कॉ. रमेश नेताम नहीं रहे. एक लंबी बीमारी के बाद उनका निधन 23 जुलाई को हो गया. वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कांकेर जिला सचिव थे. ट्रेड यूनियन नेता के नाते मजदूरों के संगठनकर्ता थे. लेकिन वे केवल मजदूरों के नेता नहीं थे, आम जनता के दुःख-दर्दों में भी वे समान रूप से भागीदार थे और इस नाते लोकप्रिय जन नेता भी थे. दरअसल, वे अंधेरगर्दी के खिलाफ एक ऐसे टिमटिमाते दीये थे, जिसकी रौशनी के सहारे मंजिल की पहचान की जा सकती है.
इस 'टिमटिमाते दीये' के महत्त्व को #कमल_शुक्ला #Kamal_Shukla ने इस प्रकार रेखांकित किया है :
"बहुत कम पढ़े लिखे कॉमरेड रमेश बिना द्वंदवाद और मार्क्सवाद को पढ़े एक सच्चे कम्युनिष्ट थे । आज एक घटना की याद आ रही है । सम्भवतः 1998 की बात है , कांकेर नया नया जिला बना , तय हुआ कि जिला मुख्यालय शहर के बीच बनी ढाई सौ झोपड़पट्टी को तोड़कर बनाई जाए । करोड़ों का बजट भी आ गया । मैंने इस प्रोजेक्ट के खिलाफ खूब लिखा , शहर के विकास और खर्च की लागत कम करने के लिए नया रास्ता भी सुझाया और जिद में अड़े तत्कालीन कलेक्टर अजीत केसरी को यह सलाह भी दी कि इस प्रोजेक्ट में उजड़ने वाले सभी गरीबों को पहले व्यवस्थित किया जाय । मेरे लगातार लिखने के बाद नजीब कुरैशी के नेतृत्व में एक बड़ा जन आंदोलन हुआ , भोपाल में भी प्रदर्शन हुआ । हालांकि बाद में अनावश्यक नक्शा बदल कर ढाई सौ झोपड़पट्टी की जगह मात्र सात आठ ही तोड़ा गया, जो आंदोलन की जीत थी.।
गुस्साए कलेक्टर ने अहम और गुस्से में मेरे खिलाफ कई बड़ी कार्यवाही की । मेरे दो कमरे के छोटे से झोपड़े ( जो कि प्रोजेक्ट स्थल से बाहर था ) का पट्टा रदद् कर उसे राजसात कर दिया । तब महीने भर रिटायरमेंट के लिए बचे मालखाना अधिकारी ने मेरे मकान पर ताला लगाने से इनकार कर दिया था , गुस्साए कलेक्टर ने तब दल बल के साथ घर पहुंचकर मेरे घर का लाईट कटवाया । उसी रात सैकड़ों गरीब साथियों के साथ मोमबत्ती और दिया लेकर साथी रमेश नेताम ने मेरे घर मे बेसमय दीवाली मनाकर उस जिद्दी और धूर्त कलेक्टर को सबक सिखाया और मेरे पूरे परिवार की हताशा को खुशी में बदल दिया था , हम सब रो पड़े थे ।"
कॉ. रमेश नेताम के साथ जुड़ी ऐसी अनेक कहानियां होंगी, जिसे लेखनीबद्ध किया जाना चाहिए. लेकिन ये कहानियां किसी 'काल्पनिक' महामानव का निर्माण नहीं करती, बल्कि एक ऐसे इंसान को चित्रित करती है, जो अंधेरे और अंधेरगर्दी के खिलाफ लड़ रहा है, जूझ रहा है और यह लड़ना-जूझना बहुतों को इस बात का हौसला देता है कि जिंदगी में कभी 'अच्छा' भी होगा, इस धरती पर जीवन कभी खुशहाल भी होगा.
एक आदिवासी किसान परिवार में उनका जन्म हुआ. पिछले तीन दशकों से खेती-किसानी जिस दौर से गुजर रही है, वह हम सबको मालूम है. वे भवन निर्माण मजदूर बन गए.इस दौरान मजदूरों के शोषण को उन्होंने शिद्दत से महसूस किया. इसी बीच वे पार्टी और कांकेर में जुझारू पार्टी नेता कॉ. नजीब कुरैशी के संपर्क में आये. इस संपर्क ने उन्हें वामपंथ की ओर आकर्षित किया. वे निर्माण मजदूरों को संगठित करने में जुट गए. वे पार्टी के सदस्य बने, फिर जिला समिति सदस्य और फिर जिला सचिव. हमारे पुरखों ने मजदूर वर्ग के लिए जो लड़ाईयां लड़ी हैं, उसने सरकारों को 'दिखावे के लिए ही सही', कई कल्याणकारी योजनाएं बनाने के लिए बाध्य किया है. कॉ. रमेश नेताम इस दिखावे को सच्चाई में बदलने की लड़ाई लड़ते रहे. आज कांकेर जिले में जितने भी मजदूर श्रम कल्याण की योजनाओं का लाभ ले रहे हैं, वह कॉ. रमेश नेताम के नेतृत्व में हुए संघर्षों का ही नतीजा है.
उन्होंने दो बार विधानसभा का भी चुनाव लड़ा. छत्तीसगढ़ी में दिए उनके जोशीले भाषण से कॉ. बृंदा करात भी काफी प्रभावित हुई. उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के केंद्र में मजदूरों-किसानों व आम जनता की समस्याओं को रखा. उन्हें हमेशा सम्मानजनक वोट मिले. ये वोट कांग्रेस-भाजपा की तरह पैसों व शराब से खरीदे गए वोट नहीं थे, बल्कि उन संघर्षशील लोगों के वोट थे, जिन्होंने धनबल के आगे बिकने से, घुटने टेकने से इंकार कर दिया.
एक साधारण इंसान, साधारण नेता कभी आलोचना से परे नहीं होता. लेकिन उनके निधन से सभी स्तब्ध हैं, आलोचनाओं पर ताले लटके हैं. सबको उनकी कमी खल रही है. इस कमी को वामपंथ को मजबूत करके, उनके संघर्षों को आगे बढ़ाकर ही भरा जा सकता है.
इस कमी को भरने के लिए 9 अगस्त का देशव्यापी 'जेल भरो' आंदोलन है. मजदूरों-किसानों के संयुक्त सत्याग्रह से कांकेर भी अछूता नहीं रहेगा. कॉ. रमेश नेताम ने संघर्षों की जिस लौ को जगाया है, उसे मशाल में/ज्वाला में बदलने का हौसला हम सब मिलकर दिखायेंगे, यही संकल्प उनकी चिता पर लिया गया है.
लाल सलाम! कॉ. रमेश नेताम – लाल सलाम!
लेकिन रूठने से पहले बता तो देना था!! लेकिन तुम ऐसे जिद्दी कि माफ़ी तो मांगने से रहे – और मैं भी तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूंगा.
लेकिन ऐसे जाना भी नहीं था यार!!!