Tuesday 29 September 2015

घट-घट में राम रमे

अट्टीपद कृष्णस्वामी रामानुजन दक्षिण-एशियाई संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा के अध्येता थे. वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो में दक्षिण-एशियाई अध्ययन के शिक्षक थे. दक्षिण एशिया का लोक साहित्य और भाषा-विज्ञान उनके अध्ययन की विषय-वस्तु थी और इस अध्ययन के क्रम में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की दर्जनों प्रतिष्ठित पुस्तकें लिखी हैं. उनके इस अध्ययन में लोक साहित्य के एक अंग के रूप में भारत और इसके विभिन्न भू-भागों, तिब्बत, तुर्किस्तान, थाईलैंड, बर्मा, लाओस, कम्बोडिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, मलय, इंडोनेशिया और चीन में फैली राम कथाओं, इन कथाओं में वस्तुगत और रूपगत भिन्नता तथा बलाघातों का अध्ययन भी शामिल था. इसके लिए उन्होंने एशियाई देशों तथा हमारे देश की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों तथा राज्यों में लोक मानस तथा लोक परम्पराओं में प्रचलित रामायणों का व्यापक अध्ययन किया था.

फरवरी 1987 में रामकथाओं पर अपने अध्ययन पर पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी में उन्होंने एक विचारोत्तेजक आलेख प्रस्तुत किया था, जो "Three Hundred Ramayanas : Five Examples and Three Thoughts on Translation" ( तीन सौ रामायणें : पांच उदाहरण और  अनुवाद पर तीन विचार) नामक  लेख के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. (आनर्स) के इतिहास के पाठ्यक्रम में पाठ्य सामग्री के तौर पर वर्ष 2005 से ही शामिल था. दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों ने इस लेख को 'हिंदूविरोधी' तथा 'हिन्दू समुदाय की भावनाओं को चोट करने वाला' करार देते हुए इसके खिलाफ एक हिंसक और आक्रामक अभियान चलाया था तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उपस्थिति सुनिश्चित करते हुए इस विश्वविद्यालय में तोड़-फोड़ की थी. फिर विश्वविद्यालय ने इस लेख के अकादमिक मूल्यांकन के लिए चार इतिहासकारों की एक समिति बनाई थी, जिसने इस लेख पर लगे आरोपों को खारिज कर दिया था. उन्होंने पाया कि इसमें एक भी ऐसा वाक्य नहीं था, जो इसके हमलावरों को अपने अभियान के लिए औचित्य प्रदान करता हो. इसके बावजूद विश्वविद्यालय प्रबंधन ने दक्षिणपंथी ताकतों के आगे घुटने टेकते हुए इस लेख को पाठ्यक्रम से हटा दिया था.      

दरअसल यह अभियान दक्षिणपंथी ताकतों के उसी आक्रामक अभियान का अंग था, जो हमारे देश और इस विशाल महाद्वीप की सांस्कृतिक बहुलता को नकारते हुए उसे इकरंगी बनाने की मुहिम छेड़े हुए हैं और इस क्रम में वे मुक्तिबोध की पुस्तकों की होली जलाते हैं, एम. एफ. हुसैन की पेंटिंगों तथा सहमत की प्रदर्शनियों पर हमले करते हैं, हबीब तनवीर के नाटकों में हंगामा करते हैं और इसी तरह विश्वविद्यालयी बौद्धिकता को आतंकित भी करते हैं. उनका यह अभियान सांस्कृतिक कम, राजनीतिक ज्यादा है -- राम नाम की लूट जो है. इसके लिए वे इस उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक बहुलता को निशाना बनाते हैं और तर्क-वितर्क और वाद-विवाद-संवाद की बौद्धिक और सांस्कृतिक अनुशीलन की प्रक्रिया का ही अपहरण करना चाहते हैं. दिल्ली के अंदर ऐसी शर्मनाक घटना का घटना भी केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस गठबंधन सरकार की 'धर्मनिरपेक्षता के प्रति वफ़ादारी' के दावे की कलई खोलने के लिए काफी था. यह घटना भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के उस दौर में होती है, जब केंद्र सरकार शिक्षा के द्वार विदेशी निवेशकों के लिए चौपट खोलने के लिए तैयार बैठी है और विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने देश में स्थापित करने के लिए आमंत्रित कर रही हैं. स्पष्ट है कि आज सरकारों की दिलचस्पी 'ज्ञान के प्रसार' में नहीं, बल्कि केवल उस बाज़ार में है, जो ज्ञान के प्रसार के नाम पर तो चलाया जायेगा, लेकिन जिसका असली मकसद मुनाफा कूटना ही है.

संस्कृति एक सतत प्रवाहित धारा है, जिसे आम जनता व उसका लोक मानस रचता-गढ़ता है. इसी धारा में वह डुबकी भी लगाता है और सांस्कृतिक अवरोधों से टकराता भी है. यह एक काल से दूसरे काल, एक समाज से दूसरे समाज तथा एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता की ओर निरंतर प्रवाहमान रहती है और इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक सम्मिश्रण नए मूल्य और विचार पैदा करती है और सांस्कृतिक रूपांतरण की इस प्रक्रिया से एक नई संस्कृति का जन्म होता है.

राम कथा भी हमारी सतत प्रवाहमान सांस्कृतिक धारा की एक अमूल्य धरोहर है. इस कथा ने लोगों को शिक्षित किया है, समाज में नए मूल्य दिए हैं तथा हमारी सभ्यता को परिष्कृत किया है. इस कथा में आम जनता का मनोरंजन है, तो लोक का लोकरंजन भी. जिस तरह संस्कृति का प्रवाह लिखित कम, मौखिक और वाचिक रूप में ही ज्यादा होता है, उसी तरह राम कथा भी समय-प्रवाह के साथ एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता में जाकर, एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में घुलते-मिलते हुए, लोक मानस में पैठते हुए, लिखित कम तथा मौखिक और वाचिक रूप में अधिक, परिष्कृत व परिवर्धित होती गई. इसलिए वाल्मिकी के लौकिक राम कालान्तर में विष्णु के अवतार और थाई संस्कृति में पहुंचकर शिव के अवतार में बदल जाते हैं. वाल्मिकी रामायण के नायक राम होते हैं, तो जैन रामायण के नायक रावण. और यह सब कपोल-कल्पित इसलिए नहीं कहे जा सकते कि उत्तर भारत में आज भी राम पूज्य है, तो दक्षिण में राम की वैसी महत्ता नहीं, जैसी कि रावण की. उस समाज-संस्कृति में रावण नायक है.

इस प्रकार काल के सतत प्रवाह के साथ प्रवाहमान रामकथा की सांस्कृतिक धारा ने ही नए-नए रूप और रंग ग्रहण किये हैं. पूरे उपमहाद्वीप में इतनी रामकथाएं बिखरी पड़ी हैं कि गिनना मुश्किल है. इन कथाओं के रूप-रंग-स्वाद में व्यापक रूप से भिन्नता है -- चाहे वह राम-लक्ष्मण-सीता के जन्म की कहानी हो, अहिल्या प्रकरण हो, रावण वध का प्रसंग हो या सीता की अग्नि-परीक्षा और निर्वासन का संदर्भ. एक कथा से दूसरी कथा, एक रामायण से दूसरी रामायण और एक परंपरा से दूसरी परंपरा में जाने पर इन कहानियों में पर्याप्त भिन्नता मिलती है -- वस्तुगत और रूपगत दोनों मामलों में. ए. के.रामानुजन बताते हैं कि इस उपमहाद्वीप में सैकड़ों रामायणें और हजारों रामकथाएं प्रचलित हैं. इन पर प्रचुर मात्र में टीका-टिप्पणियां और व्याख्याएं भी उपलब्ध हैं, जो हमारी गौरवशाली सांस्कृतिक-बौद्धिक समृद्धता का ही प्रतीक है.

तो फिर दक्षिणपंथियों को इस लेख से क्या दुश्मनी थी? दुश्मनी सिर्फ यही थी -- और असली बात भी यही है -- कि वे हमारे देश और भारतीय उपमहाद्वीप की उस सांस्कृतिक बहुलता के ही दुश्मन है, जो भिन्न संस्कृतियों, राष्ट्रीयताओं, जातियों, नस्लों, धर्मों व भाषाओँ के मिलन से पुष्पित-पल्लवित हुई है और जिसने मानव समाज को आगे बढाया है. रामानुजन का असली अपराध यही है कि उन्होंने राम को संघी गिरोह द्वारा प्रचारित राम की उत्तर भारतीय छवि से बाहर निकला है और उन्हें अपने लौकिक स्वरुप में स्थापित कर दिया है. अतः रामानुजन की यह ज्ञान-मीमांसा राम की आड़ में संघी गिरोह द्वारा हमारे देश की इकरंगी छवि पेश कर अपनी हिन्दुत्ववादी आक्रामक मुहिम चलाने के आड़े आती है, जो चाहती है कि भारत की आम जनता उनकी हिंदूवादी राजनीति को आगे बढ़ने के लिए राम को उनके भगवे चश्मे से ही देखे. संघी गिरोह के जो समर्थक रामानुजन के खिलाफ लट्ठ लेकर खड़े हैं, उनमें से किसी ने उनके आलेख को पढ़ा भी नहीं होगा.

हालांकि वाल्मिकीकृत रामायण को आदि रामायण माना जाता है, लेकिन इस बात के पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि वाल्मिकी से पूर्व भी अपनी मौखिक परंपरा में रामकथाएं प्रचलित थीं. वाल्मिकी ने तो सिर्फ इसे लिपिबद्ध किया था . फादर कामिल बुल्के, जो राम कथा के मर्मज्ञ थे, ने अपनी पुस्तक 'राम कथा : उत्पत्ति और विकास' मे यह बताया है कि वाल्मिकी की मूल रामायण में केवल 12000 श्लोक थे. बाद में लोगों द्वारा इसमें कई उल्लेखनीय घटना-प्रसंग जोड़े गए हैं और आज वाल्मिकी रामायण में श्लोकों की संख्या 25000 से ज्यादा है. कालांतर में रामकथा को केंद्र में रचकर खेली गई लीलाओं में इसे और अधिक मनोरंजक और लोकरंजक बनाने की दृष्टि से नए-नए प्रसंग जोड़े गए.

वाल्मिकी के समांतर ही ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी से ही रामकथाओं के विविध रूप बौद्ध और जैन पाठों में प्रचलित होने लगे थे. ये रामकथाएं और रामायणें वाल्मिकी रामायण और तुलसीदास कृत रामचरित मानस से पर्याप्त भिन्न हैं. जैन रामायण के अनुसार, सीता रावण की पुत्री है और रावण दानव नहीं है. यहां रावण का वध लक्ष्मण करते हैं, राम नहीं. बौद्ध परंपरा में राम और सीता भाई-बहन है.

थाई 'रामकीर्ति' में हनुमान न ही रामभक्त है और न ही ब्रह्मचारी, बल्कि वे शौक़ीन मिजाज़ व्यक्ति हैं, जो लंका के शयन कक्षों में झांकने और दूसरों की सोती हुई पत्नियों को देखने में न तो संकोच करते हैं और न ही इसे अनैतिक मानते हैं. संथाली परंपरा में तो सीता को व्यभिचारिणी माना जाता है, जिसका शीलभंग रावण और लक्ष्मण दोनों द्वारा किया जाता है. इन रामायणों और परम्पराओं को मानने वाले लोग न केवल भारत, बल्कि इसके बाहर भी फैले हुए हैं. इन लोगों की सम्मिलित संख्या संघी गिरोह के अनुयायियों से भी अधिक होगी.

तुलसीदास भी राम के कई अवतारों और रामायण के कई पाठों पर बल देते हैं -- "नाना भांति राम अवतारा, रामायन कोटि अपारा." लेकिन वे भी न तो अपनी कथा को श्रेष्ठ बताते हैं और न ही दूसरी कथाओं का मखौल उड़ाते हैं, क्योंकि घट-घट में राम रमे. असली बात यह है कि आप राम को और रामकथा को किस रूप में लेते हैं और अपना सांस्कृतिक-आध्यात्मिक परिष्कार करते हैं. यह जरूरी नहीं कि राम सबके आराध्य देव हों -- असली जोर रामकथा पर है, लेकिन संघी गिरोह का गोस्वामी तुलसीदास की इस बात से भी कोई लेना-देना नहीं.

संघी गिरोह के दबाव में तत्कालीन कांग्रेस सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन ने रामानुजन के लेख को पाठ्यक्रम से तो निकाल दिया था, लेकिन राम की उत्तर भारतीय परिकल्पना से भिन्न बहुलतावादी, बहुरंगी परम्पराओं को मानने वालों को क्या देश निकाला और इस उपमहाद्वीप से ही निर्वासित कर सकेगी??

"अ" से "आ" तक.....Everybody loves a good drought

"अ" से "आ" तक.....Everyone loves a good drought


वर्णमाला में 'अ' से 'आ' तक की जितनी दूरी होती है, 'अकाल' से 'आत्महत्या' तक उतनी दूरी भी नहीं होती. कारण बहुत ही स्पष्ट है कि एक औसत भारतीय किसान बोता तो 'क़र्ज़' है, लेकिन 'अकाल' पड़ने पर उसे 'आत्महत्या' की  फसल काटने को मजबूर होना पड़ता है. छत्तीसगढ़ के किसानों पर यह बात और ज्यादा तल्खी से लागू होती है, चाहे सरकार के आदेश-निर्देश पर राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) किसान आत्महत्याओं के आंकड़ों को कितना भी छुपाने की कोशिश क्यों न करें.

वास्तव में ये आत्महत्याएं तो उन सरकारी नीतियों की ही 'उपज' है, जिसके चलते अकाल की भयावहता और ज्यादा गहरी हो जाती है. छत्तीसगढ़ में पिछले दो महीनों में हुई भुखमरी और आत्महत्याओं की घटनाएं इसी सच्चाई को बयां भी करती है. क्या यह कोई कम शर्म की बात है कि सरकारी खजाने में मनरेगाके 3272 करोड़ रूपये पड़े रहे और इस वित्तीय वर्ष के पहले तीन महीनों अप्रैल-जून में केवल 1.86 लाख मानव दिवस रोजगार ही पैदा किये जाएं, काम के अभाव में लोग गांवों से पलायन करें तथा भूख से मर जाएं. इस पर भी क्या हमको शर्म नहीं आनी चाहिए कि शून्य प्रतिशत ब्याज दरों पर फसल ऋण वितरण का हम ढिंढोरा तो पीटते हैं , लेकिन आर्थिक तंगी और क़र्ज़ से बेहाल किसान फांसी के फंदे पर झूलकर या ट्रेन के सामने कूदकर अपनी आत्माहूति दें. क्या इस पर भी हमें शर्म नहीं आनी चाहिए कि 'ये तेरा क्षेत्र - ये मेरा क्षेत्र' की तर्ज़ पर पीड़ित परिवारों को राहत पहुँचाने के मामले में भी हम भेदभाव करें.

यदि ऐसा ही है, तो ऐसा गंभीर कृषि संकट प्रकृति से ज्यादा मानवनिर्मित ही माना जायेगा-- लेकिन ये वे 'मानव' है, जो 'महामानव' बनकर सत्ता के शीर्ष पर बैठे हैं. यह सत्ता ही तय करती है कि हमारे बजट का कितना हिस्सा कृषि तक पहुंचे और आंकड़े दिखाते हैं कि पिछले 25 सालों में हमारे देश के 70% किसानों के लिए कुल बजट का केवल 0.1% (जी हां, शून्य दशमलव एक प्रतिशत) ही दिया गया. तो सिंचाई की योजनाएं तो बनी, लेकिन नहरों-बांधों को कागजों पर ही खुदना था. मनरेगा में नए तालाब निर्माण व् पुरानों के गहरीकरण कि योजना तो बनी, लेकिन फर्जी मस्टर रोलों के लिए ही. किसानों को क़र्ज़ तो मिला, लेकिन महाजनों द्वारा उसकी केवल फसल लूटने के लिए ही. तो इस लुटे-पिटे किसान के पास, जिसके पास ईज्जत से जीने का कोई सहारा न हो, 'आत्महत्या' के सिवा कोई चारा बचता है? उसकी इस अंतिम कोशिश को भी सत्ताके मदांध, प्रेम-प्रसंगों या नपुंसकता से जोड़ दें, तो अलग बात है. 'नैतिकता के ठेकेदारों' को किसानों को देने के लिए इससे ज्यादा और कुछ हो भी नहीं सकता. उनकी 'नैतिकता' का तकाजा यही है कि किसानों के उपजाए अन्न के एक-एक दाने पर पहरा बैठा दे और उसे अनाज मगरमच्छों के हवाले कर दें !!

उन खेत मजदूरों को भी गणना में ले लिया जाएँ, जिनके पास जमीन का एक टुकड़ा नहीं हैं और पेट पालने के लिए ऊंचे किराए पर ली गई जमीन ही जिनका आसरा है या वे आदिवासी, जो वन भूमि पर निर्भर है, इस प्रदेश में खेती करने वाले परिवारों की  संख्या 40 लाख से ज्यादा बैठेगी. पिछले 15 सालों से इस प्रदेश में 15000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की हैं-- और इनमें वे दुर्भाग्यशाली आत्महंतक शामिल नहीं हैं, जिनके पास किसान होने का कोई सरकारी सर्टिफिकेट नहीं था. एनसीआरबी के आंकड़ों के चीख-चीखकर यह कहने के बावजूद सरकार इसे मानने के लिए तैयार नहीं थी. लेकिन एनसीआरबी के ये आंकड़ें अचानक 'शून्य' पर पहुंच जाते हैं, जिसे यह सरकार बड़े पैमाने पर प्रचारित करती है. लेकिन एनसीआरबी के पास इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं हैं कि आत्महत्याओं के संबंध में 'अन्य' (स्वरोजगार) श्रेणी के आंकड़ों में जबरदस्त वृद्धि कैसे हो गई? आप आंकड़ों को तो छुपा सकते हैं, लेकिन लाशों को कहां छुपायेंगे?

लेकिन आंकड़े भी चीख-चीखकर कह रहे हैं कि जीडीपी में वृद्धि और विकास के दावों के बावजूद किसान के हाथों केवल क़र्ज़ ही आया है. इन 40 लाख से ज्यादा किसान परिवारों में से बैंकों के कर्जों तक पहुंच 10  लाख किसानों की भी नहीं हैं. बचे हुए 30 लाख किसान भी खेती करते हैं, वे भी क़र्ज़ लेते हैं. लेकिन किससे? महाजनों से. किस दर पर? 5% प्रति माह -- यानि 60% सालाना की दर पर. है कोई ऐसा व्यवसाय, जो भूखों-नंगों को निचोड़कर इतना मुनाफा दें? लेकिन इस महाजनी कर्जे के बोझ से किसानों को मुक्त करने के बारे में हमारे कर्णधार चुप हैं. सभी जानते हैं कि इन कर्णधारों के इन सामंती महाजनों से क्या रिश्ते है !! तो यह चुप्पी भी स्वाभाविक हैं.

तो हमारे छत्तीसगढ़ के 28 लाख किसान परिवार महाजनी कर्जे में फंसे हैं. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 70 वें चक्र के आंकड़े कह रहे हैं कि उनकी औसत कर्जदारी 10000 रुपयों की हैं. इस कर्जदारी पर वे सालाना 6000 रूपये का ब्याज ही पटा रहे हैं -- यानि एक क़र्ज़ छूटता नहीं कि दूसरा सर पर. 'क़र्ज़ के मकडजाल' में फंसे इन किसान परिवारों की प्रति माह औसत आमदनी केवल 3423 रूपये है. एनएसएसओ का सर्वे भी यही बताता है. हाल का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण बता रहा है कि प्रदेश के 75% से ज्यादा किसान परिवारों की मासिक आय 5000 रूपये से कम है, जबकि देश में किसान परिवारों की औसत आय का 40% हिस्सा तो केवल क़र्ज़ चुकाने में चला जाता है. फिर किसानी घाटे का सौदा नहीं, तो और क्या होगी?

यह हमारे कर्णधारों की असफलता ही है कि वे हमारे अन्नदाताओं को पेट में पत्थर बांधकर सोने को मजबूर कर रहे हैं. वे सो भी रहे हैं. लेकिन यदि एक साल फसल बर्बाद हो जाए, तो गले में फंदा डालने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता.

क़र्ज़ के इस दुष्चक्र पर प्रसिद्द पत्रकार पी. साईनाथ ने एक पुस्तक लिखी है-- .Everybody loves a good drought.  अकाल की आड़ में चांदी काटने वालों को एक अच्छे अकाल का इंतजार है, इसके लिए भले ही किसानों को आत्महत्या क्यों न करनी पड़ें!! एक अच्छा अकाल कुछ लोगों के सुनहरे भविष्य के लिए बहुत ज़रूरी है -- हमारे कर्णधारों के भविष्य के लिए भी!!

Thursday 3 September 2015

एक अदने मन की ' बात '


कल तो मोदीजी ने खुश कर दिया। इसे कहते हैं ‘ सबका साथसबका विकास ‘। देश के विकास की बात है जी, इसमें किसानों का साथ चाहिए और कारपोरेटों का भी। देश के विकास में किसानों का विकास छुपा है, कार्पोरेटों का विकास खुला है। लेकिन विपक्ष ने दोनों के विकास का रास्ता अलग कर दिया था। ‘भूमि अधिग्रहण‘ के बारे में इतना भ्रम फैला दिया था कि किसान भी नाराज़ था और कार्पोरेट भी। किसान जमीन देने के लिए तैयार नहीं था और कार्पोरेट जमीन छोड़ने के लिए। किसान कह रहा था, जमीन के बिना खेती कैसे करूं? कार्पोरेट पूछ रहा था, इतनी कम जमीन में कारखाना कैसे लगाऊं? दोनों सही थे और समस्या विकट। विपक्ष 56 इंच के सीने को चुनौती दे रहा था, बता रहा था कि यह तो 26 इंच का भी नहीं है। 56 का आंकड़ा यदि 26 का बना दिया जाएं, तो भ्रम तो फैलता ही है और 16 इंच के टुच्चे भी ताल ठोंकने लगते हैं। 
लेकिन मोदीजी भी कम खेले-खाए नहीं हैं। जिंदगी-भर संघी कसरत की है, आज भी कर रहे हैं। देश बने चाहे बिगड़े, लेकिन इस कसरत से शरीर तो जरूर बना है। एक झटके में बता दिया कि सवा साल पहले तो वे 56 इंची रहे होंगे, लेकिन आज तो 65 इंची है। वर्ना किस्में इतना मजाल कि तराजू के एक पलड़े में 75 करोड़ किसानों को रख दें और दूसरे पलड़े में कुछ  कार्पोरेट घरानों को — और फिर भी तराजू का काँटा सीधा खड़ा रहे और पलड़ा किसी ओर न झुके। किसान खुश कि अब वे कार्पोरेटों के बराबर है और कार्पोरेट भी खुश कि 75 करोड़ भूखे-नंगे मिलकर भी उनका बाल न बांका कर सकें। 
जिसके खून में व्यापार होता है जी, उसी को सबको खुश रखने की कला आती है। मोदीजी के खून में व्यापार है, खालिस व्यापार। जिसको भ्रम हो, उसका भ्रम भी दूर हो जाना चाहिए अब।  है कोई व्यापारी, जो एक साथ अमेरिका को भी साध ले और अरब को भी। ईसाई खुश और मुस्लिम भी खुश। इन दोनों की ख़ुशी देखकर संघी भी खुश। इतने सारे देशों से खुशियों का सैलाब मोदीजी ही ला सकते थे। जब खुशियों का सैलाब इस देश में बहेगा, तो ‘ अच्छे दिन, अच्छे दिन ‘  चिढाने वाला पूरा विपक्ष बहकर कहां किनारे लग जाएगा, पता नहीं चलेगा। 2002 के खून-खून के खेल को खेलते-खेलते 2015 में व्यापार-व्यापार के खेल में बदलना किसी 65 इंची सीने का ही कारनामा हो सकता है। यह तो मोदीजी के बस की ही बात है कि इस व्यापार-व्यापार के खेल में हो रहा खून किसी को न दिखे। वरना नासपीटे कम्युनिस्ट तो गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहे हैं कि तीन लाख किसानों ने पिछले बीस सालों में आत्महत्या कर ली।भाई साहब, खेल तो ऐसा ही होना चाहिए कि खून भी हो और खून दिखे भी नहीं। जब खून नहीं दिखेगा तो देखने के लिए केवल ‘ विकास ‘ बचा रह जायेगा। सो विकास दिखेगा, शुद्ध विकास, लहलहाता हरा-हरा — छप्पर फाड़ जीडीपी के साथ बढ़ता हुआ। 
मीन-मेख निकलने वाले तो जीडीपी में भी मीन-मेख निकाल लेते हैं। ऐसे लोग परमानेंट विघ्नसंतोषी होते हैं। मीन-मेख न निकाले, तो रात का खाना न पचे। कुछ नहीं मिला तो यही कहने लगते हैं, जीडीपी बढ़ी तो बढ़ी, लेकिन इससे गरीबी तो दूर नहीं होती। ये लो, हमने कब कहा कि विकास का गरीबी से कोई संबंध है? यदि गरीबी ही दूर हो जाएगी, तो विकास किसका करेंगे?? यदि गरीब ही न रहेंगे, तो विकास के पप्पा-मम्मा को कौन पूछेगा??? 
तो प्रिय देशवासियों, मोदीजी 2013 का भूमि अधिग्रहण क़ानून बदल रहे थे, तो विकास के लिए। अध्यादेश जारी कर रहे थे, तो विकास के लिए। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी नहीं कर रहे हैं, तो भी विकास के लिए। संसदीय समिति पर भरोसा जता रहे हैं, तो विकास के लिए। बिहार चुनाव तक खामोश बैठे हैं, तो विकास के लिए। मोदीजी जी रहे हैं, तो विकास के लिए। मरेंगे, तो भी विकास के लिए। दाभोलकरपानसारेकलबुर्जी जैसे न जीयेंगेन मरेंगे — जिन्होंने विकास की जगह केवल भ्रम ही भ्रम फैलाया। प्रगतिशीलों के फैलाए भ्रम के खिलाफ लड़ना ही ‘ विकास की चुनौती ‘ है।
तो जिस तरह मोदीजी ने बचपन में मगरमच्छ से कुश्ती लड़ी थीउसी तरह आज वे बुढापे में विकासविरोधियों से लड़ रहे हैं — पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर भी। उन्होंने अडवानीजी के भ्रम को तोड़ा है, तो कम्युनिस्टों के गुमान को भी तोड़ेंगे। जिसे तोड़ना है, तोड़ेंगे ;  जिसे फोड़ना है, फोड़ेंगे ; तोड़-फोड़कर विकास की राह आसान करेंगे।
मोदीजी ने अपने ‘मन की बात‘ कह दी कि फैला लो कितना भी भ्रम, लेकिन न वे भ्रमित होंगे, न किसान और न कार्पोरेट। विकास के लिए मोदीजी को सबका साथ चाहिए। यदि किसान को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश नहीं चाहिए, तो मत लो,  लेकिन साथ दो, बिहार चुनाव तक तो जरूर दो। यदि कारपोरेटों को जल, जंगल, जमीन चाहिए, तो ये लो, जमीन हड़पने के 13 कानून अधिसूचना और नियमावली के रूप में लागू कर दिए। जमीन लो और साथ दो, बिहार चुनाव के लिए तो चंदा दो। आगे से न सही, पीछे से लो, लेकिन विकास करो। इस देश को मनमोहन सिंह ने अमेरिका का पिछवाड़ा बनाया है, तो मैं कारपोरेटों का पिछवाड़ा हूं। देश के पिछवाड़े और कारपोरेटों के पिछवाड़े में गणितीय संबंध स्थापित करना ही विकास को स्थापित करना है। यही नीतियों का गठबंधन है — जमीन दो, विकास लो। विकास के लिए बलिदान लो — लेकिन कारपोरेटों का नहीं, किसानों का। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश न सही, अधिसूचना के लिए नियमावली ही सही।
किसान भ्रम में न रहें कि उनकी जमीन मोदी के कार्पोरेट राज में सुरक्षित है। बिहार चुनाव के बाद नए सिरे से जोर आजमाईश की जायेगी।