Saturday 29 August 2015

जय श्रीराम-- मनरेगा का होगा काम तमाम


            
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Wednesday 26 August 2015

एफडीआई: संघर्ष अभी बाकी है



एफडीआई

खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई पर संसद के अंदर बहस और मतदान के पैटर्न से यह साफ हो गया है कि तथाकथित क्षेत्रीय पार्टियों का आम जनता के व्यापक हितों- जिनको अक्सर राष्ट्रीय हितों के रुप में परिभाषित किया जाता है; से कोई सरोकार नहीं रह गया है. इन दलों का पूरा रवैया अपनी पार्टियों के नेताओं के हितों की रक्षा करना और इस हेतु केन्द्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टियों से सौदेबाजी तक सीमित रह गया है.

एफडीआई पर आम जनता के बीच काफी समय से बहस जारी है. संसद में इस बहस पर विराम लग चुका है. थोथे सरकारी प्रचार को छोड़ दिया जाये, तो यह स्पष्ट है कि एफडीआई आम जनता के हित में नहीं है, क्योंकि इसका देश की अर्थव्यवस्था में कोई सकारात्मक योगदान नहीं होने वाला है, सिवाय सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में वृद्धि के. लेकिन ऐसा आर्थिक पैमाना किसी काम का नहीं, जिसका जनता के जीवन स्तर पर कोई सकारात्मक प्रभाव ना दिखे. सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जीडीपी में वृद्धि के साथ आर्थिक संकट से जूझ रही आम जनता को गरीबी, भुखमरी, महंगाई, बेरोजगारी आदि से राहत क्यों नहीं मिल रही है? या यह कैसा आर्थिक विकास है, जो जीडीपी में वृद्धि तो करे, लेकिन साथ ही आम जनता के विशाल हिस्सों को आर्थिक संकट के दलदल में और ज्यादा गहरे धकेल दे और उसके पास 20 रुपये दैनिक क्रयशक्ति से कम पर जिंदा रहने या फिर आत्महत्या करने का ही विकल्प रह जाये?

1990 के दशक से जिन आर्थिक सुधारों को चरणबद्ध रूप से लागू किया जा रहा है, उसके दुष्परिणाम अब सबके सामने हैं. उस समय भी यही दलील दी गई थी कि आम जनता को उसकी तकलीफों से उबारने के लिए और आर्थिक संसाधनों को जुटाने के लिए इन सुधारों को लागू किया जा रहा है.

पिछले बीस सालों में आम जनता की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि वह और ज्यादा बदहाल हुई है. इस बदहाली से उबारने के नाम पर और तगड़े आर्थिक सुधारों का डोज दिया जा रहा है. यह एक चक्रीय दुष्चक्र है- जितने ज्यादा आर्थिक सुधार होंगे, आम जनता उतनी ही ज्यादा बदहाल होगी; लेकिन चंद लोग इससे भरपूर लाभान्वित होंगे, उनके मुनाफे बढ़ेंगे.

स्पष्ट है कि आर्थिक सुधारों की नीति वास्तव में आर्थिक असमानता को बढ़ाने की ही नीति है. वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों की वैश्विक हकीकत यही है, जिसके खिलाफ न केवल तीसरी दुनिया के देशों में, बल्कि विकसित देशों की जनता भी प्रतिरोध के रास्ते पर आ रही है. अमरीका में ‘वालस्ट्रीट पर कब्जा करो’ आंदोलन की धमक अभी खत्म नहीं हुई. वालमार्ट का असली चेहरा अमरीका से ही छनकर हम तक पहुंच रहा है और राष्ट्रपति ओबामा को भी स्माल बिजनेस शनिवार को ‘खुदरा खरीदी’ की पहलकदमी करनी पड़ी है.

अर्थशास्त्र की यह साधारण-सी बात है कि निजी एकाधिकार प्रतियोगिता को खत्म कर देता है और यह अर्थव्यवस्था के हित में नहीं है. खुदरा व्यापारियों को बर्बाद करने के बाद जब प्रतियोगिता खत्म हो चुकी होगी, तब एकाधिकारियों का असली चेहरा सामने आता है. तब आम जनता के पास किसी भी चीज की स्वतंत्रता नहीं रह जाती- न अच्छा खरीदने की, न सही कीमतों की और न उत्पादक वर्ग को सही मुनाफे की. उसके पास एक ही विकल्प बच जाएगा- जो जैसा है और जिस कीमत पर है, उसका उपभेग करो. जो इस कीमत को चुकाने में अक्षम है, वह उपभोग से वंचित रहे. ऐसा अर्थशास्त्र ‘खराब अर्थशास्त्र’ का ही उदाहरण बन सकता है.

वालमार्ट व कैरीफोर के विशाल महल केवल दसलखिया शहरों तक ही सीमित नहीं रहने वाले हैं और इसलिए केवल इन शहरों के ही खुदरा व्यापारी प्रभावित नहीं होने वाले हैं. एकाधिकारवादी विदेशी पूंजी जब पैर फैलाती है, तो वह देश के इस छोर से उस छोर तक फैलाती है, क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी है जो न किसी देश की सीमाओं को मानती है और न किसी देश विशेष के कानूनों से बंधी रहती है. मुनाफा उसके लिए सर्वोपरि है और इस मुनाफे की खोज में वह आज बनाई गई सीमाओं का भी निश्चय ही भविष्य में अतिक्रमण करेगी.

भारत में एकल ब्राण्ड की आड़ में भारती-वालमार्ट के गठबंधन ने जो खेल खेला है, वह तो सबके सामने है ही. फिर एफडीआई के लिए तय नियम-कायदे उसके मुनाफे के हित में कल बदले नहीं जायेंगे, इसकी गारंटी कौन देगा? आज तो इस पूंजी की जरूरत यह है कि उसे इस देश में पैर टिकाने के लिए जगह चाहिए और उसके अधिकतम मुनाफे सुनिश्चित होने चाहिए. आज उसे उन गांवों में कतई दिलचस्पी नहीं है, जहां उसे शहरों की तुलना में कम मुनाफे दिखते हैं. आज उसकी नजर 20-25 करोड़ मध्यवर्गियों के बाजार पर ही है. और यह बाजार अमरीका के बाजार से भी बड़ा है. लेकिन निश्चित ही वह भविष्य में पैर फैलाएगा और शहरी बाजारों को ध्वस्त करने के बाद ग्रामीण बाजार की ओर कदम बढ़ाएगा. आखिर गरीबों का यह बाजार भी कम से कम 50 खरब रुपयों का बाजार है. इसलिए समग्र रूप से चार करोड़ खुदरा व्यापारियों का भविष्य संकट में है.

हम देख रहे हैं कि खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता के नाम पर हर रोज ऐसे नियम-कायदे बनाये जा रहे हैं, जिसे खुदरा व्यापारी पूरी करने की हालत में ही नहीं हैं. ठेलों में बिकने वाले गर्म समोसे सीलबंद नहीं बिक सकते, ऐसे समोसे तो केवल वालमार्ट की दुकानों पर ही मिल सकते हैं. इन मानकों की कसौटी पर कोई भी खुदरा व्यापारी खरा नहीं उतर सकता.
लेकिन दिक्कत यही है कि विदेशी पूंजी के इस खेल में वालमार्ट के साथ मिलकर इस देश का पूंजीपति भी (खुदरा व्यापारी नहीं-और खुदरा व्यापारी पूंजीपति नहीं होते.) अपने मुनाफों को खोज रहा है. आर्थिक मंदी के दौर में उसे अपने मुनाफों को सुरक्षित रखने का यही आसान उपाय दिख रहा है. इसी संदर्भ में हमारे देश की राजनैतिक पार्टियों की भूमिका को जांचा-परखा जाना चाहिए.

जब कांग्रेस विपक्ष में थी, तो वह एफडीआई के खिलाफ थी और भाजपा इसके पक्ष में. भाजपा ने अपने घोषणापत्र में खुदरा व्यापार में एफडीआई लाने का वादा किया था. आज कांग्रेस सत्तारूढ़ है और एफडीआई के पक्ष में, जबकि भाजपा विपक्ष में है और एफडीआई के खिलाफ.

दरअसल दोनों पार्टियों में से कोई भी एफडीआई के खिलाफ नहीं है, क्योंकि दोनों पार्टियों की नीतियां विश्वीकरण और उदारीकरण आधारित आर्थिक सुधारों के पक्ष में हैं. जो भी पार्टी राज्य या केन्द्र में सत्तासीन होती है, इन्हीं नीतियों को लागू कर रही है. भाजपा द्वारा एफडीआई का विरोध तो केवल ‘दिखावा’ है- आम जनता में इन नीतियों के खिलाफ पनप रहे असंतोष को अपने पक्ष में वोटों में तब्दील करने के लिए.

वामपंथी पार्टियां ही हैं, जो एफडीआई के सतत् विरोध में रहीं हैं- लेकिन एफडीआई के प्रति उनका अंधविरोध कभी नहीं रहा है. राज्यसभा में बहस के दौरान माकपा नेता सीताराम येचुरी ने स्पष्ट किया कि खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के खिलाफ वे क्यों हैं? उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी एफडीआई से तीन शर्तें पूरी करवाना चाहती है- 1. उत्पादक शक्ति का विकास हो, 2. रोजगार बढ़े और 3. नई आधुनिक तकनीक हमारे देष में आये.

खुदरा क्षेत्र में एफडीआई ये तीनों शर्तें पूरी नहीं करती. वास्तव में क्या हमारे देश में इस संसाधन और तकनीक नहीं हैं कि हम अच्छी सड़कों और गोदामों का निर्माण भी नहीं कर सकते और इसके लिए हमें विदेशी पूंजी की जरूरत है? यह पूंजी रोजगार बढ़ाने की बात तो दूर, रहे-सहे रोजगार को भी खत्म करने जा रही है.

क्षेत्रीय दलों का ढुलमुलपन अब पूरी तरह से उजागर हो गया है. सत्ता पर कांग्रेस की इजारेदारी को तोड़ते हुए इन क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ था. तब ऐसा माना गया था कि यह क्षेत्रीय दल अपने प्रदेश की जनता की आशा-आकांक्षाओं का, उनकी जरूरतों और हितों का प्रतिनिधित्व करेंगे. राजीव युग के अवसान के बाद गठबंधन की जो राजनीति उभरी और गठबंधन सरकारों का उदय हुआ, उसमें इन क्षेत्रीय दलों की महत्वपूर्ण भूमिका बनी और तब ऐसा लगने लगा था कि राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय हितों का ये पार्टियां प्रतिनिधित्व करेंगी. लेकिन कालान्तर में हमारा अनुभव यही रहा कि भ्रष्टाचार और वंशवाद की जिन बीमारियों से कांग्रेस ग्रस्त है, ये पार्टियां भी कमोबेश इन्हीं बीमारियों से ग्रस्त है. नतीजन इन पार्टियों के नेताओं की राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाने की महत्वकांक्षा में तो कोई कमी नहीं आई, लेकिन न तो प्रदेश की आम जनता के हितों का और न ही राष्ट्रीय हितों का उन्होंने ख्याल रखा.

यही कारण है कि इन दलों के नेताओं के व्यक्तिगत हितों का पोषण, राज्य की सत्ताओं पर कब्जा और इस हेतु केन्द्र की राजनीति को साधना ही इन दलों की नीति रह गई. ऐसा हमने लगातार देखा है- चंद्रबाबू नायडू द्वारा संयुक्त मोर्चा को तोड़कर भाजपा के सांप्रदायिक गठबंधन में शामिल होना, राष्ट्रपति पद के चुनाव में मुलायम सिंह द्वारा वामपंथ को गच्चा देकर एनडीए को समर्थन करना, परमाणु करार विवाद के समय भी मुलायम का संप्रग को साथ देना और अब मुलायम-माया -करूणानिधि की जोड़ी का एफडीआई के समर्थन में वोट देना.

भारत की राजनीति में वामपंथ की ताकत और उसकी संसदीय ताकत से नहीं, उसके जनाधार से नापी जाती है. आम मेहनतकशों की नजर में वामपंथ एक विश्वसनीय ताकत है, जो संसद के अंदर और संसद के बाहर उसके हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है. क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने वामपंथ की इसी विश्वसनीयता का उपयोग अपनी साख और राजनैतिक प्रतिष्ठा के लिए किया है. वरना इस बात की कैसे व्याख्या की जा सकती है कि सांप्रदायिक भाजपा को केन्द्र की सत्ता से दूर रखने के लिए जो संयुक्त मोर्चा बना था, उस मोर्चे के ही अध्यक्ष रातों-रात भाजपाई गठबंधन के साथ हो लिए? जो मुलायम एफडीआई के खिलाफ वामपंथ द्वारा आहूत आम हड़ताल में जोर-शोर से शामिल होते हैं, वही मुलायम संसद में एफडीआई के खिलाफ गर्जन-तर्जन तो करते हैं और मतदान के समय सरकार के पक्ष में पलटी मार देते हैं? जो बसपा लोकसभा में एफडीआई के खिलाफ बोलती है, वही बसपा राज्यसभा में मायावती के नेतृत्व में एफडीआई के पक्ष में मत देती है. आखिर इन पार्टियों और नेताओं के ऐसे रवैये की कैसे व्याख्या की जाये?

एफडीआई पर मतदान का सवाल सरकार के टिकने-गिरने से भी जुड़ा हुआ नहीं था और न ही भाजपा के पक्ष में दिखने से, जैसे की ये पार्टियां प्रचारित करना चाह रही हैं. यह मतदान तो सरकार के एक विशुद्ध कार्यकारी फैसले को पलटने से जुड़ा था, जो वास्तव में नीतियों और राष्ट्रीय हितों से जुड़ा मामला है. दरअसल ये पार्टियां एक ऐसे संतुलनकारी सर्कस में लगी हैं, जो हास्यास्पद भले ही लगता हो, लेकिन है खतरनाक. ये एक साथ आम जनता के वोटों और पूंजीपतियों के हितों को साधने में लगे हैं. इससे पूंजीवादी लोकतंत्र की सीमायें भी स्पष्ट होती जा रही हैं, जिसमें संसद आम जनता की आशा-आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने के बजाय केवल ‘बहुमत के जुगाड़’ के अखाड़े में तब्दील होकर रह गई है.

विधायी वोटों का बहुमत एफडीआई के पक्ष में हो तथा संसद की भावना और आम जनता का बहुमत एफडीआई के खिलाफ हो, तो ऐसी स्थिति कब तक झेली जा सकती है? एफडीआई पर सरकार की संसदीय जीत उसकी नैतिक पराजय का भी द्योतक है. सवाल यह भी है कि विदेशी वित्तीय पूंजी और पूंजीपतियों के हितों को साधने वाली पार्टियां आने वाले चुनावों में आम जनता को कितना साध पायेंगी? लेकिन यह स्पष्ट है कि एफडीआई के खिलाफ संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है, बल्कि शुरू हुआ है.

कविता-1 : दिखना चाहिए.


हम चाहते हैं
जो है अदिखा
दिखना चाहिए
प्रतिरोध स्वप्न का
धरती पर उतरना चाहिए

धरती पर खड़े हैं जो महल
वे गुंबद गिरना चाहिए
उनके टुकड़ों से
झोपडि़यों की जगह
छोटे-छोटे
साफ-सुथरे
सुंदर घर बनना चाहिए
भूख की यंत्रणा नहीं
हमारे बच्चों की आंखों में
सुख का अहसास पलना चाहिए
उनके सिरों पर न हों
ईंटों का बोझ
नाकों से न बहे रेमट
नषे में न जले उनका जीवन
इस दिखे को अदिखा दिखना चाहिए

कंधों में हो छोटा-सा बस्ता
बस्ते में टिफिन- ताजी दो रोटियों का
आंखों में ज्ञान की भूख
तने हुए सिर पर सुंदर सजीली नाक
कुरूपता के खिलाफ
हमारे बच्चे को
एक सुंदर प्रतिरोध दिखना चाहिए

हम चाहते हैं
प्रतिरोध स्वप्न का
धरती पर उतरना चाहिए
जो है अदिखा
दिखना चाहिए
हवा है अदिखी
हमारी आंखों में दिखनी चाहिए
अमावस का चांद और ग्रहण का सूरज
हमारे ज्ञान में दिखना चाहिए

दिखता है विस्थापन
पलायन है दिखता
भूख गरीबी दिखती है
सबको अदिखा दिखना चाहिए
नदी का पानी
हमारे अन्न-कणों में दिखना चाहिए
अदिखा धरती का गर्भ
हमारे घरों में दिखना चाहिए
खून हमारी रगों में बहता है जो अदिखा
हमारी मेहनत में दिखना चाहिए
प्रतिरोध स्वप्न का
धरती पर दिखना चाहिए
जो है दिखता
उसे अदिखा दिखना चाहिए

हम चाहते हैं
प्रतिरोध का स्वप्न
यथार्थ में दिखना चाहिए
दिनांकः 26/11/2013

Saturday 15 August 2015

मन की बात


क्या तीर मारा है मियां मोदी ने !! एक साल पहले तक सुरक्षित लाल किला आज असुरक्षित हो गया. पिछले साल खुले में दहाड़े थे, आज बंद कठघरे में मिमिया रहे थे. बात-बात पर पाकिस्तान को ललकारने वाले के मुंह पर आज ताला लगा था, जबकि भाजपा राज में कश्मीर में रोज़ पाकिस्तानी झंडे फहराए जा रहे हैं. यदि किसी और का राज़ होता, तो बेचारों को मोदी कब का उखाड़ चुके होते. लेकिन आज इनकी देशभक्ति को जंग लग गया है.
लाल किला को सुरक्षित करने के लिए कल ही लोकतंत्र को उखाड़ फेंका गया था. जंतर-मंतर पर कहर बरपाया मोदी की पुलिस ने. सैनिकों को भी नहीं छोड़ा. जिसके राज में सैनिकों की सुरक्षा और सम्मान नहीं, वो देश के सरहदों की सुरक्षा कैसे करेगी? 'वन रैंक, वन पेंशन' पर सैद्धांतिक सहमति तो जाहिर कर दी, लेकिन इसमें नया क्या है? यह सहमति तो चुनावों में वोट बटोरने के लिए पहले भी थी, लेकिन 'छप्पन इंच के सीने' का दम इसे लागू करने में आज तक नहीं दिखता.
पूरे बात में बडबोलेपन के सिवा क्या था? 'मैं' ही 'मैं' था, 'हम' कहीं नहीं. यदि 'हम' नहीं, तो 125 करोड़ की 'इंडिया टीम' भी जुमला ही साबित होने जा रही है. फेंकू महाराज, जुमलों से देश नहीं चलता. अपने-आपको पिछड़े वर्ग का प्रधानमंत्री घोषित करना, चुनाव जीतने के लिए दंगों की राजनीति करना...और फिर जातिवाद-साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलना !! जनता आज इतनी भी अज्ञानी नहीं है कि इस राजनीति को न समझ सकें. इतनी ही ईमानदारी होती, तो महाराज 'मुस्लिमों' के साथ 'हिन्दू आतंकवादी' भी फांसी पर लटक रहे होते, उन पर से केस वापस नहीं होते और जेल से बाहर नहीं आते.
व्यापमं का घोटाला हो गया, डी-मेट का घोटाला सामने आ गया मध्य पदेश में, छत्तीसगढ़ में नान-चावल-नमक का घोटाला आ गया, घोटालेबाजों के प्रमोशन खुलेआम हो रहे हैं, तीन-तीन मुख्यमंत्रियों को बचाने के चक्कर में संसद तक की भी बलि ले ली, लेकिन फिर भी भ्रष्टाचार न होने का दावा तो कोई 'छप्पन इंची' हिटलर ही कर सकता है.
हम तो सुनने के लिए बेकरार थे कि भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर क्या कहने जा रहे हो, गरीब आदिवासियों के लिए जंगल की सुरक्षा होगी कि नहीं, भाजपाई नेताओं से महिलाओं की इज्जत बचाओगे कि नहीं, बेकरार थे हम जानने के लिए कि 'नौकरी' के जुमले के साथ न्यूनतम मजदूरी की गारंटी है कि नहीं, पाखाने के के साथ ही खाने की व्यवस्था कर रहे हो कि नहीं....लेकिन सब बेकार, हमारे कान तरसते ही रह गए और तुम 'जय हिन्द' कहकर चलते बने. हां, लेकिन ये अच्छा लगा कि तुमने कुछ दलित-आदिवासियों को उद्योगपति बनाने के लिए बैंकों के पास जरूर निवेदन किया. ' दलिद्दर पूंजीवाद' का ज़माना है, टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी के लिए अमेरिका के पास जाकर गिड़गिड़ा सकते हो, तो इन बेचारों के लिए बैंकों के पास तो निवेदन कर ही सकते हो. भले ही ये बैंक किसानों को खेती के लिए कर्जा न दें, लेकिन उद्योगों को तो कर्जा दे ही सकते हैं. आखिर ऑस्ट्रेलिया में कोयला खोदने के लिए भी तो तुमने अडानी को बैंक से कर्जा दिलाया है. फिर ये तो आदिवासी-दलित उत्थान का मामला है. इस देश में कुछ दलित-आदिवासी पूंजीपति पैदा हो, तो कारपोरेटों के ही हाथ मजबूत होंगे...और कारपोरेटों की मजबूती में ही संघी गिरोह की भी मजबूती है.
वैसे जनता को 2022 तक का सपना दिखाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. लेकिन क्या भरोसा...!! 'अच्छे दिन-अच्छे दिन' चिल्लाते हुए कहीं हमें 2019 में ही 'बुरे दिन' न दिखा दें. इसलिए 2022 तक का सपना देखने के लिए जरूरी है कि हम 2019 से पहले ही अपने लिए मन-मुताबिक़ अपनी जनता चुन लें. मेरे 'मन की बात' तो यही है जी. अपने 'मन की बात' बता दो धीरे से मेरे कान में...

Sunday 9 August 2015

निजी क्षेत्र की पैरोकारी, उदारीकरण से यारी


छत्तीसगढ़ की कृfarmer suicideषि और किसान समुदाय दोनों गंभीर संकट से गुजर रहे हैं। इस संकट की अभिव्यक्ति प्रदेश में घटते कृषि रकबे, बढ़ती लागत, ग्रामीणों के गिरते जीवन स्तर, कृषि निवेश में कमी, कृषि ऋण व फसल बीमा तक पहुंच न होने, लाभकारी मूल्य के अभाव तथा सर्वाधिक ‘किसान आत्महत्या दर’ में होती है।
पिछले वर्ष अक्टूबर में छत्तीसगढ़ की भाजपाई सरकार ने कृषि नीति जारी किया था। इस पर व्यापक रुप से किसान समुदाय और राज्य में कार्यरत किसान संगठनों के बीच विचार-विमर्श होना चाहिये था, लेकिन यह मुख्यतः उनकी नजरों से ओझल ही रखा गया। इसका सीधा-सीधा कारण यही है कि भाजपा सरकार नीति-निर्माण में इन तबकों की भूमिका की सुनियोजित तरीके से उपेक्षा करती है और कुछ नौकरशाहों के हाथ में ही ऐसे कामों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री करना चाहती है। इसका नतीजा वही है, जो अक्सर ऐसे नीति-दस्तावेजों में होता है- अंतर्विरोधों की भरमार, गलत-सलत आंकड़ों की बौछार (-लेकिन इन आंकड़ों को कोई विश्लेषण नहीं कि किसी सार्थक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके-) और किसान समुदाय के नाम पर ऐसी पूर्वाग्रही नीतियों का ही प्रतिपादन, जो उनकी बर्बादी के लिए जिम्मेदार है।
भूमि सुधार ‘गायब’
प्रदेश की जीडीपी (सकल घरेलु उत्पाद) में कृषि का हिस्सा लगातार गिरताजा रहा है। वर्ष 2004-05 में यह 15.84 प्रतिशत था, जो 2010-11 में घटकर मात्र 12.30 प्रतिशत (स्थिर भावों पर) रह गया है। इसी प्रकार कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर वर्ष 2005-06 के 25.3 प्रतिशत से गिरकर 2010-11 में 9.94 प्रतिशत रह गयी है। यह वृद्धि दर प्रदेश की जनसंख्या की वृद्धि दर की आधी है। लेकिन कृषि पर निर्भर आबादी में कोई कमी नहीं आयी है। इस आबादी के 76 प्रतिशत के पास कुल कृषि रक्बा का मात्र 34 प्रतिशत ही है, जिसे सीमांत व लघु किसानों के रुप में चिन्हित किया जाता है। प्रदेश में किसानों की कुल संख्या का 32 प्रतिशत इसी श्रेणी के दलित-आदिवासियों का है, जिनके पास प्रदेश के कुल कृषि रकबे का मात्र 15 प्रतिशत है। इस प्रकार अपनी सामाजिक श्रेणी के भीतर ही लगभग तीन चौथाई दलित-आदिवासी सीमांत व लघु किसान हैं। प्रदेश के 24 प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि भूमि का 66 प्रतिशत रकबा है।
इसी दस्तावेज में 2-4 हेक्टेयर भू-स्वामित्व वाले मध्यमवर्गीय किसानों के कोई आंकड़े नहीं दिये गये हैं, लेकिन ये स्पष्ट है कि प्रदेश में भूमि का वितरण बहुत ही असमान है और गांव में खासकर कमजोर आर्थिक वर्गों तथा निचले पायदान पर स्थित सामाजिक समूहों के पास भूमि का स्वामित्व बहुत ही कम है। ये स्थिति प्रदेश में भूमि सुधार की तत्काल जरूरत को रेखांकित करती है, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार की कृषि नीति में भूमि सुधार का कोई स्थान ही नहीं है। उसे मसौदे में इस शब्द के उपयोग तक से परहेज है।
इसी दस्तावेज में बताया गया है कि प्रदेश में 5.28 लाख हेक्टेयर भूमि पड़त है और इसके अलावा 8.56 लाख हेक्टेयर भूमि ऐसी है, जिसमें खेती नहीं होती। इस 13.84 लाख हेक्टेयर भूमि को कृषि योग्य बनाया जा सकता है। सरकार के पास इस का कोई आंकलन नहीं है कि सीलिंग के बाहर कितनी जमीन है और कितनी जमीनें भूदान जैसी योजनाओं के तहत उसके पास उपलब्ध है। और यह भी कि वनभूमि पर आदिवासियों और परंपरागत वन निवासियों का वास्तविक कब्जा कितना है। लेकिन यदि ये सब भूमि वितरण के लिये हासिल की जाये, तो राष्ट्रीय किसान आयोग की इस सिफारिश को आसानी से लागू किया जा सकता है कि प्रदेश के 24.63 लाख गरीब किसानों को 1-1 एकड़ तथा लगभग 9 लाख भूमिहीनों को 2-2 एकड़ जमीन दी जाये। लेकिन भाजपा सरकार के लिये एम.एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशें तो कोई महत्व ही नहीं रखतीं।
सदिच्छाओं का पुलिंदा
छत्तीसगढ़ की भाजपाई सरकार की कृषि नीति का मसौदा नीति के बजाय सदिच्छाओं का पुलिन्दा है, जिसमें ‘स्पष्ट नीति का होना आवश्यक है’, ‘दीर्घकालीन रणनीति तैयार की जायेगी’, ‘विशेष बल दिया जायेगा’, ‘बढ़ावा दिया जायेगा’, ‘अधिनियमों में आवश्यकतानुसार संशोधन किया जावेगा’, ‘कार्ययोजना तैयार की जायेगी’, ‘विचार किया जावेगा’ जैसे अस्पष्ट शब्दों की भरमार है। इन सदिच्छाओं को प्राप्त करने के लिये क्या ठोस नीति अपनायी जायेगी, उसके क्रियान्वयन के लिये संसाधन कहां से जुटाये जायेंगे या किस तरह बजटीय व्यवस्था की जायेगी- इस पर एक लंबी चुप्पी है। और यदि कहीं नीतिगत उल्लेख भी है, तो वहां केवल उदारीकरण की पैरोकारी  ही है, जिसके कारण कृषि व किसान आज पूरे देश में बेहाल हैं।
दस्तावेज में रेखांकित किया गया है–‘‘भूमंडलीकरण से कृषि व्यवसाय (-क्या वास्तव में कृषि ‘व्यवसाय’ है?-) को जोड़ने से कृषि की हालत और नाजुक एवं उग्र होगी। अतः तत्काल उपचारात्मक उपायों की आवश्यकता हैं।’’ (पैरा 7.3) और यह भी कि- ‘‘कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के समझौता के अनुसार आयातों पर मात्रात्मक प्रतिबंधों को हटाये जाने से विश्व बाजार में कृषि उत्पादों के मूल्यों में अस्थिरता बढ़ेगी, जिसका प्रतिकूल प्रभाव निर्यात पर पड़ेगा।’’ (पैरा 9.8.2) उल्लेखनीय है कि कृषि उत्पादों पर मात्रात्मक प्रतिबंध हटाये जाने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा भाजपानीत एनडीए सरकार के समय ही हुआ था। आज छग की भाजपा सरकार इसके दुष्प्रभावों को रेखांकित कर रही है। भाजपा तब सही थी या आज गलत है?
निजीकरण-उदारीकरण की पैरोकारी
लेकिन भारतीय कृषि और छत्तीसगढ़ के किसानों पर भूमंडलीकरण और विश्व व्यापार संगठन के हमलों से बचाने के लिये इस नीतिगत दस्तावेज में क्या उपाय बताये गये हैं? आईये, निम्न घोषणाओं पर ध्यान दें–
ऽ       भू स्वास्थ्य पर निरंतर निगरानी रखने हेतु पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप माॅडल पर मिट्टी परीक्षण प्रयोगशालायें स्थापित की जावेगी। (पैरा 9.2.1.2)
ऽ       (कृषि भूमि विकास) नीति के अंतर्गत भू राजस्व संहिता एवं मध्यप्रदेश कृषि जोत उच्चतम सीमा अधिनियम- 1960 की समीक्षा करने की अनुशंसा की जाती है। (पैरा 9.2.1.7)
ऽ       संकर बीज उत्पादन के निरीक्षण और मार्गदर्शन हेतु बेरोजगार कृषि स्नातकों को संविदा के रुप में निश्चित क्षेत्र हेतु रखा जा सकता है। (पैरा 9.4.1)
ऽ       विभिन्न फसलों के संकर किस्मों के बीज उत्पादन हेतु पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप माडल एवं निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जायेगा। (पैरा 9.4.1.4)
ऽ       कृषि सेवा केन्द्र एवं कृषि यंत्र बैंक की स्थापना पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप तर्ज पर या निजी क्षेत्र में की जायेगी। (पैरा 9.4.4)
ऽ       कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने हेतु कंपनी एक्ट- 2002 में संशोधन कर उत्पादक कंपनियों की स्थापना का रास्ता प्रशस्त किया है। इन कंपनियों की स्थापना के लिये कार्ययोजना तैयार कर निजी क्षेत्र के निवेशकों को आकर्षित किया जायेगा। ( पैरा 9.4.5.2)
ऽ       मंडी क्षेत्र को उदार बनाया जायेगा। (पैरा 9.8.2)
ऽ       राज्य में आधुनिक भंडारण व्यवस्था एवं शीत श्रृंखला द्वारा खेत से बाजार को जोड़ने हेतु रणनीति (-प्रत्यक्ष विदेशी निवेश?-) तैयार की जायेगी। (पैरा 9.8.5)
ऽ       संविदा कृषि को प्रोत्साहित करने हेतु आवश्यक कदम उठाये जायेंगे। (पैरा 9.8.6)
इस प्रकार भाजपा सरकार कृषि और किसानी के संकट का हल पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप , निजी क्षेत्र, कंपनियों की स्थापना, उदारीकरण, संविदा नियुक्त्यिों, संविदा कृषि, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश………..आदि-इत्यादि में खोज रही है। ये वही हल है, जिसे निजीकरण-उदारीकरण के पैरोकार पिछले दो दशकों से साम्राज्यवादी ताकतों के इशारे पर ‘रामबाण औषधि’ की तरह लागूू करते हैं और पूरे देश की बर्बादी का कारण बने हैं। वैश्वीकरण और विश्व व्यापार संगठन के खिलाफ गर्जन-तर्जन के बावजूद भाजपा सरकार उन्हीं नीतियों को लागू करने पैरोकारी कर रही है, जिसके चलते छत्तीसगढ़ में ‘किसान आत्महत्या दर’ देश में सर्वाधिक है।
छत्तीसगढ़ में किसानों का 76 प्रतिशत छोटे व सीमांत किसानों का है, जो औसतन 1.8 एकड़ जमीन पर खेती करते हैं। उन्हें जिन भारी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उसका संबंध मुख्यतः लागतों पर बढ़ते हुये खर्चों, अलाभकारी मूल्यों और संस्थागत ऋण, तक्नाॅलाॅजी व मंडियों तक उनकी पहुंच के अभाव से हैं। इसलिए उन्हें अधिक सरकारी सहायता और हस्तक्षेप की जरूरत है। लेकिन नीतिगत दस्तावेज इस दिशा में या तो चुप हैं या फिर निजीकरण-उदारीकरण की खुराक देने की कोशिश करता है।
व्यवसाय नहीं है कृषि
हमारे प्रदेश के लिये कृषि तीन-चैथाई आबादी का जीवनाधार है और इस तबके के लिये कृषि कभी भी ‘व्यवसाय’ नहीं रहा। लेकिन यह नीतिगत दस्तावेज कृषि को ‘व्यवसाय’ के रुप में प्रतिपादित करता है। वैश्वीकरण के युग में कोई भी व्यवसाय अधिकतम मुनाफे की दृष्टि से संचालित होता है और इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा में न केवल छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है, बल्कि दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था पर कब्जा करने की रणनीति भी अपनायी जाती है। इस प्रक्रिया में कार्पोरेटीकरण बढ़ता है और छोटे व्यवसायी बाजार से बाहर फेंक दिये जाते हैं। इसी कारण भाजपा सरकार कृषि के क्षेत्र में उपरोक्त जिन समाधानों को पेश कर रही है, वह भूमिहीनों तथा सीमांत व लघु किसानों की बर्बादी का रास्ता है।
यह वैश्वीकरण के हिमायतियों की खुशफहमी ही है कि संविदा कृषि या कृषि के क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और कंपनियों की स्थापना के जरिये वे कृषि उत्पादन का आधुनिकीकरण कर लेंगे–‘‘कृषि में निवेश को आकर्षित करने हेतु संविदा कृषि एक उत्तम विकल्प है।…….. संविदा खेती से कृषक को उसके उत्पाद का परस्पर पूर्व में निर्धारित विक्रय मूल्य प्राप्त होगा, वहीं प्रसंस्करण इकाई को आवश्यकतानुरूप निरंतर निर्धारित गुणों वाला कृषि उत्पाद प्राप्त होगा। संविदा कृषि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कृषि उत्पाद ब्रांड स्थापित करने में मददगार होगा।’’ (पैरा 9.8.6)- इतनी भोली सोच पर कौन नहीं मर मिटेगा! लेकिन अनुभव तो यही बताता है कि वैश्विक एकाधिकार उत्पादक और उपभोक्ता दोनों को बुरी तरह निचोड़ता है।
यही कारण है कि मंदी के दौर में बिक्री न बढ़ने के बावजूद विश्व के शीर्ष 250 खुदरा व्यापारियों के मुनाफे का मार्जिन लगातार बढ़ रहा है। यह तभी संभव है जब उत्पादकों को पूरा लागत मूल्य भी न दिया जाये और उपभोक्ताओं के लिये अंतिम उत्पाद की कीमतें लगातार बढ़ाई जायें।
अंतर्राष्ट्रीय अनुभव बताता है कि इन बहुराष्ट्रीय व्यापारियों की या कंपनियों की दिलचस्पी कृषि उत्पादन में भारी निवेश करके खतरा उठाने में तो कतई नहीं होती, उनकी दिलचस्पी तो कृषि उत्पादन में प्रत्यक्ष भागीदारी किये बिना सिर्फ लाभ कमाने तक सीमित होती है। अतः यदि इन बहुराष्ट्रीय व्यापारियों या कंपनियों को (जिसमें किसानों की भागीदारी की ‘थोथी’ बात
कही गयी है) प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से उत्पादन प्रक्रिया को नियंत्रित करने की इजाजत दी जाती है तो इससे छोटे उत्पादक और भी ज्यादा हाशिये पर पहुंच जायेंगे। इसके साथ ही, राजनैतिक संरक्षण में विदेशी पूंजी के बल पर खुदरा व्यापारियों की भूमाफियाओं के साथ गठजोड़ सामने आ रहा है, और जिस प्रकार गैर-कृषि कार्यों के लिये कृषि भूमि को अवैध ढंग से हड़पने की प्रक्रिया चल रही है, यह प्रक्रिया और तेज ही होगी और इसका सबसे बदतर शिकार छोटे किसान ही होंगे।
सच तो यह है कि सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारियों से हाथ झाड़ने के रास्ते के रुप में पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप तथा निजी क्षेत्र की बात की जाती है, जबकि पिछले दो दशकों का भारतीय अनुभव तो ऐसे प्रयोगों के खिलाफ ही जाता है। वास्तविकता यह है कि कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश और राजकीय हस्तक्षेप बढ़ाने तथा इसके जरिये किसानों को कच्चे माल (कृषि आदान) सस्ते में उपलब्ध कराने तथा उसकी फसलों का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित कराने की जरूरत है। लेकिन ऐसी जरूरतों के प्रति तो इस दस्तावेज में एक घुप्प चुप्पी ही साधी गयी है।
एफडीआई पर निर्भरता
देश में कृषि उपज मंडियों की स्थापना का प्राथमिक लक्ष्य किसानों को उनकी फसलों का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना था। उदारीकरण के इस दौर में यह लक्ष्य हाशिये पर चला गया है। प्रदेश में अधिकांश कृषि मंडियां बदहाल हैं और घाटे में चल रही हैं। दक्षिण बस्तर में तो इन मंडियों पर सुरक्षा बलों का ही कब्जा है। जो मंडियां अधमरी हालत में चल रही हैं, वहां किसानों को लाभकारी मूल्य तो क्या, न्यूनतम समर्थन मूल्य भी सुनिश्चित नहीं हो रहा है। घाटे में चल रही इन मंडियों की आय की बदौलत ‘मूल्य स्थिरीकरण निधि’ की स्थापना हास्यास्पद ही है। सरकारी सोसायटियों के जरिये धान खरीदी में हर वर्ष 2000 करोड़ रुपयों का भ्रष्टाचार होता है। इस समस्या से निपटने के बजाय मंडी क्षेत्र को उदार बनाने की ही नीति अपनायी जा रही है।

यही हालत अनाज भंडारण का है। प्रदेश में 50 शीत भंडार हैं, जिनमें से 48 निजी क्षेत्र में हैं और जिनकी भंडारण क्षमता 2.67 लाख टन है, जबकि सरकारी आंकलन के हिसाब से 5.86 लाख मीट्रिक टन भंडारण क्षमता की आवश्यकता है। इसके विकास के लिये सार्वजनिक निवेश के जरूरत है, लेकिन इसे निजी क्षेत्रों के भरोसे छोड़ दिया गया है–‘‘राज्य में आधुनिक भंडारण व्यवस्था और शीत श्रृंखला द्वारा खेत से बाजार को जोड़ने हेतु रणनीति तैयार की जायेगी।’’ (पैरा 9.8.5) यह रणनीति विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर ही निर्भर है, जो केवल अपने व्यवसायिक हितों से ही प्रेरित होते हैं, न कि व्यापक किसान समुदाय के हितों से। सच तो ये है कि कंपनियां या निजी क्षेत्र जो कुछ भी शीत कृह बनायेंगे, वे सब अपने व्यवसायिक कार्यों के लिये ही बनायेंगे, न कि किसानों व उपभोक्ताओं के लिये। यह सोच कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां छत्तीसगढ़ की खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में आमूल परिवर्तन करके उसे आधुनिक बना देंगे, मिथ्या सोच के अलावा कुछ नहीं है।
‘जैविक कृषि’ का नारा
इसी प्रकार उर्वरकों की कीमतों को विनियंत्रित कर विश्व बाजार से जोड़ने का नतीजा यह हुआ है कि इनकी कीमतों में तेजी से वृद्धि हुयी है तथा खेती की लागत बहुत बढ़ी है। इसका समाधान केवल इन नीतियों को पलटना तथा सहकारिता के जरिये न्यूनतम दरों पर अच्छी गुणवत्ता का खाद किसानों को उपलब्ध कराना ही है, ताकि वे बाजार के झटकों से महफूज रहे। लेकिन इसका एक मात्र समाधान जैविक कृषि में खोजने की कोशिश की जा रही है। वैसे भी छत्तीसगढ़ की कृषि भारतीय मानकों से बहुत दूर है।

 छत्तीसगढ़ में खरीफ के मौसम में वर्ष 2012 में रासायनिक खाद का प्रति हेक्टेयर उपभोग 74.21 किलोग्राम तथा रबी मौसम में उपभोग 121.27 किलोग्राम था।  इस प्रकार वर्ष भर में प्रति हेक्टेयर औसत उपभोग मात्र 83.6 किलोग्राम था, जो औसत भारतीय उपभोग 168.29 किलोग्राम का मात्र 49 प्रतिशत है। आदिवासी क्षेत्रों में तो औसत उर्वरक उपभोग 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ही है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना कि रासायनिक खेती के कारण छत्तीसगढ़ के किसान तबाह हो रहे हैं, बहुत ही सरलीकृत है।
थोड़ा और गहराई में जायें। प्रदेश में खरीफ सीजन में रासायनिक खाद का औसत उपभोग वर्ष 2009 के 94.96 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से घटकर वर्ष 2012 में 74.21 किलोग्राम ही रह गया है, जो वर्ष 2007-08 के औसत उपभोग के समकक्ष है। लेकिन इसकी तुलना में जैविक खाद का उपभोग नहीं बढ़ा है। लेकिन रबी सीजन (जो मुख्यतः सिंचाई साधनों पर आश्रित होने के कारण धनी तबकों की कृषि है) में रासायनिक खाद के औसत उपभोग में 6-7 गुना वृद्धि हुई है और यह वर्ष 2000 के 18.8 किलोग्राम से बढ़कर  वर्ष 2012 में 121.27 किलोग्राम हो गयी है। स्पष्ट है कि रासायनिक खाद की बढ़ती कीमतों तथा बाजार में उसकी सहज उपलब्धता के अभाव की मार गरीब किसानों पर ही पड़ी है और इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ रहा है। रसायन के साथ ही किसानों को सस्ते व उन्नत बीजों, दवाईयों, कृषि उपकरणों की भी जरूरत पड़ती है। और इन सबके बाद, बाजार की व्यवस्था ऐसी हो कि उसे लाभकारी मूल्य प्राप्त हो। इसके अभाव में जैविक कृषि एक एक आकर्षक नारा तो बन सकती है, लेकिन वास्तविक समाधान नहीं।
ऋण व बीमा तक पहुंच नहीं
कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक पूंजी निवेश का एक महत्वपूर्ण माध्यम कृषि ऋण है। व्यवसायिक बैंकों का प्रदेश में फसल ऋण का योगदान मात्र 5 प्रतिशत ही है। शेष ऋण सहकारी बैंक ही वितरित कर रहे हैं। लेकिन इन बैंकों की वास्तविक स्थिति क्या है? वर्ष 2009-10 में इन सहकारी बैंकों द्वारा सम्मिलित रुप से 9.09. लाख किसानों को 1869.38 करोड़ रुपयों का ऋण दिया गया, जो प्रति किसान औसत मात्र 20565 रुपये बैठता है। कृषि की बढ़ती लागत के मद्देनजर इतने ऋण से तो एक हेक्टेयर की कृषि भी मुश्किल है। लेकिन इन ग्रामीण सहकारी बैंकों में कृषि ऋण उपलब्ध करवाने हेतु सरकारी निवेश की कोई योजना सरकार के पास नहीं है।
प्रदेश के कुल कृषकों के केवल 41 प्रतिशत ही इन सहकारी बैंकों के सदस्य हैं। इन सदस्यों में से भी केवल 9 लाख (कुल कृषकों के केवल 25 प्रतिशत) सदस्य ही लेन-देन करते हैं और 5 लाख से अधिक सदस्य इसकी परिधि से बाहर हैं। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि प्रदेश में जो 8 लाख मध्यम व बड़े किसान हैं, उन्हें तो कृषि ऋणों (और सस्ते कृषि ऋणों) का लाभ मिल रहा है, लेकिन सीमांत व लघु किसान इन सस्ते ऋणों की पहुंच के बाहर ही हैं। ये गरीब  किसान महाजनी कर्ज में फंसे हुये हैं। इन गरीब किसानों को महाजनी कर्ज से मुक्त करने की कोई नीति भाजपा सरकार के पास नहीं है। आखिर ये धनाढ्य महाजन ही तो कांग्रेस-भाजपा का ‘ग्रामीण आधार’ तैयार करते हैं।
छत्तीसगढ़ में केवल 9 फसलें- धान, मक्का, मूंगफली, सोयाबीन, अरहर, चना, अलसी, सरसों और आलू- ही बीमा योजना के दायरे में आते हैं। वर्ष 2001 में 3.91 लाख परिवार ही राष्ट्रीय फसल बीमा योजना के दायरे में थे। ये वे किसान थे, जो अपेक्षाकृत अधिक साधन संपन्न थे तथा जिनकी पहुंच सहकारी बैंकों, वाणिज्यिक बैंकों तथा प्राथमिक सहकारी समितियों से मिलने वाले ऋणों व खाद्य, बीज, कीटनाशक आदि तक है। 5 एकड़ से कम वाला कोई सीमांत किसान तो शायद ही इस योजना में शामिल हों।

 वर्ष 2001 के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों में कुल बीमा राशि का मात्र 3 प्रतिशत (2.58 करोड़ रुपये) ही बांटा गया था जबकि इन जिलों में बीमित किसानों की कुल संख्या 37146 राज्य के कुल बीमित किसानों का 9 प्रतिशत थी। इससेे यह निष्कर्ष स्पष्ट तौर से उभरता है कि जिन आदिवासी किसानों को सूखा व बाढ़ में राहत व मुआवजें की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, उन्हें नहीं के बराबर मदद मिलती है और उन सामान्य आदिवासियों की पहुंच बैंकों तक है ही नहीं, जिसकी मदद की उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है।
राष्ट्रीय फसल बीमा योजना के आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद इस योजना के तहत पिछले 13 सालों में औसतन 7.52 लाख किसानों को ही (कुल किसानों का 23 प्रतिशत) फसल बीमा की छतरी हासिल थी तथा रबी और खरीफ दोनों फसलों को मिलाकर मात्र 15.22 लाख हेक्टेयर (दोनों सीजनों की सम्मिलित कृषि भूमि का मात्र 29 प्रतिशत) ही इसके दायरे में आये हैं। इन किसानों में से मात्र 1.28 लाख किसान ही (कुल किसानों का 3.95 प्रतिशत और कुल बीमित किसानों का 17.1 प्रतिशत) लाभान्वित हुये हैं, जिन्हें औसतन 29.42 करोड़ रुपये (औसतन 2287 रुपये प्रति किसान) के दावे ही स्वीकृत हुये हैं।
ये सभी आंकड़े प्रदेश में फसल बीमा की दयनीय स्थिति बताते हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि फसल बीमा की सुरक्षा केवल आर्थिक रुप से ताकतवर बड़े किसानों को ही प्राप्त है, न कि आर्थिक-सामाजिक रुप से निचले वर्ग के लोगों को। अतः बीमा व ऋण के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में वृद्धि करनी होगी, तभी इसका लाभ सीमांत व लघु किसानों तक पहुंचेगा।
बदहाल रोजगार गारंटी
राज्य निर्माण के बाद कृषि के रकबे में लगभग 10 लाख हेक्टेयर की कमी आयी है। लगभग इतने ही किसान भूमिहीनों और सीमांत श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। अब इनकी आजीविका मुख्यतः खेत मजदूरी व ग्रामीण रोजगार या पलायन पर ही निर्भर रह गयी है। अतः ग्रामीण जीवन को बेहतर बनाने के लिए रोजगार गारंटी का बेहतर क्रियान्वयन जरूरी है। इस योजना के जरिये छत्तीसगढ़ की कृषि को न केवल रोजगारपरक बनाया जा सकता है, बल्कि गांवों में कृषि-अधोसंरचना का भी बड़े पैमाने पर विकास किया जा सकता है। लेकिन कृषि नीति के दस्तावेज में इस योजना को केवल भूमि एवं जल सरंक्षण तक ही सीमित कर दिया गया है।
वास्तव में तो छत्तीसगढ़ में ग्रामीण रोजगार गारंटी का हाल बेहाल ही है। कैग की रिपोर्ट के अनुसार ही पिछले सात सालों में इस योजना के 3272 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किये गये, जबकि मजदूरों को काम के औसत दिनों की संख्या गिरकर 30-35 ही रह गयी है। मनरेगा को सुनियोजित तरीके से निहित स्वार्थी तबकों द्वारा ‘छत्तीसगढ़ की कृषि को क्षति पहुंचाने वाला’ बताया जा रहा है, क्योंकि यह योजना ग्रामीण गरीबों विशेषकर खेत मजदूरों के आत्मसम्मान व सामूहिक सौदेबाजी की ताकत तो बढ़ाती ही है। लेकिन ग्रामीण जीवन पर प्रभुत्वशाली वर्ग ठीक यही नहीं चाहता– और सरकार भी इन्हीं वर्गों के साथ है!
घटता कृषि रकबा
कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग तथा इसके लगातार सामने आ रहे दुष्परिणामों के बारे में भी इस दस्तावेज में नीतिगत चुप्पी साध ली गयी है और केवल भू राजस्व संहिता एवं कृषि जोत अधिनियम की समीक्षा की बात कही गयी है। जबकि शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के नाम पर भू माफियाओं व पूंजीपतियों को प्रदेश के जल, जंगल, जमीन व प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लाइसेंस थमा दिये गये हैं। प्रदेश की नदियों का पानी खेती को सींचने की बजाय उद्योगों के लिये मुनाफा पैदा कर रहा है, खनिजों की अंधाधुंध खुदाई करके जंगलों की जैव विविधता खत्म की जा रही है।
उद्योग बनाम कृषि
चूंकि कृषि व उद्योग दोनों की मूलभूत जरूरत भूमि ही है, अतः छत्तीसगढ़ जैसे कृषि प्रधान राज्य के लिए दोनों क्षेत्रों में संतुलित विकास की नीति अपनाना आवश्यक है। उद्योगों को कृषि पर किसी भी प्रकार की प्राथमिकता देने से आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में असंतुलन, विकृतियां तथा असमानता पैदा होगी। इसलिए उद्योग नीति  और कृषि नीति को एक दूसरे का पूरक होना चाहिये। लेकिन वास्तविकता यह है कि दोनों नीतियां एक दूसरे की विरोधी ही हैं। कृषि नीति में जहां एक ओर सैद्धांतिक रुप से कृषि के रकबे तथा जैव विविधता की रक्षा की बात की जाती है, तो वहीं दूसरी ओर औद्योगिक नीति में व्यवहारिक रुप से कृषि भूमि के अंधाधुंध अधिग्रहण और लोगों के उचित पुर्नवास बिना विस्थापन, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के जरिये जैव विविधता तथा पर्यावरण विनाश की नीतियों को क्रियान्वित किया जा रहा है।
उद्योग के क्षेत्र में अपनाये जा रहे कुछ कदमों के खुलासे से ही भाजपा सरकार द्वारा कृषि के क्षेत्र में की जा रही लफ्फाजी का खुलासा हो जाता है। छत्तीसगढ़ में लगभग 70000 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए एमओयू किये गये हैं या ताप विद्युत परियोजनायें निर्माणाधीन हैं जबकि 2022 में पीक लोड केवल 5800 मेगावाट अनुमानित है (केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण की वर्ष 2012 की रिपोर्ट)। पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन रिपोर्टों के अनुसार इसके लिए कम से कम 70000 एकड़ भूमि की आवश्यकता होगी। इन संयंत्रों को चलाने के लिये प्रतिवर्ष 33 करोड़ टन कोयले की जरूरत पड़ेगी, जिसके लिए 1.5 लाख हेक्टेयर वन भूमि का प्रतिवर्ष खनन करना होगा। इन संयंत्रों को चलाने के लिए 2669 घन मिलियन पानी प्रतिवर्ष खर्च होगा, जिससे प्रदेश में 5.33 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकती है, (रिपोर्ट आॅफ द कमिटी आॅन इन्टीग्रेटेड इन्फ्रास्ट्रक्चार डव्हलपमेंट, छत्तीसगढ़ सरकार)। हमारे प्रदेश की प्रमुख नदियों के जल प्रवाह तथा जल संग्रहण क्षमता को शामिल करने से भी इतना पानी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह केवल बिजली क्षेत्र में औद्योगिकीकरण का आंकलन है।

 स्पष्ट है कि कृषि पर उद्योगों को प्राथमिकता देते हुये यदि अंधाधुंध औद्योगिकीकरण की नीतियां अपनायी जायेंगी, तो प्रदेश के नागरिकों को सिंचाई तो क्या, पीने का पानी भी नहीं मिलेगा। दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार औद्योगिकीकरण के नाम पर ठीक इन्हीं ‘सर्वनाशी’ नीतियों का क्रियान्वयन कर रही है और जिसका कृषि नीति से कोई ‘मानवीय’ संबंध नहीं है। ऐसी नीतियों से पूंजीपतियों की तिजोरियां तो भरी जा सकती हैं, कृषि अर्थव्यवस्था पर आश्रित जनता का भला नहीं किया जा सकता। ऐसी कृषि विरोधी औद्योगिक विकास के सबसे बर्बर शिकार प्रदेश के आदिवासी एवं गरीब किसान हो रहे हैं, जो अपनी आजीविका के साधनों से ही पूरी तरह वंचित हो रहे हैं। इसकी अभिव्यक्ति उद्योगों के लिए किये जा रहे भूमि अधिग्रहण या जल प्रबंधन के खिलाफ प्रदेश में जगह-जगह फूट रहे स्वतःस्फूर्त किसान संघर्षों में भी हो रही है।
किसान विरोधी कृषि नीति को ठुकराओ
कुल मिलाकर, छत्तीसगढ़ की कृषि गरीब किसानों व खेत मजदूरों की कृषि है। इसलिए कृषि नीति का मुख्य लक्ष्य खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी के जरिये खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना तथा किसानों व ग्रामीणों के जीवन स्तर को बेहतर बनाना ही हो सकता है। लेकिन यह दिशा कृषि के क्षेत्र में भूमि सुधार, सार्वजनिक निवेश में वृद्धि तथा सरकारी हस्तक्षेप की मांग करती है। इसके अभाव में पिछले 12 वर्षों में प्रदेश में 20 हजार से ज्यादा किसान कृषि संकट से जूझते हुये आत्महत्या कर चुके हैं। कृषि नीति के नाम पर भाजपा सरकार फिर उदारीकरण-निजीकरण की तगड़ी खुराक पिलाना चाहती है– मजे की बात यह है कि यह सब वैश्वीकरण से लड़ने के नाम पर किया जा रहा है! स्पष्ट है कि संकट से जूझता छत्तीसगढ़ का किसान समुदाय इस नीति से कुछ राहत नहीं पा सकता। उदारीकरण-निजीकरण की नीति केवल उसकी बर्बादी का रास्ता तैयार करेगी। भूमिहीनों व गरीब किसानों के हितों के प्रति चिंतित सभी ताकतों को ऐसे किसान विरोधी कृषि नीति के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिये, जो कि साररुप में किसानों के साथ ही खाद्यान्न आत्मनिर्भरता को भी बर्बाद करती है।

पुस्तक समीक्षा : पुराने दिनों के गायब होते लोगों के किस्से


हिन्दी-साहित्य पाठकों के लिए राजेष जोषी जाना-पहचाना नाम है। वे एक साथ ही कवि-कहानीकार-आलोचक-अनुवादक-संपादक सब कुछ हैं। हाल ही में उनकी रचना 'कि़स्सा कोताह (राजकमल प्रकाषन) सामने आयी है। राजेष जोषी के ही अनुसार, न यह आत्मकथा है और न उपन्यास। यह एक गप्पी का रोज़नामचा भर है- जो न कहानी है और न संस्मरण, यदि कुछ है तो दोनों का घालमेल- जिससे हयवदन विधा पैदा हो सकती है। गप्पी की डायरी के जरिये राजेष जोषी हिन्दी पाठकों को बेतरतीबवार नरसिंहगढ़ और भोपाल के, अपनी बचपन और परिवारजनों व दोस्तों के कि़स्से सुनाते हैं- जिसका न कोर्इ सिरा है और न अंत। ये कि़स्से हैं, जो एक जुबान से दूसरे कानों तक, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक और एक स्थान से दूसरे स्थान तक अनवरत बहते हैं और इस बहाव के क्रम में उनका रुप-रंग-स्वाद सब कुछ बदलता रहता है- नहीं बदलती तो केवल कि़स्सों की आत्मा। चूंकि यह जीवन के कि़स्से हैं, सभी पाठक इनमें डुबकी मारकर अपने चेहरे खोज सकते हैं। राजेष जोषी सूत्रधार के रुप में केवल एक कड़ी हैं कि़स्सागो की-- बाक़ी तो कि़स्से हैं, जो बह रहे हैं अपने आप। तो फिर इन कि़स्सों को बुन कर जो रचना निकलती है, वह परंपरागत साहित्य के चौखटे को तोड़कर बाहर आती है, वह न कहानी के मानदंडों को पूरा करती है, न उपन्यास के और न संस्मरण के। साहित्य के बने-बनाये स्वीकृत ढांचे को तोड़कर राजेष जोषी जिस विधा को स्थापित करते हैं, वह है- हयवदन विधा। तो पाठकगण, राजेष जोषी के 'कि़स्सा कोताह में आप इस विधा के दर्षन कीजिये। लेकिन इस विधा का रस तो आपको तब मिलेगा, जब आप तथ्यों को ढूंढने की जिद छोड़ दें। इन कि़स्सों में राजेष जोषी की कल्पनाषीलता और लेखन षैली का मज़ा लें। इन कि़स्सों में जोषी बार-बार विस्मृति से स्मृति की ओर यात्रा करते हैं, और किस्से सुनाते हुये स्मृति से विस्मृति की यात्रा षुरु कर देते हैं, यह भूल जाते हैं कि वे क्या सुना रहे थे और इस क्रम में एक नया कि़स्सा सामने आ जाता है। 

साहित्य का एक काम यदि रसरंजन है, तो 'कि़स्सा कोताह षुरू से लेकर अंत तक रंजकता से भरपूर है। चूसनी आम को चूसने या रस निकालने की कला से सभी वाकि़फ होंगे। 'फजीता (सब जगह अलग-अलग नामों से ऐसा प्रयोग होता है) के रुप में आम की अंतिम रस-बूंद का उपयोग भी सभी जगह होता है। प्राय: सभी घरों में ऐसे 'नाना तो रहते ही हैं, जिनके पादने की जोरदार आवाज़ के मजे बच्चे लेते ही रहते हैं, गप्पी की तरह। नाना के पाखाने का कि़स्सा वे कुछ यों सुनाते हैं: 'भंगन के आने के पहले ही सुअर पाखाना साफ कर जाते थे। पाखाना जाते समय साथ में कुछ छोटे-छोटे पत्थर लेकर जाना पड़ता था। सुअर जब पीछे की तरफ से थूथन घुसाते तो पत्थर मारकर उन्हें भगाना पड़ता। (पृश्ठ 26) इस कि़स्से को पढ़ते हुये अपनी स्मृति में मुझे विश्णु खरे की कविता ' सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा की ये पंकितयां ताजा हो जाती हैं: 
अब जब जि़क्र निकला है तो तुम्हें याद आते हैं वे दिन
कि तुम जब बैठे ही हो
कि अचानक कभी घुस आता था कोर्इ थूथन नहीं
बलिक चूडि़यों वाला कोर्इ सांवला सा हाथ 
टीन की चौड़ी गहरी तलवार जैसा एक खिंचौना लिये हुये
फिर जैसे तैसे उठकर भागने से पहले आती थी
स्त्री हंसी की आवाज जो कहती थी
और पानी डाल दो बब्बू
और उसके बाद राख की मांग की जाती थी
जिसे राखड़ कहा जाता था राख कहना अषुभ होता

आज तो मोबाइल का जमाना है और इस टिप्पणी के लिखते-लिखते देष के टेलीग्रामों को बंद करने की घोशणा हो चुकी है। लेकिन तब के जमाने में तो फोन दुर्लभ चीज थी। दुर्लभ चीजों का सामाजिक मूल्य भी बहुत ज्यादा होता है। तब के जमाने में इसका उपयोग अपषकुन काटने के काम में होता था। नानी के सिर पर बैठे कौव्वे के अपषकुन को इसी के सहारे काटा गया था। लेकिन सोचिये, तब ऐसी फोन सुविधा होती, तो नानी का अपषकुन कैसे कटता? 

गप्पी नरसिंहगढ़ के भूगोल और इतिहास को कि़स्सार्इ अंदाज में बताता है। सभी जगहों का भूगोल उसके विषेश इतिहास को जन्म देता है। विंध्याचल की पहाडि़यों से घिरे नरसिंहगढ़ का कि़स्सा 'डालडा सरकार (महाराज भानुप्रताप) से जुड़ता है, तो 'आन फिल्म की षूटिंग, नरेष मेहता के बचपन और महादेवी वर्मा के प्रेम-कि़स्सों से भी जुड़ता है। नरसिंहगढ़ का किला नश्ट हो गया ( और इस संदर्भ में राजेष जोषी की राजनैतिक टिप्पणी है--''पुराना सामंतवाद भूसा भरे षेर की तरह था, जिसकी आंखें कांच की अंटियों की थीं जो चमकती तो थीं लेकिन उनमें रोषनी नहीं थी।--पृश्ठ 21), लेकिन इतिहास के कि़स्से गप्पी की जुबान में जिंदा हैं। 

किस्से तो भोपाल के भी हैं, जो नवाब हमीदुल्ला खां की रियासत थी, देष के आजादी के दिन भी! इसलिए 15 अगस्त, 1947 को जब देष आजाद हुआ, तो भोपाल में कोर्इ बड़ा जष्न नहीं हुआ। (पृश्ठ 68) इससे विलीनीकरण आंदोलन में बहुत तेजी आ गयी। मास्टर लालसिंह, तरजी मषरीकी, बालकिषन गुप्ता, गोविंद बाबू, उद्धवदास मेहता, एडवोकेट सूरजमल जैन, षांति देवी, षिवनारायण वैध छोटे दादा, षिवनारायण वैध बड़े दादा.... आदि-इत्यादि कर्इ लोग इस आंदोलन से जुड़े थे। सबके अपने-अपने किस्से हैं, जिसे राजेष जोषी गप्पी की तरह किस्सार्इ षैली में हमें सुनाते हैं। 

कांग्रेस से जुड़े तरजी साहब विलीनीकरण आंदोलन के डरपोक सिपाही थे। एक मीटिंग में अपने डर को छुपाने के लिये ऊंची आवाज़ में गरजकर बोले.... आपको पता है....पता है आपको....बि्रटेन ने जब बरतानिया पर हमला किया, तो लंदन तबाह हो गया। (पृश्ठ 47) लेकिन प्रजामंडल से जुड़े छोटे दादा थे बड़े गुस्सैल और बात-बात में गालियां बकते थे, क्योंकि उनका मानना था कि उनके पास गाली बकने का लाइसेंस है। भोपाल में यह लाइसेंस बिना किसी टैक्स के सबको हासिल था। (पृश्ठ 42) सो माना जाये कि राजेष जोषी को भी था (है)। वे भी इस 'हयवदन विधा में इन गालियों के कुछ नमूने पेष करते हैं, लेकिन काषीनाथ सिंह ('काषी का अस्सी) के आगे फीके हैं। ठूंसी हुयी गालियां काषीनाथ सिंह का तो मजा नहीं दे सकतीं! 

बहरहाल, 1 जून, 1949 को भोपाल रियासत स्वतंत्र भारत का हिस्सा बना। भोपाल के नेताओं और मौलाना आजाद के प्रयासों से भोपाल मध्यप्रदेष की राजधानी बना और षंकरदयाल षर्मा पहले मुख्यमंत्री। पांच मंत्री और 25 विधायक। राज्यपाल की जगह कमिष्नर सरकार का मुखिया। एक आषु कवि खुषाल कीर का दोहा गप्पी के किस्से में दर्ज हो गया: 
पांच पंच कुर्सी पर बैठे
फटटन (टाटपटटी) पर पच्चीस
राज करन को एक कमीष्नर 
झक मारन को तीस।

लेकिन रानी कमलापति से नवाब दोस्त मोहम्मद खां को मिले भोपाल का भूगोल गलियों, चौकों, मौहल्लों, तालाबों व मसिज़दों के किस्सों के बिना पूरा नहीं होता। जहां लोग-बाग बसते हों, किस्से भी वहीं जन्म लेते हैं। तो भोपाल किस्सों का षहर है, क्योंकि यहां जितनी गलियां, उतने किस्से; जितने चौक-मौहल्ले, उतने किस्से; हर तालाब के अपने किस्से और मसिज़दों के भी। और इन सभी किस्सों में इतिहास की मिलावट। बिना सन बताये (और इस तरह इतिहास को बोझिल किये बिना) राजेष जोषी इन तमाम किस्सों को कहते-बतियाते चलते रहते हैं-- ठीक किसी चलचित्र की तरह-- जैसे पुराने जमाने के लोग और कैरेक्टर एक के बाद एक जिंदा हो उठे हों। राजेष जोषी गप्पी की स्मृतियों के सहारे पुराने दिनों की धड़कन हमें सुनाते हैं-- सबसे बुरे दिनों के अनुभव भी किसी मजेदार किस्से की तरह। इन सबसे मिलकर ही गप्पी की स्मृति में भोपाल षहर बसता है-- जिसमें दादा खै़रियत है, तो बिरजीसिया स्कूल और उसके मास्टर भी: दादा खै़रियत हमेषा सिर झुकाकर चलते थे। षहर के विषाल दरवाज़ों के नीचे से निकलते तो थोड़ा सिर और झुका लेते जैसे दरवाजा किसी भी वक्त उनके सिर से टकरा जायेगा। (पृश्ठ 62) वैसे ये सब जिंदा पात्र ही मिलकर राजेष जोषी के साहितियक व्यकितत्व का निर्माण करते हैं। 

पाठकों का इन कैरेक्टरों से कोर्इ पहली बार सामना नहीं हो रहा है। राजेष जोषी की कविताओं और डायरियों से वे इनसे भली-भांति परिचित हैं। 'किस्सा कोताह में तो चरित्रों का बस पुनर्जन्म हो रहा है। राजेष जोषी की कविता में 'दादा ख़्ौरियत इस तरह उतरते हैं: 
कैसा गुरूर अपने कद का दादा ख़्ौरियत को
कि खत्म हो चुकी नवाबी रियासत का
बचा हुआ यह आखरी दरवाजा
छोटा पड़ता हैं उन्हें 
तनकर निकलने के लिए आज भी।

अपनी एक दूसरी कविता 'रफीक मास्टर साहब और कागज के फूल में वे बिरजीसिया स्कूल के रफीक मास्टर साहब को गणित पढ़ाने और कागज के बहुत सुन्दर फूल बनाने के लिए याद करते हैं, न कि 1952 के दंगों में मारे जाने के लिये। 
लेकिन इन किस्सों को कहते राजेष जोषी की वर्तमान पर भी सधी नजर है। किस्सों के बीच जगह-जगह दबी-फंसी उनकी टिप्पणियां इसकी गवाह हैं। एक टिप्पणी का जिक्र तो ऊपर कर चुके हैं। कुछ और टिप्पणियां: 
- बाजार के पागलपन ने असल पागलों की सारी जगहों को हथिया लिया है। (पृश्ठ61) 
- यह भारतीय इतिहास का सबसे बुरा तिरंगा था। (पृश्ठ 72)
- तानाषाही लिखे हुये षब्द पर प्रतिबंध लगा सकती है। छपे हुये षब्द पर काली रोषनार्इ फेर सकती है। किताब और पत्रिका को जलाकर खाक कर सकती है। लेकिन कहा जाता है न ....। बोला गया षब्द लिखे हुये षब्द से ज्यादा स्वतंत्र होता है। किस्सा तानाषाह की पहुंच के बाहर होता है। .....वह घुमन्तों की कला है। नागाजर्ुन ने कहीं कहा था कि अपने देष में लिखने से ज्यादा जरूरी बोलना है। किस्सा बोलने की कला है। कहने-सुनने की कला।... (पृश्ठ 113)
-स्मृतियों की बायोलाजिक क्लाक पर कोर्इ भी षासक इमरजेंसी लागू नहीं कर सकता। (पृश्ठ 144)
- इमरजेंसी में बने चुटकुले अगर इकटठे कर लिये जाते तो जनता के वास्तविक गुस्से का अंदाजा लगाया जा सकता था। (पृश्ठ 160)

इन टिप्पणियों से स्पश्ट है कि भोपाल षहर राजेष जोषी के लिए केवल 'अतीत का इतिहास ही नहीं है, बलिक 'वर्तमान की रणस्थली भी है। भोपाल ही वह षहर है, जिसने राजेष जोषी को राजेष जोषी बनाया- वामपंथी चेतना से लैस। भोपाल षहर ने ही उनके साहितियक व्यकितत्व का निर्माण किया। भोपाल के इस ताजा इतिहास को वे बड़ी आत्मीयता से पेष करते हैं। 

विलीनीकरण आंदोलन के नेता कहीं विलीन नहीं हुये थे। अब उनकी भूमिकायें जरूर बदल गयी थीं। चार लोगों- बालकिषन गुप्ता, गोविंद बाबू, मोहिनी देवी और षाकिर अली खान-- की पार्टी का षहर में अच्छा-खासा प्रभाव था और षाकिर अली खान ही हमेषा विधानसभा का चुनाव जीतते। लेकिन भोपालियों में जो गप्प उड़ाने का हुनर था उसका दुरूपयोग होना षुरू हो चुका था। हिन्दू महासभा और मुसिलम लीग में होड़ चल रही थी। यहएक सार्वजनिक कामेडी की तरह थी। किसी किस्म का तनाव नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे तनाव पैदा करने के उपाय खोजे जा रहे थे। (पृश्ठ 80) वे सफल हुये और रंगपंचमी के दिन अचानक दंगा षुरू हो गया। गप्पी की स्मृति में एक षांत, सौहार्दपूर्ण षहर के दंगाग्रस्त षहर में तब्दील होने के किस्से मौजूद हैं। भोपाल षहर ने गप्पी को दंगों-द्वेशों की नहीं, गंगा-जमुनी तहजीब की चेतना दी। 

अपने छात्र जीवन में ही जोषी कम्युनिस्ट नेताओं के संपर्क में आ चुके थे। इसी के साथ नौकरी के लिये जीवन और घर-परिवार के आवष्यक तनाव....और फिर भोपाल में बैंक की नौकरी। नौकरी के साथ ही भोपाल षहर ने उन्हें साहित्यक-सांस्कृतिक तमीज भी दी। यहीं वे वेणुगोपाल के संपर्क में आये और उन्हें गढ़ने में वेणु के योगदान के किस्सों को गप्पी याद करता है। सोमदत्त, फज़ल ताबिष और षरद जोषी से भी उनकी पहचान वेणु के माध्यम से ही हुयी। रामप्रकाष त्रिपाठी ग्वालियर के छात्र आंदोलन के नेता थे तथा भोपाल में हिन्दी ग्रंथ अकादमी में कार्यरत थे। इसी समय माकपा ट्रेड यूनियनों का काम षुरू हुआ। इस प्रकार राजेष जोषी का कमरा गप्पबाजी , आंदोलन और साहितियक चर्चाओं का अडडा बन गया।
1973 के अंतिम दिनों में उन्होंने वेणु के साथ प्रगतिषील लेखक संघ के बांदा सम्मेलन में हिस्सा लिया। असगर वजाहत, सनत कुमार, धूमिल, विजयेन्द्र, सव्यसाची, मन्मथनाथ गुप्त, चंद्रभूशण तिवारी, कर्ण सिंह चौहान- आदि सबसे वे यहीं मिले। इस सम्मेलन ने एक नये गप्पी को जन्म दिया। 

अपनी गतिविधियों के कारण वे पुलिस की नजर में आ चुके थे। इमरजेंसी लगने के बाद के दिन काफी त्रासद रहे। नागरिक अधिकार निलंबित हो चुके थे और संघर्श की तमाम ताकतों ने एक समझदारी भरी चुप्पी ओढ़ ली थी। संजय गांधी इस नये जमाने के नये राजकुमार थे। आपातकाल, इंदिरा गांधी और संजय गांधी पर चुटकुले-किस्से हवा में तैर रहे थे। बापू का डंडा जनता के पृश्ठ भाग में घुसेड़ दिया गया था। राश्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कांग्रेस के पास षरणागत थी और उसके कार्यकर्ता संजय गांधी की रैलियों को सफल बनाने में जुटे थे। भोपाल में पटिया-पोलेटिक्स पर बंदिष लग चुकी थी, क्योंकिपटियों पर सरकार को लगता होगा कि फालतू बैठे लोगों के बीच खतरनाक विचार पनपते हैं। (पृश्ठ 162) आम लोगों के लिये देर रात का भोजन और देर रात की चाय-सिगरेट जुटाना भी मुषिकल हो गया था। 

ये लगभग 30 सालों के किस्से हैं- स्वतंत्रता पूर्व जन्म से लेकर आपातकाल तक का-जब आधी रात को मिली आजादी आधी रात को छीन ली गयी थी। इस आपातकाल में जिस 'अनुषासन पर्व को मनाया गया, उसके खिलाफ छटपटाहट भी मौजूद है, क्योंकि जेल के बाहर का षहर ज्यादा बड़ी जेल में बदल गया था। इस बड़ी जेल के खिलाफ देष की जनता का संघर्श 'ऐतिहासिक था। इस 'दूसरी आजादी और उसके बाद के समय के किस्से राजेष जोषी पता नहीं कब बुनेंगे, लेकिन एक चिडि़या के घोंसले बनाने के रुपक से वे अपनी 'हयवदन विधा को विराम देते हैं। उन्हें उसके अंडों से बच्चों के निकलने और उनके उड़ान भरने का इंतजार है। और पाठकों को भी इसी का इंतजार रहेगा कि उनका इंतजार कब खत्म होता है, क्योंकि हमें अगले 30-40 सालों के किस्से और सुनने हैं और इसी 'हयवदन विधा में बाद के इन सालों के किस्से एक नये भारत के निर्माण के संघर्श के किस्से होंगे जो!
'किस्सा कोताह पढ़ते हुये मुझे लगातार 'काषी का अस्सी (काषीनाथ सिंह) की याद आती रही। '15 पार्क एवेन्यू नामक फिल्म को देखकर राजेष जोषी को जो पहली कृति याद आयी यह काषी का अस्सी थी।.... (15 पार्क एवेन्यू ) इस अंत में ना आषा है न निराषा। न यह तार्किक है न यौकितक। यह उस कथा की समस्या है या हमारे समय और हमारे यथार्थ की? षायद हम एक ऐसे समय में हैं जहां अपनी यथार्थवादी कथा के लिये कोर्इ यौकितक, कोर्इ बुद्धिसंगत अंत ढूंढ़ना असंभव सा लगता है। यहां लगभग एक अतार्किक सी फंतासी ही रचनाकार की मदद कर सकती है। काषी का अस्सी भी दिनों-दिन गायब हो रही हंसी का एक लंबा रुपक है।.... यह यथार्थ कथा भी अपने निजी अंत तक पहुंचने के लिये यथार्थ से बाहर आकर एक फैंटेसी की षरण लेती है। षायद यही हमारे समय की कथा की तार्किक और विवेकपूर्ण नियति भी है और प्रविधि भी। (बनास, अंक दो, वर्श 2009) क्या 'किस्सा कोताह और '15 पार्क एवेन्यू में कोर्इ सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है?

कांग्रेस-भाजपा के राज में विकास किसका हुआ है ?

मानव विकास सूचकांक शिक्षा , स्वास्थ्य, प्रति व्यक्ति आय , जीवन-स्तर , पर्यावरण तथा लैंगिक समानता जैसे कारकों के आधार पर तैयार की जाती है और इन पैमानों पर भारत का स्थान १८७ देशों में १३६ वां है. विश्व दासता सूचकांक के अनुसार भारत बंधुआ मजदूरों का सबसे बड़ा देश है. जब बेहतर जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम बुनियादी सुविधाओं से ही देश की आम जनता वंचित है,तो उसके जीवन में खुशहाली कहाँ से आयेगी? यही कारण है कि विश्व खुशहाली सूचकांक के आधार पर १४२ देशों की सूची में पिछले वर्ष भारत का स्थान १०१वां था, तो इस वर्ष २०१३ में १०६ वा रह गया. स्पष्ट है कि बढ़ती महंगाई,खस्ताहाल अर्थव्यवस्था,रोजगार वंचना, निजी स्वतंत्रता के हनन , सामाजिक असुरक्षा -- तथा इन सबके चलते उसके गिरते जीवन-स्तर ने आम आदमी की खुशहाली को पूरी तरह से छीन लिया है. तो कांग्रेस-भाजपा के राज में विकास किसका हुआ है और खुशहाल कौन है? वैश्वीकरण - उदारीकरण - निजीकरण के पैरोकार इसका जवाब देंगे? जवाब भी स्पष्ट है. डॉलर अरबपतियों की सूची में भारत का स्थान ५वा है. इन अरबपतियों की संख्या देश में तेजी से बढ़ रही है. इन डॉलर अरबपतियों व रूपया खरबपतियों के पास पिछले २० सालों में देश के सकल घरेलू उत्पाद का हिस्सा 2 प्रतिशत से बढ़कर २५ प्रतिशत तक हो गया है. तो इन नीतियों ने आम जनता से उसकी मेहनत को छीनकर चंद लोगों की तिजोरियों को ही भरने का काम किया है. कांग्रेस शासित भारत हो या भाजपा शासित राज्य -- सब जगह आर्थिक असमानता की भयंकर खाई दिखाई देगी . वैश्वीकरण - उदारीकरण - निजीकरण की नीतियों से जो बंटाधारहोना था, वही हुआ . कांग्रेस-भाजपा के पास है इसका कोई जवाब ???

निजी क्षेत्र में बैंकिंग से खतरे में पड़ी खाद्य सुरक्षा


केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने कार्पोरेट घरानों को बैंक चलाने की इजाजत दे दी है। इससे अर्थव्यवस्था के विकास की दिषा ही बदल जाएगी, क्योंकि आम जनता से इकट्ठी की गयी पूंजी पर ‘समाज के नियंत्रण’ के बदले ‘निजी क्षेत्र’ का नियंत्रण स्थापित हो जाएगा। बैंकों के राश्ट्रीयकरण को यह विफल करने की ही कोषिष है। 

लोक कल्याणकारी राज्य के रुप में देष के स्वतंत्र व आत्मनिर्भर विकास में सार्वजनिक बैंकों का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसका किसानों व लघु उत्पादकों तथा स्वरोजगार के लिए बेरोजगारों को पर्याप्त संस्थागत ऋण उपलब्ध कराना प्राथमिक कार्य रहा है। इस प्राथमिकता का सीधा-सकारात्मक असर देष की कृशि व्यवस्था पर पड़ा है। कृशि में पूंजी निवेष के कारण एक खाद्यान्न-आयातक देष से भारत का रुपांतरण खाद्यान्न-आत्मनिर्भर देष के रुप में हुआ है। इसने भारत को अकाल की विभीशिका से मुक्ति दिलाई है। कृशि क्षेत्र के विकास ने आम जनता की क्रय षक्ति में बढ़ोतरी की है। इससे औद्योगिक मालों की मांग बढ़ी है और औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिला है। स्पश्ट है कि कृशि के विकास का औद्योगिक विकास के साथ सीधा संबंध है। 

कार्पोरेट बैंकिंग से इस ‘प्राथमिकता’ की आषा नहीं की जा सकती, क्योंकि इसका संबंध ‘लोक कल्याण’ से नहीं, बल्कि अधिक मुनाफा कमाने के लिए ‘सट्टेबाजी’ से होता है। वर्श 2008 का विष्व वित्तीय संकट निजी बैंकों की इसी सट्टेबाजी से पैदा हुआ था, जिसके झटकों से दुनिया अभी तक उबरी नहीं है। इस संकट से उबरने के लिए अमेरिका को अपने सार्वजनिक खजाने से 130 खरब डाॅलर (लगभग 7800 खरब रुपये) झोंकने पड़े थे। इस संकट की मार से भारत कमोवेष मुक्त रहा है, तो इसीलिए कि यहां की बैंकिंग पर ‘सामाजिक नियंत्रण’ बना हुआ है। कार्पोरेट बैंकिंग से यह ‘सामाजिक नियंत्रण’ खतरे में पड़ जाएगा, जिसके लिए ‘कृशि ऋण’ नहीं, बल्कि ‘उपभोक्ता ऋण’ ही प्राथमिकता में होते हैं। इतिहास का अनुभव भी यही है कि 1969 में राश्ट्रीयकरण से पहले निजी बैंकों में संस्थागत ऋण पूरी तरह उपेक्षित ही थे। वर्श 1991 के बाद से उदारीकरण के राज्य में 2-जी से लेकर कोयला घोटालों तक ये कार्पोरेट घराने भ्रश्टाचार में लिथड़े पड़े हैं। ये घराने अभी तक सार्वजनिक खजाने में लगभग 10 लाख करोड़ का डाका डाल चुके हैं। 


एक तरफ तो सरकार खाद्यान्न सुरक्षा कानून बनाती है, जिसके क्रियान्वयन के लिए खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना होगा और इसके लिए कृशि के क्षेत्र में और ज्यादा निवेष तथा संस्थागत ऋणों की जरूरत होगी, वहीं दूसरी तरफ यह सरकार कार्पोरेट बैंकिंग के दरवाजे खोल रही है, जिसकी प्राथमिकताएं ‘लोक कल्याण’ से ठीक विपरीत होंगी। तब देष की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के लिए संसाधन कहां से आयेंगे? हाथी के दांत खाने के और दिखाने के अलग-अलग होते हैं। स्पश्ट है कि खाद्य सुरक्षा कानून चुनावी लोकरंजन है, तो कार्पोरेट बैंकिंग की इजाजत वर्गीय वास्तविकता। उदारीकरण-निजीकरण के पैरोकारों से ऐसे ही खेल-तमाषों की आषा की जा सकती है। 


तो खाद्यान्न सुरक्षा जाये भाड़ में-- आने दो अकाल और भुखमरी का फिर से राज! लेकिन कार्पोरेट बैंकिंग जिंदाबाद, कार्पोरेट घोटाले अमर रहे!! देश की अर्थव्यवस्था का सत्यानाष होता है, तो होने दो!!!


कांग्रेस-भाजपा दोनों इस तबाही पर एकमत हैं, लेकिन देष की आम जनता क्या उन्हें इस तबाही की इजाजत देगी?

पार्टनर, तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है?


जब-जब वामपंथ पर हमले होंगे, हमलावरों को मुक्तिबोध के सवाल का जवाब देना ही होगा कि -‘‘पार्टनर, तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है?’’ अपने आपको पाॅलिटिक्स से परे घोषित करना इस दौर की सबसे बड़ी पाॅलिटिक्स है- राजीव रंजन प्रसाद भी इससे परे नहीं हैं। उनका राजनैतिक दृश्टिकोंण विचारधारा को बेडि़यां समझता है, वे केवल विचारते हैं, इससे उनकी सोच को पंख मिलते हैं। लेकिन गिद्धों के भी पंख होते हैं। उनकी उड़ान गिद्धों की है- और आम जनता को जो गिद्ध-दृश्टि से देखते हैं, इस उड़ान में वे उन्हीं के सहभागी हैं। ‘विचारधारा विहीन विचार’ आज की सबसे बड़ी विचारधारा है, क्योंकि प्रतिक्रियावादियों को ऐसे ही विचार रास आते हैं, जो मानवीय संवेदना से बहुत-बहुत दूर हो। ऐसे विचार किस विचारधारा की पुश्टि करते हैं, इसे बताने की जरूरत नहीं हैं।

कुछ लोग होते हैं (और ऐसे सनकी-पागल लोग बहुत कम होते हैं) जो पहले अपनी विचारधारा और राजनीति तय करते हैं और बाद में वे इसे स्थापित करने का कठिन कार्य करते हैं। लेकिन ऐसे ’चतुर सयानों’ की कोई कमी नहीं होती, जो ‘स्थापित राजनीति’ के साथ चलने में ही अपनी भलाई देखते हैं। राजीव रंजन प्रसाद ‘स्थापित राजनीति’ के साथ हैं- यही कारण है कि उनका पहला वोट मनीश कुंजाम को पड़ा होगा, तो अब वे उन्हें नक्सलियों/माओवादियों के साथ जोड़कर देखना पसंद करते हैं- ‘स्थापित राजनीति’ भी यही चाहती है। इस राजनीति में ही भाजपा का भला है और कांग्रेस का भी.....और राजीव रंजन का भी!

तो राजीव रंजन से और तमाम मित्रों से मेरा पहला अनुरोध यही है कि संसदीय वामपंथ (भाकपा-माकपा) को नक्सलियों/माओवादियों से अलग करके देखें। ऐसा इसलिए कि संसदीय वामपंथ पूरे देष में ही नक्सलवाद के निषाने पर रहा है....इसीलिए उत्तर बस्तर में भी रहा है और दक्षिण में भी। कारण स्पष्ट है--यदि संसदीय वामपंथ प्रगति करेगा, तो माओवादी कमजोर होंगे। संसदीय वामपंथ को माओवादी तो बढ़ते हुए देखना ही नहीं चाहते, देष और प्रदेष की दोनों प्रमुख पार्टियां-- कांग्रेस और भाजपा-- भी नहीं चाहतीं। आखिर संसदीय वामपंथ ही तो कांग्रेस-भाजपा की नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ तनकर खड़ा है-- और एक वैकल्पिक नीतियों को सामने रखकर। वैष्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की जिन नीतियों पर कांग्रेस-भाजपा के बीच व्यापक सहमति है (चुनावी नूरा-कुष्ती को छोड़ दें तो), उनको तेजी से लागू करने के खिलाफ रोड़ा तो वामपंथ ही है। वही पूरे देष में अभियान चला रहा है, प्रदर्षन/धरना/हड़तालें आयोजित कर रहा है, जल-जंगल-जमीन व प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने के खेल को कड़ी टक्कर दे रहा है। इस संघर्ष में बस्तर, छत्तीसगढ़ और पूरे देष में वह कितनी सफल हो पाती है, और उसकी असफलता के क्या कारण हो सकते हैं, यह एक अलग मुद्दा है। निष्चित ही वामपंथ के षुभचिंतकों और ‘स्थापित राजनीति’ के सहचरों का विश्लेषण अलग-अलग ही होगा। 

पूंजीवाद शोषण पर आधारित व्यवस्था है। यह व्यवस्था पहले अस्तित्व में आती है--षोशक वर्ग के लिए इस व्यवस्था को बनाये रखने का औचित्य प्रतिपादित करने वाली विचारधारा का विस्तार बाद में होता है। यह काम आज भी बड़े पैमाने पर हो रहा है। साम्यवाद उस विचारधारा को प्रतिपादित करती है, जो षोशण पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेती है। यहां विचारधारा पहले स्थापित होती है, व्यवस्था निर्माण का काम बाद में। इस विचारधारा के विस्तार का काम आसान नहीं है, लेकिन वामपंथ ने अपनी विचारधारा और राजनीति तय करली है और इस राजनीति को स्थापित करने के काम में वे अनथक/अविचल लगे हुए हैं। इस काम में कहीं वे जमते हैं, तो कहीं जमी-जमायी जगह से उखड़ते भी हैं। लेकिन वामपंथ के इस जमने-उखड़ने की तुलना कांग्रेस-भाजपा की हार-जीत की तरह नहीं की जा सकती। आखिर पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प षोशणहीन, वर्गहीन समाज व्यवस्था ही हो सकती है-- आखिर ऐसी व्यवस्था में ही समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा के बुनियादी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। और सभी जानते हैं कि कांग्रेस-भाजपा पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ नहीं है, तो फिर वे मानवता के बुनियादी लक्ष्यों के साथ कैसे हो सकते हैं?

तो वामपंथी ताकतें वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहती हैं, वो इसके लिए वैकल्पिक नीतियां पेष कर रही है, उन ताकतों की प्रगति कौन चाहेगा? सही वामपंथ को कुचलने के लिए कांग्रेस-भाजपा को छद्म वामपंथ से भी हाथ मिलाने में कभी गुरेज नहीं रहा। कौन नहीं जानता कि बस्तर में भाकपा-माकपा के नेता/कार्यकर्ता ही नक्सलियों/माओवादियों के सबसे ज्यादा षिकार हुए हैं। कौन नहीं जानता कि इन माओवादियों के लिए आर्थिक संसाधन इनके नेताओं, अधिकारियों, व्यापारियों, ठेकेदारों की दहलीजों से ही निकलते हैं और कौन नहीं जानता कि चुनाव में लेन-देन करके इन्हीं छद्म वामपंथियों का उपयोग कांग्रेस-भाजपा अपने हित में करती है। तो कांग्रेस-भाजपा वाकई चाहेगी कि माओवाद/नक्सलवाद खत्म हो, इनको कुचलने के नाम से आ रहे आर्थिक संसाधनों में भ्रष्टाचार खत्म हो और ‘स्थापित राजनीति’ के खिलाफ सही वामपंथ को पनपने का मौका मिले? इन दोनों पार्टियों इनकी सरकारों ने नक्सलियों को कुचलने के नाम पर वामपंथी कार्यकर्ताओं को ही अपने दमन का षिकार बनाया है। नक्सलियों/माओवादियों की ‘अघोषित/असंवैधानिक’ सप्ताह को स्थापित करने का काम इन दोनों पार्टियों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया है।

वामपंथी ताकतों ने इस देष में आजादी की लड़ाई लड़ी है। आज भी वे साम्राज्यावदी संघर्शों और विचारों की वाहक है। अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवाद आज भी अपनी लूट-खसोट की नीति को जारी रखना चाहता है और इसके लिए नये-नये उपनिवेष स्थापित करना चाहता है। इसके लिए विष्व-अर्थव्यवस्था पर वह अपना प्रभुत्व जमाना चाहता है। उदारीकरण-निजीकरण-वैष्वीकरण की नीतियां इसी लूट-खसोट और षोशण की मुहिम का ही अंग है। स्पश्ट है कि जो इन नीतियों के साथ है, वह आम जनता का दुष्मन है। उसे अमेरिकी हितों और पूंजीपतियों के स्वार्थों की तो चिंता सताती है, लेकिन आम जनता के दुख-दर्दों से वह न केवल आंखें मूंदे रहता है, बल्कि उसके बुनियादी मानवीय अधिकारों को भी कुचलने में भी उसे कोई हिचक नहीं होती।
राजीव रंजन जी, आप भी जानते हैं कि मानव विकास सूचकांक के पैमानों पर छत्तीसगढ़ की क्या स्थिति है? चुनावी दावों और प्रतिदावों को छोड़ दिया जाये तो सरकारी हकीकत यही है कि छत्तीसगढ़ देष के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। तो छत्तीसगढ़ के सबसे पिछड़े इलाके बस्तर की स्थिति का अनुमान सहज लगाया जा सकता है। पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों की लूट का सबसे निर्मम षिकार वंचित वर्ग हो रहा है और छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासियों पर ही इन नीतियों की बर्बर मार पड़ रही है। बस्तर देषी-विदेषी कंपनियों की ‘लूट का चारागाह’ बन गया है। नागरिकों को उनके घरों में सुरक्षा देने की संवैधानिक जिम्मेदारी सरकारों की है, लेकिन बस्तर के आदिवासियों को इससे महरुम कर दिया गया। नक्सलियों/माओवादियों से तो निपटने में इन सरकारों की नानी मरती है, लेकिन राज्य प्रायोजित सलवा जुडूम (ध्यान रहे, सुप्रीम कोर्ट ने इसे पूरी तरह असंवैधानिक करार दिया है) के नाम पर घरों को जलाने, महिलाओं से बलात्कार करने, उनकी हत्यायें करने और उन्हें गांव से विस्थापित करने और एसपीओ के नाम पर अवयस्क बच्चे के हाथों में बंदूकें थमाने का ‘बहादुरीपूर्ण’ काम ये करते रहे हैं। आदिवासियों को कीड़े-मकोड़ों की तरह कुचलने में इन्हें जरा भी षर्म महसूस नहीं होती। ऐसा करते हुए ‘राज्य’ नामक संवैधानिक सत्ता को मानवाधिकारों की कभी याद नहीं आयी।

नक्सलियों/माओवादियों का तो मानवाधिकारों से कोई लेना-देना ही नहीं है, लेकिन ‘राज्य के संवैधानिक कर्तव्यों के उल्लंघन का अधिकार’ भाजपा सरकार को किसने दिया? माओवादियों द्वारा राज्य के कानूनों का उल्लंघन किसी भी आपराधिक कार्य की तरह निष्चित ही निंदनीय और दण्डनीय है, लेकिन भाजपा द्वारा संचालित ‘राज्य की संवैधानिक सत्ता’ को किसने ये अधिकार दिया है कि वह सोनी सोरी नामक नक्सली महिला (यदि वह नक्सली है!- और याद रखें, इस महिला पर सरकार के तमाम आरोप फर्जी साबित हो रहे हैं) के गुप्तांगों में पत्थर भर दें (मेडिकल रिपोर्ट से यह साबित हो चुका है) और ऐसी बहादुरी के लिए संबंधित पुलिस अधिकारी को राश्ट्रपति के ‘वीरता पुरस्कार’ से सम्मानित किया जाये? राजीव रंजन जी, लिंगा कोड़ोपी की पत्रकारिता को आपकी पत्रकारिता की तरह भाजपा सरकार ने सामान्य दृश्टि से न देखकर ‘खतरनाक’ क्यों माना और नक्सली करार दे दिया? हिमांषु कुमार के दंतेवाड़ा के आश्रम को गैर कानूनी रुप से ध्वस्त करने का अधिकार भाजपा सरकार को किस संविधान ने दिया था? असलियत यही है कि आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन नक्सली भी कर रहे हैं और भाजपा सरकार भी।

लेकिन आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन कोई आज की बात नहीं है। मध्यप्रदेष में कांग्रेस राज में भी यही सब हो रहा था। कांकेर के आमाबेड़ा थाने में मेहतरराम नामक आदिवासी को नक्सली कहकर मार दिया गया। अंतागढ़ थाने में मोहन गोंड नामक आदिवासी को नक्सली वर्दी पहनाकर फोटो खींची गयी और कांकेर थाने में कई दिनों तक उसे बंधक बनाकर रखा गया। केषकाल के पास धनोरा थाने में एक आदिवासी अविवाहित युवती को नक्सली कहकर कई दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया, उसके साथ बलात्कार किया गया और हाथ पैरों में जंजीर बांधकर ‘नक्सलियों को पहचानने’ के लिए बाजार में घुमवाया गया। ये सब इस गरीब बस्तर के गरीब आदिवासियों की ‘सत्यकथायें’ हैं। ये नक्सली थे कि नहीं, यह तय करने काम अदालतों की जगह पुलिस को किसने दिया?-- और यदि ये नक्सली थे भी, तो इनके मानवाधिकारों के हनन का अधिकार पुलिस और राज्य सरकार को किसने दे दिया था? ये सभी मामले माकपा नेता की हैसियत से मैंने स्वयं मानवाधिकार आयोग में दर्ज कराये थे। मानवाधिकार आयोग ने इन मामलों की छानबीन का आदेष भी दिया था। तत्कालीन एसडीएम संजीव बख्षी की अदालत में तमाम पीडि़तों और संबंधित गवाहों को मयषपथ पत्र मैंने पेष किया था-- पुलिस द्वारा एनकाउंटर करने की धमकी की परवाह न करते हुए भी। लेकिन पूरा आयोग इसके बाद चुप बैठ गया। इतनी कसरत करवाने के बाद आयोग ने इन मामलों में फैसला देने की जहमत नहीं उठायी। आयोग की आलमारियों के किसी अंधेरे कोने में पड़े ये दस्तावेज आज भी सड़ रहे होंगे। पार्टनर, आपकी पहुंच तो काफी है- थोड़ा इन दस्तावेजों को सामने लाने की उठा-पटक करोगे? थोड़ा पता करोगे कि मानवाधिकार आयोग के अधिकारों का हनन करने में किसकी दिलचस्पी थी? थोड़ा पता करोगे कि बस्तर के तत्कालीन कमिष्नर सुदीप बैनर्जी ने नक्सलवाद से निपटने के लिए जो रिपोर्ट मध्यप्रदेष सरकार को दी थी और जिसे विधानसभा के पटल पर रखा गया था, उस सार्वजनिक रिपोर्ट का क्या हुआ? ‘सूचना का अधिकार’ के तहत मांगने पर सरकार ने उसे गुप्त (?) दस्तावेज बताते हुए मुझे देने से इंकार कर दिया है। इसे हासिल करने में आप मेरी मदद करोगे?

तो राजीव जी, माकपा-भाकपा पर सरकार और दोनों पार्टियों के हमलों की तुलना भाजपा राज में कांग्रेस पर दमन से न करें। कांग्रेस ने यदि सषक्त विपक्ष की भूमिका निभायी होती, तो आज वह सत्ता से दूर नहीं रहती और यदि उस पर वर्गीय दमन होता, तो वह इतनी सीटें नहीं ले पाती। सत्ता पर कब्जा किसका रहे और मलाई का हिस्सा ज्यादा किसको मिले, इसे तय करने के लिए दमन-दमन का खेल खेला जाता है। मत भूलिये कि जोगीराज में भाजपा भी ऐसे ही कांग्रेसी दमन का षिकार होती थी। लेकिन रात के अंधेरे में हम-प्याले, हम-निवाले।

वामपंथ की कमजोरी यही है कि अपनी सही वैकल्पिक राजनीति को आम जनता के बीच स्थापित नहीं कर पायी। इस दिषा में उसे एक लंबा रास्ता तय करना है इस विकल्प के अभाव में कांग्रेस-भाजपा के बीच ही धु्रवीकरण बना हुआ है। नीतिगत रुप से दोनों पार्टियों के बीच कोई अंतर नहीं है। यही कारण है कि दोनों पार्टियों के बीच वोटों का प्रतिषत अंतर सिमटकर 0.77 प्रतिषत रह गया है। पिछले बार यह पौने दो प्रतिषत से अधिक था। यदि भाजपा की नीतियां छत्तीसगढ़ की गरीब जनता के जीवन को सकारात्मक रुप से प्रभावित करती, तो यह अंतर बढ़ता--लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नोटा के रुप में तीन प्रतिषत से अधिक-- 4 लाख से ऊपर-- मतदाताओं ने निर्णायक रुप से दोनों ही पार्टियों को ठुकराया है। यदि इनके पास तीसरे विकल्प के रुप में वामपंथी-जनवादी विकल्प होता, तो न भाजपा को सत्ता मिलती, न कांग्रेस को बहुमत।

चुनाव में वामपंथ के पास लाल झंडा था, तो उसने अपना झंडा लहराया-- ठीक वैसे ही जैसे भाजपा ने भगवा और कांग्रेस ने बहुरंगा झंडा लहराया। लेकिन वामपंथ के पास वैकल्पिक नीतियां थीं-- अपने चुनाव प्रचार में वह इन नीतियों को लेकर आम जनता के बीच में गयी। उसने कांग्रेस-भाजपा की कथनी-करनी और लफ्फाजियों को पर्दाफाष भी किया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गांरटी, वनाधिकार कानून, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, महंगाई, बेरोजगार, भ्रश्टाचार, प्रदेष का पिछड़ापन.........सभी मुद्दों पर वामंपथ ने आम जनता के बीच अपनी बातों को रखने का प्रयास किया। अवष्य ही साधन सीमित थे। चुनाव आयोग द्वारा गठित ‘गणमान्य’ व्यक्तियों की स्क्रीनिंग कमेटी ने आकाषवाणी और दूरदर्षन से प्रसारित होने वाले मेरे पार्टी संबोधन को दिषा-निर्देष और आचार संहिता के नाम पर मनमाने तरीके से कांट-छांट की कोषिष की। भाजपा सरकार की तरह ही इन बेचारों का जिंदल प्रेम अपने पूरे उफान पर था। माकपा ने उनकी हर कोषिष को नाकाम करते हुए अपनी नीतिगत बातें रखीं प्रदेष में प्राकृतिक संसाधनों की हो रही लूट के मामलों में माकपा ने हीं जिंदल को निषाने पर रखा-- कांग्रेस-भाजपाईयों की तो घिग्घी बंधी थी! वामपंथ ने अपना पूरा चुनाव प्रचार नीतियों पर केन्द्रित किया।

लेकिन क्या कांग्रेस-भाजपा ने भी ऐसा ही किया? दोनों के पास केवल लोकलुभावन घोशणाएं हीं थीं। नीतियों पर तो उन्हें बहस से ही परहेज है। कांग्रेस के पास धान का समर्थन मूल्य 2 हजार रुपये क्ंिवटल देने तथा राषन दुकानों से मुफ्त अनाज देने का वादा था (क्या इसके लिए राज्य में कांग्रेस सरकार की जरूरत है?) , तो भाजपा के अपनी तथाकथित उपलब्धियों की भरमार। लेकिन वादों और उपलब्धियों के बावजूद सच्चाई क्या है? कांग्रेस के मौजूदा 35 विधायकों में से नेता प्रतिपक्ष सहित 27 हार गये। भाजपा के 5 धाकड़ मंत्री सहित विधानसभा अध्यक्ष-उपाध्यक्ष और 5 संसदीय सचिव तथा 18 विधायक हार गये। और ये इसके बावजूद हुआ है कि दोनों ही पार्टियों ने खुलकर षराब, मुर्गा, पैसा, साड़ी, कंबल का सहारा लिया। तो क्या आम जनता ने कांग्रेस-भाजपा की नीतियों व उनकी कथनी-करनी पर टिप्पणी नहीं की हैं? यदि इनकी उपलब्धियां और कथनी-करनी सकारात्मक होती, तो इन पार्टियों को लोकतंत्र को स्वाहा करने की जरूरत नहीं पड़ती।

इसलिए चुनाव के समय टिड्डियों के दल की तरह कांग्रेस-भाजपा निकलती है, वामदल नहीं। वामपंथ साल के 365 दिन और चैबीसों घंटे जन संघर्शों को गढ़ने और रचने में जुटा है। आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने की टाटा की नीति के खिलाफ भाकपा ही आगे रही है, कांग्रेस नहीं। आदिवासियों के मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ वामपंथ ही लड़ाई लड़ रही है, कांग्रेस नहीं। वनाधिकार कानून व रोजगार गारंटी कानून के क्रियान्वयन के लिए वामपंथ ही लड़ रही है, कांग्रेस नहीं। यही कारण है कि भले ही वामपंथ अपने संघर्शों व प्रभावों को सीटों में बदलने में सफल न हो पा रहा हो, लेकिन वामपंथ की मारक शक्ति से इस देष की राजनीति में उसकी प्रभावषाली भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। यही कारण है कि अलेक्स पाल मेनन के अपहरण के मामले में मनीष कुंजाम मध्यस्थ के रुप में स्वीकार किये जाते हैं। वे सरकार और माओवादी दोनों के बीच मध्यस्थ थे और भाजपा सरकार ने ही उन्हें हेलिकाप्टर उपलब्ध करवाया था। लेकिन इस मामले से आदिवासियों पर मुकदमों की समीक्षा के लिए जो समिति गठित की गयी, उसका काम फिसड्डी साबित हुआ तो इसमें भाजपा सरकार दोशी नहीं है? निदोश आदिवासी आज भी जेलों में हैं। तो मानवाधिकारों का हनन कौन कर रहा है? असलियत तो यही है कि नक्सल समस्या को बढ़ाने में भाजपा सरकार का बड़ा हाथ है। यदि नक्सली नहीं रहेंगे, तो भाजपा कहां रहेगी?

राजीव रंजन को वेब पोर्टल और फेसबुक पर कांग्रेस-भाजपा का प्रचार नहीं दिखता, लेकिन उन्हें यहां वामपंथ का ‘हवाई’ प्रचार जरूर दिख गया। वामपंथ को इस मीडिया पर आने के लिए क्या षर्मिंदा होना चाहिए? सभी जानते हैं कि कांग्रेस-भाजपा राज की कृपा मीडियाकर्मियों पर भले ही न हुयी हो, लेकिन मीडिया माफिया पर यह कृपा जमकर बरस रही है। मीडिया में चाटुकार पत्रकारों की एक ऐसी फौज तैयार हो गयी है, जो सच्चाई लाने के बजाय सत्ता पक्ष की बगलगीर रहने में अपनी भलाई देखती है। सत्ता की पक्षधरता अपना प्रभाव बढ़ाने और सुविधायें जुटाने का साधन बन गयी है। सामान्य मीडियाकर्मियों को उचित वेतनमान भी नहीं मिलेगा। साईं रेड्डी की नक्सली हत्या करेंगे, तो कमल ष्ुाक्ल को सत्ता जनसुरक्षा कानून की धौंस दिखायेगी। राजीव रंजन जी, अपने मित्रों के लिए कुछ तो कीजिए।

तो पार्टनर, वामपंथ अपनी जमीन तलाषने की कोषिष कर रहा है, इस तलाष में उसकी राजनीति की दिषा स्पश्ट है। यदि आप वामपंथ को गरियाना चाहते हैं तो उसके लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन जब हम बहस कर रहे हैं, तो आपको यह जवाब तो देना ही होगा--‘‘पार्टनर, तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है?’’