दी पर एकाध मैडल टांगना हो तो जीप की बोनट पर बांधकर लाना. 'राष्ट्र विरोधियों' से निपटने का एक नायाब तरीका हमारे देश की सेना ने खोजा है. उसका इस्तेमाल करना हर राष्ट्रभक्त 'ठोले' का कर्तव्य है. जब तक दिल्ली में ये बने रहेंगे, किसी आयोग, किसी कोर्ट या किसी ब्यूरो की उछलकूद जारी रहेगी.
मत चूकना कल्लूरी. इलाके बदलने से इरादे नहीं बदलते, इसे फील्ड में भी दिखाना होगा. इरादे नहीं बदलने वाले ही उंचाईयों पर चढ़ते हैं. टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी-जिंदल की सेवा ही 'राष्ट्र की सेवा' है. 'राष्ट्रभक्ति' का तकाज़ा है कि सभी आदिवासियों को माओवादी बताओ, आदिवासियों और उनके अधिकारों की बात करने वालों को माओवादियों के शहरी नेटवर्क का हिस्सा बताओ. जो इस 'बताओ अभियान' में बाधा डाले, ऐसे 'देशद्रोहियों' को कीड़े-मकोड़ों की तरह मसल देना चाहिए. जो आदिवासियों के जीवन की बात करें, जो उनके लिए बनाए गए कानूनों के पालन की बात करें, जो जवानों पर हत्या-बलात्कार-आगजनी के आरोपों का सबूत जुटाए, वे आखिर 'राष्ट्रभक्त' कैसे हो सकते हैं? ऐसे लोगों को गोलियों से उड़ा देना चाहिए. इन्हें सबक सीखाना राष्ट्रभक्तों का 'परम कर्तव्य' हैं.
मत चूकना चौहान. मौका सुनहरा है मोदी-राजनाथ-जेटली-रमन की नज़रों में चढ़ने का. जेएनयू 'राष्ट्रद्रोहियों' का सबसे बड़ा गढ़ है. इस पर जो हमला करेगा, संघी गिरोह की नज़रों में उतना ही चढ़ेगा. इस चढ़ाई पर पूरी दुनिया की नज़र पड़ेगी. न भी पड़े, तो ट्रम्प की तो जरूर पड़ेगी. आखिर हमारे मोदी सहित पूरी दुनिया के बादशाह उसकी नज़रों में चढ़ने को बेताब हैं. ट्रम्प की नज़र पड़ी, तो शायद काबिलियत को पहचान ले और अपनी पुलिस का ही सरताज बना दे. हम भी गर्व से कह सकेंगे, बस्तर का अनुभव पूरे अमेरिका को रास्ता दिखा रहा है.
और हां, दिल्ली में बैठी सुप्रीम कोर्ट को न छोड़ना. इसी 'राष्ट्रविरोधी' संस्था ने 'सलवा जुडूम' के मंसूबों को ध्वस्त किया है. उस मानवाधिकार आयोग को भी मत छोड़ना, जिसने बलात्कारों के खिलाफ आदिवासी-पीड़ा को जबान दी. और उस सीबीआई को तो छोड़ना ही मत, जिसने रमन-मोदी के प्रति 'भक्ति' निभाने के बजाये ताड़मेटला के धुएं को पूरे देश में फैलाने का 'राष्ट्र विरोधी' काम किया. आखिर हमारी बिल्ली, हमसे ही म्याऊं!! उस 'राष्ट्र विरोधी' एडिटर्स गिल्ड को भी मत छोड़ना, जिसने कल्लूरी-राज में पत्रकारों के दमन पर अपनी मुहर लगाई है. इन सबको जेएनयू में ही देख लेने का मौका सौरभ हमें दे रहे हैं. हे सौरभ, ऐसे विरल मौके दिलाने के लिए तुमको शत-शत नमन!!!
मत चूकना कल्लूरी. इस देश की सभी राष्ट्रविरोधी संस्थाओं को ध्वस्त करना है.इनका विनाश ही इस देश के आदिवासी-दलितों को उनकी औकात बताएगा. नंदिनी-अर्चना की अक्ल को ठिकाने लगायेगा. आइआइएमसी में जो हवन जलाया गया है, उसमें इन सबको स्वाहा करना है. "स्वाहा-स्वाहा" का यह खेल ही 'हिन्दू राष्ट्र' का निर्माण करेगा. आओ, मौका अच्छा है. 'हिन्दू राष्ट्र' के हवन कुंड में "स्वाहा-स्वाहा" करते अपने हाथ सेंक लें और जेब भी.

Monday, 22 May 2017

रस्सी जल गई, लेकिन ऐंठ नहीं गई...बेचारा कल्लूरी!!


उनके किये अपराधों से रमन सरकार भी शर्मिंदगी महसूस कर रही है. इसी कारण बस्तर से हटाकर रायपुर लाया गया. रायपुर में भी निठल्ले बैठे हुए है. सरकार को उनकी काबिलियत की परवाह होती, तो शहरी नेटवर्क को ही ध्वस्त करने का काम दे सकती थी. लेकिन इस सरकार को उनका निठल्लापन पसंद है, लेकिन काबिलियत नहीं. यह सरकार कई निठल्लों को बैठे-बैठाए पगार दे रही है, उसमें एक की बढ़ोतरी और हुई!!
हरिशंकर परसाई ने 'निठल्ले की डायरी' लिखकर खूब नाम कमाया. वे बुद्धिजीवी थे. ये महाशय भी अपने निठल्लेपन का बखान कर सकते है. लेकिन ये बेचारे परसाई-जैसे बुद्धिजीवी नहीं है कि निठल्ले-समय पर अपने अक्ल को रोप सके. वैसे कार्पोरेट सेवा में अक्ल का क्या काम!! अक्ल लगाने से 'मेवा' से भी वंचित होना पड़ेगा. रौब-रुतबे से वंचित तो उस सरकार ने कर ही दिया है, जिसकी जी-हुजूरी करने में पूरी जिन्दगी बिता दी.
लेकिन निठल्ले-समय का उपयोग तो करना ही था. मानवाधिकार आयोग में पेशी में हाजिर होने का समय भले ही न मिला हो, लेकिन आईआईएमसी में भाषण देने के लिए वक़्त तो है ही. बाहर भले ही 'मुर्दाबाद' के नारे लग रहे हो, लेकिन इसी शहरी नेटवर्क के खिलाफ तो उनकी लड़ाई है. ये तो वक्त-वक्त की बात है. आज तो वे सिर्फ नारे सुन रहे हैं, कल तक तो वे ऐसे लोगों को गोलियों से भून रहे थे. नारे लगाना भी कोई बहादुरी है बच्चू...!!!
सो, उधर वे नारे लगा रहे थे, इधर वे 'हवन' में आदिवासियों को स्वाहा कर रहे थे. बता रहे थे कि बस्तर का आदिवासी गरीब और भूखा नहीं है. इसलिए उसको क्रांति की जरूरत भी नहीं है. कितना गहरा और विषद शोध और अध्ययन है कल्लूरीजी का. ऐसे ज्ञान पर कौन नहीं मर मिटेगा!!! अब रमन सरकार को चाहिए कि तमाम आदिवासी योजनाओं को बंद कर दे. आदिवासियों की कथित सेवा के नाम पर जो कल्याण आश्रम आरएसएस (-- रैकेट ऑफ़ सेक्स स्कैंडल्स --) ने खोल रखे है, उन्हें बंद कर दे. इससे आदिवासियों की हजारों करोड़ रुपयों की हथियाई गई भूमि भी मुक्त हो जायेगी.
बस्तर में न तो आदिवासियों को क्रांति की जरूरत है, न कल्लूरी को. तो फिर कल्लूरी महोदय किसकी सेवा कर रहे है? स्पष्ट है, उन लोगों की जिनको प्रतिक्रांति की जरूरत है. वे टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी-जिंदल की सेवा कर रहे है. उन्हें आदिवासियों की जमीन चाहिए, उन्हें वहां की नदियों का बहता पानी चाहिए, उन्हें उनके जंगल चाहिए, उन्हें वह सब कुछ चाहिए जो उनके जंगलों में दबा पडा है. इस सब को पाने के लिए बस्तर के जंगलों से आदिवासियों को भगाना जरूरी है. इसके लिए कल्लूरी जरूरी है. कल्लूरी के इरादों को मजबूत करने के लिए भाजपा-आरएसएस जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट क सलवा जुडूम पर निर्णय इसी जरूरत का पर्दाफाश करता है. कोर्ट इसे 'कार्पोरेट आतंकवाद' का नाम देता है.
लेकिन कल्लूरी महाशय के लिए इस देश का कानून-कोर्ट-संविधान कोई महत्व नहीं रखता. वे ही संविधान हैं, वे ही कानून, वे ही अदालत हैं और वे ही जज. अभियोग और मुक़दमा चलाने वाली पुलिस तो खैर वे है ही. तो भाई साहब, जो कल्लूरी से पंगा लेगा, उसकी खैर नहीं. नंदिनी सुन्दर, अर्चना प्रसाद, संजय पराते आदियों की गिरफ़्तारी पर भले ही सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी हो, लेकिन उन्हें जब-तब गिरफ्तार करने की धमकी-चमकी तो दी ही जा सकती है. कौन झूठा और कौन सच्चा -- इसका सर्टिफिकेट तो बांटा ही जा सकता है. कोर्ट और मानवाधिकार आयोग के सामने पेश होते भले ही चड्डी गीली होती हो, लेकिन टीवी में बहादुरी दिखाने में, महिलाओं को 'फ़क यू' का मेसेज करने में उनकी अक्ल का जाता क्या है?
तो दिल्ली में कल्लूरी महाशय ने शहरी नेटवर्क को खूब गरियाया. लेकिन नक्सलियों के नाम पर जिन निर्दोष आदिवासियों को उन्होंने जेलों में कैद करके रखा है, उस पर वे चुप थे. उनके बहादुर सैनिकों ने जिन गांवों को जलाया, जिन महिलाओं से बलात्कार किया, जिन नौजवानों की हत्याएं की और मानवाधिकार आयोग ने जिन आरोपों की पुष्टि की है, उस पर बेचारे मौन ही रहे. अपने राज में हुए फर्जी मुठभेड़ों और फर्जी आत्मसमर्पणों पर उनको चुप ही रहना था. बस्तर में पूरा लोकतंत्र और मानवाधिकार सैनिक बूटों के नीचे कराह रहा है, उस पर वे चुप ही रहेंगे. हमें तो लगता था कि आरोप मानकर ही वे इसका खंडन कर देते, लेकिन ऐसी हिम्मत 'कार्पोरेट दल्लों' में नहीं होती.
तो हे कल्लूरी, तुम्हारी धमकी-चमकी-बदतमीजी से नक्सली डर सकते है, वे लोग नहीं, जो इस देश में लोकतंत्र और संविधान को बचाने की, इस देश के आम नागरिकों को कार्पोरेट लूट से बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. याद रखो, इस देश की जनता भगतसिंह को याद करती है, जनरल डायर को नहीं. हम जानते हैं कि रस्सी जलने के बाद भी ऐंठ नहीं जाती, लेकिन उसमें कोई बल भी नहीं होता.