Sunday 26 July 2015

किसानों की बर्बादी = कंपनियों का मुनाफा


भाजपा के लिए किसान और निजी कम्पनियां एक ही हैं. ठेका खेती की ओर यह पहला कदम है कि निजी बीज कंपनियों से बीज उत्पादन कराया जाएं और इसके लिए सरकार इन कंपनियों को ठीक वाही सुविधाएं देना चाहती है, जिसे देने का दावा वह बीज उत्पादक किसानों के लिए करती है. और यह सभी जानते हैं कि गरीब बीज उत्पादक किसानों को कितनी और कैसी सुविधाएं मिलती हैं.सीधा अर्थ है कि ये सुविधाएं इन किसानों को देने के बजाए, उनसे छीनकर अब यह सुविधाएं निजी कंपनियों को दी जायेगी. सरकारी सुविधाओं से निजी कम्पनियां बीज उत्पादन करेगी, उसे मनमानी कीमत पर बेचेगी औए अपनी तिजोरियां भरेगी. बीज व्यवसाय पर आने वाले दिनों में 'कंपनी राज' स्थापित होने जा रहा है. इससे छत्तीसगढ़ की खेती को विकसित देशों की मर्ज़ी के अनुकूल मोड़ने का भी उन्हें मौका मिलेगा. इस प्रकार, ठेका कृषि का सन्देश स्पष्ट है -- गरीब किसानों की बर्बादी = कंपनियों का मुनाफा. भाजपा की इन्हीं किसान विरोधी नीतियों का नतीजा हैं कि राज्य में उसके 11 सालों के राज में 2000 से ज्यादा किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ी हैं. भुखमरी से मरने की खबरें तो अब आम हो गई हैं.

Saturday 25 July 2015

रेल बजट: न कुछ मिलना था, न मिला

लो जी, अब रेल बजट भी आ गया ...और भाड़े के टट्टू इसका गुणगान करने में भी लग गए है. जब तक आम जनता इस बजट को समझेगी और इसके दुष्परिणाम उस तक पहुंचेंगे, तब तक ये अपना काम कर चुके होंगे.
10 दिन पहले ही भाडा बढ़ाया गया है, सो अब इसकी हिम्मत तो नहीं थी, लेकिन ये जरूर याद दिलाया जा रहा है कि हमारी रेल के भाड़े चीन और अमेरिका जैसे विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है...और इसके लिए हमें मोदी का शुक्रगुजार होना चाहिए. वैसे समय-समय पर किराए की समीक्षा सरकार करती रहेगी, इसलिए आम जनता को चीन और अमेरिका के बराबर लाने के लिए बजट तक की प्रतीक्षा सरकार नही कराएगी, क्योंकि पहली बार वैश्विक सरोकारों वाला बजट देश को परोसा गया है!!
वैसे इस बजट की शब्दावली को पिछली कांग्रेसी सरकारों की बजट-शब्दावली से मिलाया जाये, तो ये स्पष्ट हो जायेगा कि जो दावे-घोषणाएं किये गए हैं, वे कितने और कब तक पूरे होंगे, ये तो राम जाने...लेकिन इसकी दिशा स्पष्ट है कि ये दिवंगत कांग्रेस सरकार की नीतियों का ही विस्तार है--उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की दिशा में. 10 रेलवे स्टेशनों को निजी हाथों में सौंपने और रेलवे में भारी-भरकम विदेशी निवेश से इसकी शुरूआत की जा रही है. इस से आने वाले दिनों में रेलवे में कटनी-छंटनी और बढ़ेगी तथा जनता की बुनियादी सुविधाएं और खस्ताहाल होगी.
न छत्तीसगढ़ को कुछ मिलना था, न मिला इस बजट में. न बस्तर रेल से जुडा, न सरगुजा को कोई सुविधा मिली. राज्य के भाजपाई मंत्रियो ने बजट से पहले दिल्ली तक की दिखावे की खूब दौड़ लगाई और यहां आकर खूब गाल बजाया था, लेकिन माया मिली न राम...सब चुप हैं जैसे ज़बान को लकवा मार गया हो. कोरबा को रायपुर से जोड़ने वाली इंटरसिटी एक्सप्रेस तक को शुरू नहीं करवा पाए. ले-देकर बिलासपुर-नागपुर सेमी-हाई स्पीड ट्रेन चलेगी, जिस पर रोजी-रोटी के लिए बाहर जाने वाली जनता तो पैर भी नहीं रख पायेगी.
वैसे ही, कांग्रेसी राज के भ्रष्टाचार और नौकरशाही पर लगाम लगाने की कोई योजना सरकार के पास नही है, क्योंकि यह बजट राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया है.

सेंसेक्स बड़ा या ह्यूमन इंडेक्स?


5 देशों के ब्रिक्स संगठन में भारत की यदि किसी से कोई टक्कर है, तो वह है-- दक्षिण अफ्रीका, जो हाल-फिलहाल ही स्वतंत्र हुआ है. जनसंख्या के मामले में भारत का स्थान भले ही चीन के बाद हो, लेकिन मानव विकास सूचकांक के मामले में वह सबसे नीचे है 0.554 के अंक के साथ, जबकि दक्षिण अफ्रीका का भी अंक 0.629 है. औसत उम्र के मामले में भी भारत केवल अफ्रीका से ही आगे है, जबकि ब्राज़ील के नागरिक भारतीय नागरिक की तुलना में औसतन 10 साल ज्यादा जीते हैं. शिक्षा-दर के मामले में तो भारत नीचे से पहले स्थान पर ही है.

सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) एक और पैमाना है विकास को नापने का, जिसका जोर-शोर से उपयोग यहां की सरकार करती है. लेकिन वैश्विक पैमाने पर भारत यहां भी फिसड्डी है और 120 करोड़ जनसंख्या वाला भारत केवल 1824.8 बिलियन डॉलर जी डी पी पैदा करता है और इस मामले में भी वह केवल दक्षिण अफ्रीका से ऊपर, चौथे स्थान पर है. लेकिन प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में यहां अफ्रीका ने भी भारत को पछाड़ दिया है. चीन और अफ्रीका में प्रति व्यक्ति जी डी पी क्रमशः 9161 तथा 11375 डॉलर है, तो भारत में मात्र 3829 डॉलर. ब्राज़ील और रूस तो खैर भारत से ऊपर है ही.

विश्व के पैमाने पर अपने पिछड़ेपन का अहसास दक्षिण अफ्रीका को है और इससे उबरने के लिए वह अपनी जी डी पी का लगभग 25% सरकारी खर्च के रूप में करता है; ताकि शिक्षा, रोजगार, आवास, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी मानवीय सुविधाओं का इंतजाम किया जा सके. ब्राज़ील का सरकारी खर्च अपनी कुल जी डी पी के 31% से ज्यादा है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी तमाम शेखियों के बावजूद भारत की वास्तविकता यही है कि यहां का सरकारी खर्च कुल जी डी पी का मात्र 15% ही है.

प्राकृतिक संसाधन और मानवीय क्षमता किसी भी देश की ताकत होती है. लेकिन दिवंगत कांग्रेस की सरकार हो या अभी की भाजपा सरकार, इनके लिए मानव विकास सूचकांक (ह्यूमन इंडेक्स) से ज्यादा अहमियत सेंसेक्स की रही है, जिसका निर्धारण लुटेरी देशी-विदेशी पूंजी और सटोरिया बाज़ार करता है. इस बेहूदे अर्थ-शास्त्र का ही नतीजा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सहस्त्राब्दी विकास रिपोर्ट ये बता रही है कि विश्व की कुल निर्धनतम आबादी की एक-तिहाई भारत में रहती है (--और अगर यह सच है तो ये आंकड़े मोदी सरकार द्वारा हाल में घोषित आंकड़ों से बहुत ज्यादा है--), दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत में बाल मृत्यु दर सबसे ज्यादा है तथा 0-5 आयु वर्ग के 14 लाख से ज्यादा बच्चे हर साल मर जाते है और हमारी युवा आबादी का 20% बेरोजगारी का दंश झेल रहा है.

ब्रिक्स के सम्मलेन में जब मोदी विश्व-नेताओं से हाथ मिला रहे थे, तो क्या उन्हें यह अहसास था कि यह हाथ कितना कमजोर और कुपोषित है? लेकिन शायद ऐसा अहसास उन्हें नहीं था और यही भारत का दुर्भाग्य माना जायेगा.

दो बजट, एक दिशा...




मोदी सरकार द्वारा पेश रेल बजट व केन्द्रीय बजट को बहुतों ने ‘दिशाहीन’ करार दिया है—खासकर संप्रग से जुड़े दलों ने. लेकिन इन दोनों बजटों की दिशा बहुत ही स्पष्ट है और पूर्ववर्ती कांग्रेस-नीत सरकार की नीतियों की संगति में ही है – और वह है निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की दिशा में. इस नीतिगत दिशा को वामपंथ ने खासतौर से रेखांकित किया है और इसीलिए मोदी सरकार को संप्रग-2 की सरकार का विस्तार भी कहा जा रहा है.

दोनों बजटों के तमाम ब्यौरे अब पूरी तरह से उजागर हो चुके हैं. बजट का मकसद केवल आय-व्यय का लेखा-जोखा रखना भर नहीं होता, बल्कि मुख्य मकसद तो यह बताना होता है कि राजकोष में आ रही आय का पुनर्वितरण किस तरह से किया जा रहा है. भारत जैसे विकासशील देश में, जो प्राकृतिक संसाधनों तथा मानवीय क्षमता से भरपूर है, लेकिन जहां गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा जैसी सामाजिक बीमारियों की जड़ें बहुत गहरी है, जहां आर्थिक असमानता बड़े पैमाने पर मौजूद है और इन बीमारियों व असमानता से पैदा हो रही चुनौती पहले के किसी भी समय के मुकाबले बहुत बड़ी है, आय का पुनर्वितरण ही बजट का मुख्य मकसद हो सकता है. इस नज़रिए से ये बजट पूर्ववर्ती सरकार की नीतिगत दिशा को ही बड़ी कठोरता से आगे बढ़ाती है, जबकि इस दिशा को संघ-भाजपा ने अपने अभियान में देश की रूग्णता के लिए जिम्मेदार ठहराया था.

‘पेट पर बेल्ट कसने’ का आह्वान और ‘देशहित में कठोर और कड़वे फैसले’ की बात करना हमारे देश के पूंजीपति-भूस्वामी शासक वर्ग की धूर्त चाल है. इन तर्कों को केंद्र में सत्तासीन हर पार्टी बखानती रही है. अटल सरकार ने भी ऐसे ही तर्क सामने रखे थे, मनमोहनसिंह ने भी यही किया था और अब इन्हीं धूर्त तर्कों को मोदी दुहरा रहे है. स्पष्ट है कि यदि आप देश के हितों को अम्बानी-अडानी-टाटा के हितों से एकमेक करते है, तो कठोर और कडवे फैसले उस बहुसंख्यक जनता के लिए ही होंगे, जो दिन-रात की मेहनत के बाद भी अपना पेट भरने में अक्षम है, लेकिन फिर भी बेल्ट उसी के पेट पर कसी जा रही होगी. दुर्भाग्य से ऐसा ही है.

वाकई में भाजपा सरकार देश की चिंता में दुबला रही है. जो काम पिछले दस वर्षों में करने का साहस कांग्रेस चाहते हुए भी नहीं कर सकी, वह काम डेढ़ महीने की मोदी सरकार ने कर दिखाया. ‘स्वदेशी’ का जाप करने वाली संघ-भाजपा ने रक्षा जैसा संवेदनशील क्षेत्र भी नहीं छोड़ा और 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी. रेल और बीमा में तो एफ डी आई आएगी ही. अब सार्वजनिक बैंकों के शेयरों को बेचकर भी सरकारी घाटे की प्रतिपूर्ति की जाएगी और इस प्रकार बैंकों पर सरकारी नियंत्रण तो ढीला किया ही जायेगा, पिछले दरवाजे से उसके निजीकरण का रास्ता भी साफ किया जायेगा.

लेकिन एफ डी आई और निजीकरण की लहर पर सवार ये सरकार हमारी अर्थव्यवस्था में कितनी विदेशी मुद्रा का प्रवाह करवा पायेगी, इस बारे में बजट चुप है और अतीत इतना मुखर कि ऐसे कदमों से हमारी अर्थव्यवस्था को कभी कोई ‘संजीवनी’ नहीं मिली. उलटे विदेशी पूंजी की सट्टाबाजारी ने देश की अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क़ ही किया है, उसे कमजोर व अस्थिर ही किया है. अब हमारे देश के बैंकों से ये आशा नहीं की जानी चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था के झटकों से वह इस देश की अर्थव्यवस्था को बचा लेगी.

लगभग 1.64 लाख करोड़ रूपये की कुल कमाई वाले रेलवे के पास 350 से अधिक परियोजनाएं लंबित है, जिसके लिए 1.82 लाख करोड़ रूपये की जरूरत है. ये परियोजनाएं चाहे किसी भी सरकार के समय बनी हो, आम जनता की यात्रा-सुविधाएं, सुरक्षा तथा संरक्षा से जुड़ी है.जबकि रेलवे की आय का 94% इसके संचालन में ही व्यय हो रहा है, रेलवे की बचत से ही इसे पूरा करने जाएँ, तो कम-से-कम 20 साल लगेंगे और तब तक हमें किसी अन्य परियोजना की परिकल्पना भी नहीं करनी चाहिए. लेकिन यदि आपके पास रेलवे में निवेश के स्रोत है, तो हमारी प्राथमिकता इन परियोजनाओं को पूरा करने की ही हो सकती है. लेकिन मोदी सरकार के लिए ‘देशहित’ इसमें निहित है कि रेल क्षेत्र में जिस विदेशी निवेश को लाया जा रहा है, उसके जरिये 60000 करोड़ रूपये की लागत वाली एक ‘बुलेट ट्रेन’ चलाई जाये!...और वे इसकी लागत उस आम जनता से वसूल करेंगे, जो सपने में भी ऐसी ट्रेनों में पैर नहीं रख सकती. इस सरकार के लिए ‘देशहित’ इसी में है कि खटारा ट्रेनों में झूलते-लटकते-मरते बढ़े किरायों के साथ सफ़र करें.

लगभग 18 लाख करोड़ रूपयों के आकार वाले केन्द्रीय बजट में विभिन्न मदों पर चना-मुर्रा के समान 50 करोड़, 100 करोड़ या 200 करोड़ रूपयों के आबंटन से यह तो साफ है कि सरदार पटेल की मूर्ति लगाने को छोड़कर और कुछ नहीं हो पायेगा. गाँवों को 24 घंटे बिजली आपूर्ति, खाद्यान्न उत्पादन की क्षमता बढ़ाने, शहरी महिलाओं की सुरक्षा करने, खेलों को प्रोत्साहित करने, लड़कियों को पढ़ाने, जलवायु परिवर्तन से होने वाली समस्याओ से निपटने – आदि के तमाम दावें थोथे वादें बनकर रह जाने वाले हैं. ‘देशहित’ में जनता को अभी गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, भुखमरी से निजात पाने और अपने जल, जंगल, जमीन व खनिज के बल पर ‘स्वदेशी विकास’ का सपना देखने को तिलांजलि दे देनी चाहिए. ‘देशहित’ में जरूरी है अभी उद्योगों का विकास -—और इसके लिए फिर से सेज को पुनर्जीवित किया जा रहा है: भूमि अधिग्रहण कानून, पर्यावरण कानूनों आदिवासी वनाधिकार कानून के प्रावधानों को कमज़ोर करके. इसके लिए मोदी सरकार के पास नए उद्योगों के लिए 10000 करोड़ रूपयों का फंड है, तो बिजली कंपनियों के लिए 10 साल तक ‘हॉलिडे टैक्स’ का उपहार भी. जिस काले धन को चुनावी मुद्दा बनाया गया था, उस पर अब संघ-भाजपा-मोदी खामोश है. लेकिन कांग्रेसी राज के समान ही पूंजीपतियों को टैक्स में भारी राहत जारी है और इस राहत भरे टैक्स में भी बिना अदा किये गए टैक्स की वसूली की कोई योजना नहीं है. यही राशि 10 लाख करोड़ रूपयों से ऊपर बैठती है.

18 लाख करोड़ के बजट में यदि 10 लाख करोड़ रूपये ‘देशहित’ में पूंजीपतियों को सौंप दिए जाएँ—-चाहे उपहार समझकर या फिर सब्सिडी कहकर—-तो खजाना तो खाली रहना ही है. आम जनता के लिए ये खजाना कांग्रेसी राज में भी खाली था, संघ-भाजपा के राज में भी खाली ही रहेगा.

इसीलिए जब इस वर्ष मानसून अनुकूल नहीं है, तब भी लोगों की रोजी-रोटी और अकाल से निपटने की समस्या इस सरकार की प्राथमिकता में नहीं है. मनरेगा जैसे कानून, जिसकी पूरी दुनिया में प्रशंसा हुई है -- बावजूद इसके कि इसमें तमाम खामियां हैं और क्रियान्वयन लचर – के खिलाफ इस सरकार का दृष्टिकोण सामने आ चुका है. आने वाले वर्षों में निश्चित ही इसकी वैधानिकता को ख़त्म करने का प्रयास किया जायेगा. लेकिन इस बार के बजट में भी मात्र 33990 करोड़ रूपये आबंटित किये गए हैं, पिछले वर्ष के बजट आबंटन से मात्र 990 करोड़ रूपये ज्यादा और मुद्रास्फीति के मद्देनज़र वास्तविक आबंटन पिछले बार से कम. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए, यदि औसत मजदूरी 200 रूपये प्रतिदिन ही मानी जाएँ, तो भी इस बजट आबंटन से 100 करोड़ मानव दिवस से ज्यादा रोजगार का सृजन नहीं हो सकता, जबकि वर्ष 2009-10 में भी 283 करोड़ श्रम-दिवसों (मनरेगा के इतिहास में सबसे ज्यादा) का सृजन किया गया था. स्पष्ट है की इस अकाल-वर्ष में पिछले वर्ष के मुकाबले बहुत कम रोजगार का ही सृजन होने जा रहा है.

योजना आयोग के खिलाफ भी मोदी सरकार का रूख स्पष्ट है और इसे ‘अलविदा’ कहने की तैयारी की जा रही है. केन्द्रीय बजट में भी इसकी झलक स्पष्ट दिखती है. इस देश के संतुलित विकास, सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता के लिए, केन्द्र-राज्यों के बीच संसाधनों व आय के वितरण व संघीय ढांचे की रक्षा की दिशा में ‘योजना’ की परिकल्पना बहुत ही महत्वपूर्ण है. लेकिन कुल बजट आबंटन में आयोजना व्यय का जो हिस्सा पिछले वर्ष 35% था, वह इस बार के बजट में घटकर 32% रह गया है. आने वाले वर्षों में इसमें तेजी से गिरावट होगी और ‘नियोजित विकास’ शोध की विषय-वस्तु बनने जा रही है. इसी प्रकार इस सरकार का अल्प-संख्यक विरोधी रूख भी स्पष्ट झलकता है. संप्रग सरकार ने पिछले वर्ष अल्पसंख्यकों की शिक्षा के लिए जहां 150 करोड़ रूपये आबंटित किये थे, वहीँ संघ-भाजपा सरकार ने अल्पसंख्यकों की शिक्षा को ‘मदरसा आधुनिकीकरण’ तक सीमित कर दिया है और मात्र 100 करोड़ रूपये ही आबंटित किये हैं.

...और यह तो सबको मालूम है कि बजट में जिस मद में जितनी राशि का प्रावधान किया जाता है, वास्तव में उतने का कभी उपयोग नहीं होता. कुल मिलाकर, ‘नियोजित विकास’ की उपेक्षा या विदाई का अर्थ है--- आम जनता की बुनियादी समस्याओं—पेयजल, आवास, रोजगार, सिंचाई—की अनदेखी और तिरस्कार. इस ‘विदाई’ का शोक-गीत अभी लिखा जाना बाकी है.

भाजपा बनाम कांग्रेस : तू-तू , मैं-मैं --- एक विकास विमर्श


--- हमारे राज के भ्रष्टाचार के खिलाफ मत बोलो , क्योंकि तुम्हारे राज में भी तो भ्रष्टाचार हुआ था . हमारे राज में राशन घोटाला हुआ है , तो तुम्हारे राज में भी तो चारा और टाटपट्टी घोटाला हुआ था . तुम कौन-से दूध के धुले हो ?
--- खरबों का भ्रष्टाचार करने वालों को अरबों के घोटाले पर बात नहीं करना चाहिए . ऐसा करना अनैतिक है 
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--- अनैतिक तो तुम्हारी सरकार थी , हमारी सरकार के पास तो नैतिकता का बल है . तुम्हारे पास बहुमत नहीं था , फिर भी भ्रष्टाचार करते रहे . हमारे पास स्पष्ट बहुमत है ... और अनैतिक बातों को हम सहन नहीं करेंगे
.
--- हमने भ्रष्टाचार किया , तो किया ; लेकिन इससे तुम्हें भ्रष्टाचार करने का अधिकार मिल जाता है क्या ? हमने भ्रष्टाचार किया , सो जनता ने हमें सजा दे दी . विपक्ष में बैठकर बुरे दिन तो देख ही रहे है . लेकिन जनता ने हमें अब भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने की जिम्मेदारी सौंपी है , सो इसे उजागर करने में अनैतिकता कैसी ?
--- अरे ! हम भ्रष्टाचार करेंगे , तभी तो तुम जनता द्वारा सौपी गई अपनी जिम्मेदारी पूरी करोगे ? इसलिए हमें भी अपनी जिम्मेदारी पूरी करने दो .
--- हमारे भ्रष्टाचार के खिलाफ तुम राष्ट्रपति के पास गए थे , तो तुम्हारे भ्रष्टाचार के खिलाफ हम राज्यपाल के पास तो जा ही सकते हैं .
--- अरे यार , सबको मालूम है , कोई हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकता .
--- ....लेकिन यार , जनता के बीच नूरा-कुश्ती खेलकर बेवकूफ तो बनाया ही जा सकता है.
--- हाँ , हां , तू-तू , मैं-मैं बंद करें ...और आओ , दोनों मिलकर भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार खेलें .
--- नहीं , नहीं , विकास-विकास खेलते हैं . देश-प्रदेश के विकास के लिए पक्ष-विपक्ष दोनों का साथ जरूरी है...
--- ठीक है , मैं सड़क बनाता हूं , तू डामर खा . मैं नहर बेचता हूं , तो तू भी पानी बेच . मैं बाँध बनाने का आर्डर देता हूं , तू ठेका ले . मैं पेट्रोल-डीजल की कीमत बढाता हूं , तू बस किराया बढ़ा . तू जंगल काट , मैं जमीन हड़प करता हूं . मैं विकास- विकास चिल्लाता हूं , तू भी भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्ला .
--- ठीक है , विकास-विकास खेलें और भ्रष्टाचार को पालें-पोसें .
--- हां , सब मिलकर बोलें : भ्रष्टाचार ही विकास की कुंजी है .

ये क्या गड़बड़झाला है ?

कोई विद्वत सुधिजन मुझे यह स्पष्ट करेगा कि बेरोज़गारी की दर और रोज़गार के अवसरों में क्या संबंध होता है तथा रोज़गार के अवसरों में कमी के बावजूद बेरोज़गारी की दर कम कैसे हो सकती है ?
मामला यह है कि छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार का दावा है कि पिछले पांच सालों में उसने एक लाख लोगों को नौकरियां दी है और छत्तीसगढ़ में बेरोज़गारी की दर देश में सबसे कम प्रति एक हज़ार व्यक्ति पर केवल 14 है !
जबकि इसी सरकार के आंकड़े ये बता रहे हैं कि 210-215 लाख की आबादी वाले छत्तीसगढ़ में रोज़गार दफ्तरों में आज 15 लाख से ज्यादा बेरोजगारों के नाम पंजीकृत है, जबकि रोज़गार कार्यालयों के माध्यम से 2006-13 के बीच केवल 13249 लोगों को रोज़गार मिला है. लगभग इतनी ही बेरोज़गारी गैर-पंजीकृत युवाओं में होगी.
संसद में पेश आंकड़ों के अनुसार, छत्तीसगढ़ में औद्योगिक उत्पादन 16.9% बढ़ा है, जबकि रोज़गार के अवसर घटकर प्रति हज़ार व्यक्तियों पर केवल 48 रह गए है. उत्पादन के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2010-11 में औसतन रोज़गार के अवसर प्रति हजार व्यक्तियों पर 126 थे.
रोज़गार मेलों के माध्यम से रोज़गार उपलब्ध करवाने के सरकारी दावों की पोल भी खुल गई है. जहां 2010-11 में इन मेलों के माध्यम से 12179 लोगों को रोज़गार उपलब्ध करवाया गया था, तो 2013-14 में गिरकर केवल 3000 ही रह गया था. स्थिति यह है कि 2010-14 के बीच हुए चार रोज़गार मेलों के माध्यम से केवल 26611 लोगों को ही काम मिला, जबकि रिक्त पदों की संख्या 81326 थी और आवेदकों की संख्या 3.54 लाख !!
तो मित्रों,
---लगभग 30 लाख की बेरोज़गारी
---सरकारी और निजी क्षेत्र में हजारों पद खाली
---राष्ट्रीय औसत की तुलना में रोज़गार के अवसरों की केवल एक-तिहाई उपलब्धता
---फिर भी सबसे कम बेरोज़गारी दर और उत्पादन में बढ़ोतरी !!!
ये क्या गड़बड़झाला है ?

हम सब फिलीस्तीन, हम सब भारतीय


वे सब फिलीस्तीनियों के साथ हैं:
---जो मानव जीवन की पवित्रता में यकीन रखते हैं
---जो नस्लीय और धार्मिक भेदभाव सहित भेदभाव के किसी भी रूप के खिलाफ हैं
---जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के और राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के शोषण के खिलाफ हैं और इस नाते साम्राज्यवाद को मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं
---जो इस्राइली हमले, आतंक और अतिक्रमण से मुक्त एक संपूर्ण, समग्र तथा संप्रभु फिलीस्तीन के पक्ष में हैं
---जो संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों, मेड्रिड सिद्धांत व अरब शांति पहल के साथ हैं
---जो यह मानते हैं कि युद्ध केवल तबाही और विनाश ही लाता है और हथियार-उद्योग को ही पालता -पोसता है, इसलिए एक टिकाऊ शान्ति के लिए हथियार-मुक्त विश्व का निर्माण करना जरूरी है
---जो दो राष्ट्रों के बीच युद्ध में किसी भी रूप में नागरिकों पर हमलों के खिलाफ हैं
फिलीस्तीन पर इस्राइली हमलों के खिलाफ विश्व-व्यापी विरोध प्रदर्शनों से यही बात साबित होती हैं कि इन विश्वासों पर जीने वाले लोगों का ही विश्व में बहुमत है. इसीलिए फिलीस्तीन जीतेगा, इस्राइल हारेगा.
भारतीय जनता का बहुमत भी फिलीस्तीनियों के साथ ही हैं, इसलिए केन्द्र में काबिज भाजपा/आर-एस-एस की सरकार को अपने रूख पर पुनर्विचार करना चाहिए. ब्रिक्स सम्मलेन में पारित भावनाओं का उसे सम्मान करना चाहिए, वरना इतिहास के कूड़ेदान में ही इन लोगों का भविष्य पड़ा मिलेगा.

....तो फिर फिलिस्तीनियों के लिए फिलिस्तीन क्यों नहीं?


यदि अमेरिका में रहने वाला अमेरिकी, इंग्लैंड में रहने वाला इंग्लिश और जर्मनी में रहने वाला जर्मन है, तो हिंदुस्तान में रहने वाला हिन्दुस्तानी होगा, न कि हिन्दू. लेकिन संघी गिरोह के प्रधान भागवत सभी भारतीयों और हिन्दुस्तानियों को हिन्दू मनवाने पर तुले हैं.
भाई साहब बड़ी चतुराई से छुपा ले जाते है कि इन सभी देशों में हिन्दुओं सहित सभी धर्मों के लोग रहते है और इनकी नागरिकता धर्म के आधार पर तय नहीं होती.
यदि हिन्दुओं के रहने मात्र से कोई भौगोलिक क्षेत्र हिन्दुस्तान बन जाता, तो इस पृथ्वी पर अमेरिका, इंग्लैंड और जर्मनी नहीं रहते. इसी प्रकार मुस्लिमों के रहने मात्र से कोई देश पाकिस्तान बन जाता, तो भारत, इंडोनेशिया और अरब जगत का भी अस्तित्व नहीं रहता.
लेकिन संघी गिरोह का ये तर्क नया नहीं है. ये भारत में हिन्दुओं को छोड़कर किसी भी धर्म के लोगों को रहने नहीं देना चाहते. इनका धर्म-शास्त्र कहता है कि भारत में रहने वाले अल्प-संख्यकों को हिन्दू धर्म की अधीनता मानकर दोयम दर्जे का नागरिक-जीवन बिताना होगा, या फिर इस देश को छोड़कर चले जाना होगा. इसीलिए सिख, जैन व बौद्ध धर्म को भी हिन्दू धर्म का अंग बताने की साजिश चल रही है.
ये शाब्दिक कुतर्क की आड़ में इस देश को 'हिन्दू-राष्ट्र' बनाने का धर्म-युद्ध लड़ रहे हैं 31% वोटों की बदौलत मिले संसदीय बहुमत की ताकत के साथ. भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद देश में जो धार्मिक-तनावों का ताना-बाना बुना जा रहा है, वह इसी घृणित खेल का हिस्सा है. नतीजन देश साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहा है और संघी गिरोह इस आग में आहुतियाँ डाल रहा है.
लेकिन इन ढोंगी राष्ट्रवादियों की तब चड्डीयां गीली हो जाती है, जब उनसे पूछा जाता है कि यदि, अमेरिकीयों के लिए अमेरिका, अंग्रेजों के लिए इंग्लैंड तथा जर्मनी के लिए जर्मन...तो फिर फिलिस्तीनियों के लिए फिलिस्तीन क्यों नहीं होना चाहिए? अपने चिर-परिचित मुस्लिम विरोध के कारण वे एक न्यायपूर्ण संप्रभु फिलिस्तीन राष्ट्र का विरोध कर रहे हैं और ब्रिक्स के सम्मलेन में फिलिस्तीन के पक्ष में जिस प्रस्ताव पर मोदी हस्ताक्षर करके आये थे, संघी गिरोह के इशारे पर उसी भावना का भारतीय संसद में भाजपा ने चीथड़े बिखेर दिए !!

भागवत भी और मोदी भी !!


भारत की जनता बदलाव चाहती थी और उसने चुनावों में बदलाव के पक्ष में निर्णायक ढंग से मत दिया. लेकिन कांग्रेस की जगह केन्द्र में आई संघ संचालित भाजपा सरकार क्या इस जनादेश का सम्मान करते हुए निर्णायक ढंग से ऐसा बदलाव चाहती है, जो आम जनता की जिंदगी बदल दें ?
वे कांग्रेस-मुक्त भारत चाहते हैं, कांग्रेस की सर्वनाशी नीतियों से मुक्त भारत नहीं ! असल में तो वे एक ' धार्मिक राष्ट्र ' चाहते है, साम्प्रदायिक दंगों-धार्मिक तनावों से मुक्त राष्ट्र नहीं !! वे एक ' हिन्दू भारत ' चाहते हैं, धर्मनिरपेक्ष हिन्दुस्तान नहीं !!! वे धर्मान्धता को बढ़ावा देने वाले ढोंगी साधुओं और अकर्मण्य शंकराचार्यों का भारत बनाना चाहते हैं, नानक-कबीर-रसखान-रैदास-आंबेडकर की ज्ञान की परम्परा को आगे बढ़ाने वाला भारत नहीं !!!!
वे ज्ञान और विवेक की हर बात पर पिघला सीसा डालकर हमारे संविधान को ही मनुस्मृति में बदलने के खेल में लगे हैं. वे 21वीं सदी का सबल और आत्मनिर्भर भारत नहीं, उस विकलांग पौराणिक भारत का निर्माण करना चाहते है, जहां अंधे-बहरे-गूंगे अवर्णों के कन्धों पर लंगड़े सवर्ण सवारी कर मजे लूट सके.
इसीलिए डॉ. आंबेडकरकी यह चेतावनी बहुत मौजूं है --" अगर इस देश में हिन्दू राज स्थापित होता है, तो यह एक बहुत बड़ी आपदा होगी. हिन्दू चाहे कुछ भी कहे, हिन्दू धर्म स्वतंत्रता का दुश्मन है. हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए."
तो उनका भारत पूंजीपतियों के लिए, पूंजीपतियों द्वारा शासित भारत है. गरीबों के लिए, मेहनतकशों द्वारा शासित जाति-मुक्त, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी भारत के सपने से ही उनकी चड्डीयां गीली होने लगती है.

जय श्रीराम, हो गया काम


नकली लाल किले से भाषण देते-देते मोदी पहुँच ही गए असली लाल किले पर. सुपरहिट रहा मोदी का भाषण. बजट पर पानी पी-पीकर मोदी-भाजपा को कोसने वालों को सांप सूंघ गया. सबकी बोलती बंद कर दी मोदी ने.
समझ में नहीं आ रहा कि मोदी खुद अपनी नीतियों का मजाक उड़ा रहे थे या फिर ये जन-विरोधी कार्पोरेटपरस्त नीतियां ही हैं, जो उनके 56 इंची मर्दाने सीने पर चढ़कर मूंग दल रही है.
आखिर फासिस्टों के भाषण ऐसे ही होते हैं !--यथार्थ से बिल्कुल अलग--अपनी जन-विरोधी नीतियों के दुष्परिणामों को छिपाते हुए !!--आम जनता को बहलाते हुए !!!
लेकिन अब भारतीय योजना को निर्णायक विदाई दे दी गई है. अब लूट का खेल और भी योजनाबद्ध ढंग से चलेगा. अब न योजना होगी, न उसकी समालोचना और न ही उसे क्रियान्वित करने का झंझट. अब तो ' विकास-विकास ' का शोर होगा और ' भ्रष्टाचार और लूट ' का खेल. अब ये शोर जितना ज्यादा होगा, इस खेल का उत्साह भी उतना ही ज्यादा होगा. अब न आंकड़ों को दिखने का झंझट, न रखने का. योजना आयोग के बाद भी कोई इस झंझट को पालने की कोशिश करेगा, तो ' राम-नाम ' की लूट तो है ही -- वह कब काम आएगी ? इसे ही कहते हैं -- जय श्रीराम, हो गया काम.
भारतीय जनता का काम तमाम होना ही था ! दिन दुगुनी, रात चौगुनी की रफ़्तार से हो रहा है. इस रफ़्तार पर कम्युनिस्ट ही ब्रेक लगा रहे हैं, वरना बीमा में एफडीआइ वाले विधेयक को दुर्दशा के ये दिन न देखने पड़ते ! तब ' कम एंड मेक इन इंडिया ' का उत्साह और कितना ज्यादा होता !!--तब ये सीधा नारा देते -- ' कम एंड सेल इंडिया टू मेक कमीशन ". ये कम्युनिस्ट न खुद खाते है, न बेचने देते हैं --दुनिया के सबसे पिछड़े जीव -- जो आज भी ' समाजवाद-समाजवाद ' चिल्ला रहे हैं. सत्यानाश हो इनका !!!

क्या मोदी में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने का साहस है ?


उन्होंने बिजली बनाने के लिए कोल ब्लाक लिया, लेकिन बिजली नहीं बनाई. उन्होंने लोहा का कारखाना लगाने के लिए कोल ब्लाक लिया, लेकिन कारखाना नहीं लगाया. उन्होंने सीमेंट उत्पादन के लिए कोल ब्लाक हथियाया, लेकिन सीमेंट का उत्पादन भी नहीं किया. केवल कोयला खोदा और लागत मूल्य से कई गुना ज्यादा भाव पर बाज़ार में बेचा और लाखों करोड़ रूपये मुनाफे में कमाए.
कोयला खोदने के लिए उन्होंने आदिवासियों को भगाया, उनके खेत और घर छीने और कोई मुआवजा भी नहीं दिया. उन्होंने जंगलों का सत्यानाश किया और पर्यावरण को बर्बाद किया. उन्होंने अनुसूचित क्षेत्रों में लागू तमाम संवैधानिक प्रावधानों को कुचला और संविधान को रद्दी किताब में बदल दिया.
बहुतों ने तो कोयला भी नहीं खोदा. इन कोल ब्लाकों को हथियाकर उन्होंने अपनी कंपनियों के शेयरों के भाव बढवाए. कुछ ने तो अपने लाइसेंस ही बेच दिए और भारी धनराशि बटोर ली....और यह सब किया अपने अकूत मुनाफे के लिए.
अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है. यह सब आबंटन हुए थे पैसों के बल पर और राजनैतिक पहुँच के आधार पर. चाहे कांग्रेस हो या भाजपा की सरकारें, किसी ने भी अपना ' दिमाग ' लगाने का काम नहीं किया. सबने इन पूंजीपतियों के गुलामों की तरह ही काम किया. इसलिए ये आबंटन अवैध हैं.
चूंकि ये आबंटन ही अवैध है, इसलिए इसके बाद की सारी प्रक्रियाएं ही अवैध हैं, चाहे वे किसी भी पक्ष द्वारा की गई हो. इसलिए कोयला बेचना गलत था और इसे बेचकर मुनाफा कमाना भी. इसलिए आदिवासियों का विस्थापन गलत था और जंगलों को काटकर पर्यावरण को बर्बाद करना भी. इसलिए संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन भी गलत था. ये तमाम गलत काम 'अपराध ' की श्रेणी में आते हैं और इन अपराधों के लिए इन लोगो पर मुक़दमा चलाया जाना चाहिये और उनकी कमाई और मुनाफे को जब्त किया जाना चाहिए. केवल यही नहीं, आदिवासियों के पुनर्वास और पर्यावरण बहाली का खर्च भी इन्हीं लोगों से वसूल किया जाना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का यही अर्थ है और इस आदेश को इसी तरह क्रियान्वित किया जा सकता है. लेकिन टाटा-अंबानी-अडानी-जिंदल-वेदांता की गुलाम मोदी सरकार में यह सब करने का साहस है ?

कृषि संकट और छत्तीसगढ़

कल 10 सितम्बर को विश्व आत्महत्या नियंत्रण दिवस था. एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि पिछले साढे तीन वर्षों (25 जनवरी 2011--31 अगस्त 2014) में छत्तीसगढ़ में 17890 लोगों ने आत्महत्याएं की हैं और यह राज्य तमिलनाडु और आन्ध्रप्रदेश के बाद देश में तीसरे स्थान पर है.
इन आंकड़ों का विश्लेषण बहुत कुछ कहता है. आत्महत्या करने वालों में 93% से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों के हैं. अधिकाँश आत्मघाती लोग 20-29 साल के नौजवान हैं. इनमे बेरोजगारों की संख्या ज्यादा थी. हर साल औसतन 5000 से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की हैं और उनमें से लगभग 2000 लोग किसान थे.
इसका सीधा अर्थ है -- छत्तीसगढ़ का ग्रामीण क्षेत्र, किसान और किसानी संकटग्रस्त हैं. यहां के लोग बेरोज़गारी से तंग आकर, फसल बर्बाद होने, लाभकारी मूल्य न मिलने और क़र्ज़ में फंसकर आत्महत्या कर रहे है. पिछले 10 सालों में भाजपा राज के दौरान यह संकट और गहरा ही हुआ है.
स्पष्ट है कि भाजपा के बडबोलेपन से लोगों को उनकी समस्याओं से और आत्मघात से छुटकारा नहीं मिल सकता. इसके लिए तो जनपक्षधर नीतियां चाहिए, जो अंधाधुंध मुनाफे की हवस पर आधारित निजीकरण और कारपोरेटीकरण पर लगाम लगायें. लेकिन ऐसी नीतियों को लागू करने का साहस न रमन सरकार में है और न मोदी सरकार में. आखिर इन्हीं देशी-विदेशी कार्पोरेटों की कृपा पर इनकी कुर्सियां जो सुरक्षित हैं.

जवाब दें संघी गिरोह....


सब जानते हैं कि पेट्रोलियम पदार्थों--पेट्रोल-डीजल-मिट्टी तेल-गैस की कीमतें बढ़ने से महंगाई बढती हैं और आम मेहनतकश जनता का जीवन-स्तर गिरता है.इसलिए इनकी कीमतें कम होती हैं, तो यह स्वागतयोग्य है.
लेकिन इससे पेट्रोलियम के संबंध में सरकारी नीतियों का खुलासा नहीं होता. सवाल बड़े ज्वलंत हैं, जिनका जवाब संघी गिरोह संचालित मोदी सरकार को देना चाहिए :
1. कच्चे तेल की कीमत 90 डॉलर प्रति बैरल के आसपास चल रही है. पिछले 17 सालों में यह सबसे कम कीमत है. यदि हमारे देश में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों का सीधा संबंध अंतर्राष्ट्रीय कीमतों से है (जैसा कांग्रेस-भाजपा दोनों तर्क देती है), तो इनकी कीमतें भी हमारे देश में 17 वर्ष पूर्व की दरों पर होना चाहिए. लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ ?
2. यदि अंतर्राष्ट्रीय कीमतों से ही पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें तय होती हैं, तो कई विकसित और विकासशील देशों में इनकी कीमतें हमारे देश से कम है. ऐसा क्यों ?
3. भारत सरकार कच्चे तेल का आयात करके शोधन करती है. फिर देश में उत्पादित पेट्रोल-डीजल-गैस-मिट्टी तेल की कीमतें घरेलू लागत मूल्य के आधार पर निर्धारित होनी चाहिए, न कि अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के आधार पर. लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो रहा ?
4. सभी पेट्रोलियम कंपनियों की बैलेंस शीट बताती हैं कि वे हजारों करोड़ रुपयों के मुनाफे पर चल रही हैं. लेकिन पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों के मामले में हमेशा अंडर-रिकवरी का रोना रोती हैं. अर्थशास्त्र के अनुसार, अंडर-रिकवरी आभासी घाटा होता है, न कि वास्तविक घाटा. फिर आभासी घाटे का बहाना इनकी मूल्य वृद्धि के लिए कहां तक जायज है ?
5. जिन कीमतों पर हमारे देश में पेट्रोल-डीजल-गैस-मिट्टी तेल बिकती हैं, उन पर 50% से ज्यादा तो सरकारी टैक्स ही होता है. यदि ये टैक्स कम कर दिए जाएँ, तो वर्त्तमान मूल्य से आधी कीमत पर आम जनता को ये चीज़ें मिल सकती हैं. इससे महंगाई पर भी काबू पाया जा सकता है. लेकिन ये टैक्स कम करने के लिए न मौनी बाबा राजी थे, न फेंकू महाराज राजी हैं. ऐसा क्यों ?
6. अंबानी विदेशों में 2 डॉलर प्रति इकाई की दर से गैस निकलने का काम करता है, लेकिन भारत में कई गुना ज्यादा दर वसूलता है. पहले कांग्रेस सरकार ने अंबानी के लिए गैस निकालने की दरों में बढ़ोतरी की, फिर फेंकू सरकार ने. यदि आम जनता को राहत देने, सब्सिडी के लिए सरकार का खजाना खाली है, तो अंबानी को लूटाने के लिए खजाने में पैसा कहां से आता है ? अंबानी की तिजोरी भरने के लिए आम जनता अपने पेट पर बेल्ट क्यों बांधे ?
आशा है, मोदी-भक्त गाली-गलौज नहीं करेंगे. इन सवालों पर तर्कपूर्ण बात रखेंगे, ताकि सार्थक बहस हो सकें.

चोर मचाये शोर....


कोल आबंटन को अवैध करार देने और आबंटन निरस्त करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस-भाजपा में तू चोर-तू चोर का खेल शुरू हो गया है. कोयला और बिजली का भारी संकट पैदा होने का डर फैलाया जा रहा है. दुष्प्रचार का शोर इतना तगड़ा है कि असली सवाल ओझल हो रहे हैं. जबकि हकीक़त यह है कि :
1. जिन 214 कोल ब्लाकों का आबंटन निरस्त किया गया, उनमें से केवल 44 ब्लाकों में ही कोयला की खुदाई हो रही थी. यदि इनकी सही तरीके से नीलामी हो जाएँ, तो उत्पादनप्रभावित ही नहीं होगा. इसलिए कोयला और बिजली संकट का हल्ला निराधार है.
2. भाजपा का यह तर्क कोई मायने नहीं रखता कि बाजपेयी सरकार पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार की नीतियों को ही लागू कर रही थी. भाजपा के पास इन अनैतिक नीतियों को खारिज करने का पूरा अधिकार था, लेकिन यदि वह ऐसा नहीं कर रही थीं, तो केवल इसलिए कि वह भी उदारीकरण-निजीकरण की उन्हीं नीतियों की समर्थक है, जिसका श्रीगणेश मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री रहते किया था. यह नीति देश की प्राकृतिक संपदा को पूंजीपतियों के हाथों पानी के मोल सौंपने की ही है.
3. एक ही उद्योगपति को सीमेंट, बिजली और इस्पात प्लांट स्थापित करने के नाम पर कई-कई कोल ब्लॉक सौंपे गए हैं, उनकी वास्तविक जरूरतों का आंकलन किये बिना. 1200 आवेदनकर्ताओं में से चंद पूंजीपतियों को ये कोल ब्लाक किस आधार पर बांटे गए, यह भी स्पष्ट नहीं हैं.
.4. इन पूंजीपतियों ने आबंटित कोल ब्लाकों का उपयोग अपने पांतों के लिए बहुत कम किया है. अधिक़तर ने प्लांट ही नहीं लगाये या अपने प्लांटो की जरूरत से ज्यादा कोयला खोदकर बाज़ार में उंचे भाव पर बेच दिया तथा अवैध रूप से अकूत मुनाफा कूटा. बहुतों ने तो कोयला की खुदाई ही नहीं की और इससे सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रूपये का नुकसान पहुँचाया. कैग के इस आंकलन की पुष्टि अब सुप्रीम कोर्ट ने भी कर दी है. इन लोगों ने कोल ब्लाक की ताकत के आधार पर अपनी कंपनियों के शेयरों के भाव बढाकर अवैध कमाई की. कुछ लोगों ने तो अपने लाइसेंस बेचकर ही मुनाफा कमा लिया. इस अवैध कमाई को वापस हासिल करने के मामले में कांग्रेस-भाजपा दोनों ही चुप हैं.
5. बिजली और इस्पात का प्लांट लगाने के लिए कोयला खदान विकसित करने के नाम पर इन कंपनियों ने बैंकों से लगभग 8 लाख करोड़ रुपयों का क़र्ज़ ले रखा है, जबकि कोल ब्लाकों में इन्होंने केवल 2 लाख करोड़ रुपयों का निवेश किया है. अब ये पूंजीपति बैंकों के इस क़र्ज़ को हड़पने के चक्कर में लगे हैं और दोनों पार्टियाँ मौन हैं.
6. इन बिजली कंपनियों ने एक यूनिट बिजली का उत्पादन 70-80 पैसे में किया हैं, लेकिन इन्होंने इसे बाज़ार में बेचा 6-8 रूपये प्रति यूनिट की दर से. इस प्रकार 10 गुना ज्यादा तक अवैध कमाई की. इस अवैध कमाई को सरकारी खजाने में लाने के मामले में दोनों पार्टियाँ खामोश हैं.
7. इस पूरे खेल में बड़े पैमाने पर आदिवासियों को उजाड़ा गया, जंगलों को बर्बाद किया गया, पर्यावरण का सत्यानाश किया गया. यदि आबंटन ही अवैध था, तो सरकारी मदद से ये कुकर्म करना भी अवैध ही था. इसलिए विस्थापित आदिवासियों को उनकी मूल जगह पर पुनर्वासित किया जाना चाहिए. पर्यावरण को सुधार जाना चाहिए और इस सबकी भरपाई इन पूंजीपतियों की तिजोरी से की जानी चाहिए. लेकिन दोनों पार्टियाँ इस अहम् सवाल पर चुप्पी साधे हुए हैं.
संघी गिरोह शोर मचाने की बजाय इन सवालों का तार्किक उत्तर देगा ?

वादा तो है रोजगार देने का, लेकिन काम...?


इस देश में कृषि का क्षेत्र सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है, जहां 50% श्रमशक्ति नियोजित है. लेकिन निवेश किया जाता है मात्र 4%. इसके बाद छोटे और मझौले उद्योग 44% रोजगार देते हैं, लेकिन इस क्षेत्र में भी निवेश होता है मात्र 16%. बड़े उद्योगों में 80% निवेश हो रहा है, जो केवल 6% रोजगार पैदा कर रहे हैं.
इसलिए फेंकू महाराज, देश के लोगों को रोजगार देने की चिंता है तो कृषि व लघु-मध्यम उद्योगों में निवेश करो, इसके लिए योजना बनाओ. लेकिन यहां तो बड़े उद्योग-धंधों में निवेश के लिए एफडीआई को न्यौता जा रहा है !!
किसी भी देश में विदेशी पूंजी स्वदेशी लोगों को रोजगार देने नहीं जाती, केवल मुनाफा कमाने जाती है. यह मुनाफा वह अपनी उन्नततम तकनीक, सस्ते श्रम, श्रम कानूनों के उल्लंघन और भ्रष्टाचार के जरिये ही अर्जित करती है. जितना अधिक वह आम जनता के श्रम को लूटेगी, उसका मुनाफा भी उतना ही बढेगा. यही कारण है कि 1991 के बाद उदारीकरण की जिन नीतियों को हमारे देश में लागू किया गया, उससे पूंजीपतियों का मुनाफा तो बढ़ा, सकल घरेलू उत्पाद में तो वृद्धि हुई, लेकिन न जनता को रोजगार मिला और न उसकी आय व क्रय-शक्ति में इजाफा हुआ. पूरा विकास 'रोजगारहीन विकास' का दौर रहा. आपका ' मेक इन इंडिया' बेरोजगारी को बढ़ाने और भारत को बर्बाद करने का अभियान है, न कि भारत को बनाने का.
उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों ने 94% रोजगार देने वाले कृषि व लघु-मंझोले क्षेत्र को तबाही के कगार पर पहुंचा दिया है. अब 'मेक इन इंडिया' के रैपर में लिपटी यही नीतियां इस क्षेत्र का सत्यानाश करने और देश की आर्थिक गुलामी को सुनिश्चित करने का काम करने जा रही है.
फेंकू महाराज, जिस आदमी को हमारे देश की अर्थव्यवस्था की बुनियादी समझ नहीं है, उसे इस देश का प्रधानमंत्री रहने का भी कोई हक नहीं है.

FDI -- First Develop India or Fast Destroy India ?


वे इंडिया को डेवलप करना चाहते हैं और इसके लिए 30 देशों की 300 से ज्यादा ईस्ट इंडिया कंपनी-जैसी कंपनियों को दावत दे रहे हैं. वे उन्हें आश्वस्त कर रहे हैं कि उनका निवेश यहां सुरक्षित रहेगा. इस दिशा में वे विदेशी निवेशकों को बता रहे है कि उनके रास्ते में आने वाली कानूनी बाधाओं को दूर किया जा रहा है.... और ये कानूनी बाधाएं क्या हैं?
इस देश के श्रम कानून इन निवेशकों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है. ये श्रम कानून उद्योगपतियों को इसकी इजाज़त नहीं देते कि मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दी जाएँ, कि उनसे निर्धारित 8 घंटों से ज्यादा काम लिया जाये, कि वे जब चाहे तब मजदूरों को काम से निकाल बाहर करें या कि यदि उन्हें कहीं और ज्यादा फायदा दिखें, तो उसी क्षण तालाबंदी कर दें. ये क़ानून मजदूरों को उनके अधिकारों की रक्षा के लिए हड़ताल पर जाने या काम बंद करने का भी अधिकार सीमित अधिकार देते हैं.
उनकी नज़रों में मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करने वाले ये तमाम कानून निवेश के रास्ते में आने वाली बाधाएं हैं. कार्पोरेटी मोदी इन सबको बदलने में तुले हुए है और राजस्थान की भाजपाई सरकार ने इसकी शुरूआत भी कर दी है. मजदूरों को उनके अधिकारों से वंचित करने को ही वे ' व्यवसाय-अनुकूल माहौल ' (business-friendly environment) बता रहे हैं.
विदेशी निवेशक खुश हैं. इतनी उदार तो उनके अपने देशों की सरकारें भी नहीं है. इसीलिये मोदी सरकार उनके लिए दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सरकार है, जो उनके लिए रेड कार्पेट बिछाने के लिए बिछी-बिछी जा रही है. ' अबकी बार--मोदी सरकार ' पर उनका दांव गलत नहीं था, जो इतनी तेजी से कांग्रेस के अधूरे एजेंडे को पूरा करने की उतावली में है.
यही है ' मेक इन इंडिया ' की असलियत ! ये इंडिया धनकुबेरों का इंडिया है, इंडिया की प्रोगेस इन्हीं धनकुबेरों की तिजोरियों को भरकर हो सकती है. लेकिन इस प्रोग्रेस में आम जनता के लिए वादों और दावों के सिवा हकीकत में कुछ नहीं हैं : न रोजगार, न बेहतरी.
विश्व बैंक की हाल की रिपोर्ट बताती है कि पूरी दुनिया में आर्थिक संकट बढेगा और इसके कारण रोजगार घटेंगे. लेकिन मोदी है कि देश के बेरोजगारों को रोजगार देने का झुनझुना पकड़ा रहे हैं. वैश्वीकरण की जिन नीतियों पर इतने सालों से अमल हो रहा है, उसने देश की जनता की तकलीफों को बढ़ाया ही है. अब मोदी ही जानें कि इन नीतियों पर और तेज़ अमल से देश की आम जनता समस्याओं से कैसे निजात पा सकती हैं ! स्पष्ट है कि ' मेक इन इंडिया ' की एफडीआइ तो पूंजीपतियों को मालामाल करेगी और गरीबों के लिए 'फ़ास्ट डिस्ट्रॉय इंडिया ' ही लाएगी.
ये कथित राष्ट्रभक्तों की एफडीआइ है दोस्तों !! इस पर कृपया शक न करें.

किसके सपनों का भारत बनाना चाहते हैं मोदी ?

किसके सपनों का भारत बनाना चाहते हैं मोदी ?....अमेरिकी नागरिकता प्राप्त धनकुबेर भारतवंशियों का या भारत के गरीब नागरिकों का ?
फेंकू महाराज, 17-18 लाख करोड़ के केन्द्रीय बजट में 6 लाख करोड़ रुपयों के टैक्स की छूट किसको दी गई है और मनरेगा के बजट में कटौती से किसको नुकसान होने वाला है ? जिस देश के वैज्ञानिक अपने यान को 4 रूपये प्रति व्यक्ति की लागत से मंगल की सैर करा देते है, उसी देश में तुम्हारी पेट्रोलियम कंपनियों की कृपा से इस देश के गरीब नागरिकों को 10 रूपये प्रति किलोमीटर के हिसाब से सफ़र कराते थोड़ी-सी भी शर्म नहीं आती ?
फेंकू महाराज, गेरुआ कोट पहनने से अमेरिका में कोई आधुनिक विवेकानन्द नहीं बन जायेगा !!! विवेकानंद बनने के लिए विवेक की जरूरत होती है...उसी विवेक की, जो स्वामी विवेकानंद की शोषित-उत्पीड़ित गरीबों के प्रति थी. उस नस्लीय भेदभाव के 'अविवेक ' की नहीं, जो तुम में कूट-कूट कर भरी हुई है. इस अविवेक का परिचय तो तुमने तभी दे दिया, जब सभा में उपस्थित लोगों को नवरात्रि की तो शुभकामनाएं दी, लेकिन ईद को भूल गए. क्या मुस्लिम तुम्हारी सभा में नहीं थे ? या अमेरिकी मुस्लिमों को भी तुमने ' पाकिस्तानी आतंकवादी ' मान लिया था ?? या फिर ये मुस्लिम तुम्हें दिखे ही नहीं ???
फेंकू महाराज, धर्म-निरपेक्ष अमेरिका में भी तुमने अपने साम्प्रदायिक चाल-चलन को दिखाकर इस देश की गरिमा को गिराने का ही काम किया है.

अरे भूल गए मोदीजी ? !!

' गांधीजी ने हमें आज़ादी दी, हमने उन्हें क्या दिया ?" -- फेंकू महाराज.
अरे भूल गए मोदीजी ? !!
पूरा देश उनको ' राष्ट्रपिता ' मानता है...सिवा संघी गिरोह के.
पूरा देश उनके चरणों में श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है...तुम उनकी समाधि पर जूते पहनकर चढ़ते हो.
पूरा देश उनको प्यार और आदर देता है...संघी गिरोह उनको गोलियां-गालियाँ देता है.
पूरा देश उनको हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक मानता है...तुम लोग उन्हें देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराते हो.
उन्होंने जातिभेद और अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई लड़ी...तुम वर्ण-व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हो.
उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव को फैलाया...तुम लव जिहाद फैलाते हो.
उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद को चुनौती दी, सफल लड़ाई लड़ी....तुमने अंग्रेजों की मुखबिरी की और आज भी अमेरिकी साम्राज्यवाद के तलुए चाट रहे हो.
पूरी देश-दुनियां आज भी गांधीजी की विचारधारा से जुड़ाव महसूस करती है...तुम इस विचारधारा को कहीं गहरे दफना देना चाहते हो.
....और क्या-क्या गिनाएं कि गांधीजी को देश ने क्या दिया...और तुमने और तुम्हारे संघी गिरोह ने क्या दिया ?
लेकिन साफ़ है कि अमेरिका में गांधीजी का नाम लेना, आज़ादी के आन्दोलन में उनका स्मरण करना, स्वच्छता अभियान का प्रणेता बताना तुम्हारी मजबूरी थी. लेकिन गांधीजी का नाम जपने से तुम लोगों के पाप धुलने वाले नहीं है. तुम्हारे जेहन में जो ' गोलवरकरीय
गोबर ' भरा है, वो तुम लोगों को नस्लीय भेदभाव और धार्मिक हिन्दू कट्टरता से ऊपर सोचने नहीं देता. न, तुममें इतनी हिम्मत नहीं कि धर्म-निरपेक्ष भारत के निर्माण के उनके योगदान का जिक्र कर सको और न ही इतना साहस कि उनकी साम्प्रदायिक सद्भाव की विरासत को याद कर सको. भगत सिंह को भी तुम ' सरदारों ' के चश्में से ही देख पाए, उनकी क्रान्तिजीविता के आधार पर नहीं.
संघी गिरोह के अंध-भक्तों, आज गांधीजी के बारे में मोदी के विश्लेषण के बारे में अपने उच्च विचारों से हमें अवगत कराएँ. यदि मोदी सही है, तो अपने सघी धर्म-ग्रंथों की होली जलाइये...और यदि नहीं, तो क्या मोदी को आडवाणी और जसवंतसिंह जैसी ही सजा देने की औकात तुममें बची है ?
....वरना तुम दोनों का ढकोसला तो पूरी देश-दुनियां के सामने है...इतिहास तुम दोनों पर केवल हंसेगा और थू-थू करेगा. सब जानते हैं कि सत्ता में बने रहने और धनकुबेरों की सेवा करने के लिए क्या-क्या ढकोसला नहीं करना पड़ता ?

सड़क की सफाई करने से पहले अपने मन की सफाई जरूरी

हमें संघी गिरोह के स्वच्छता अभियान से कोई बैर नहीं है. बैर तो कांग्रेस के अभियान से भी नहीं था, जो 2 अक्टूबर को झाड़ू हाथ में लेकर निकलती थी और कैमरों के फ़्लैश चमकने के साथ ही गायब हो जाती थी. उन्होंने भी गांधीजी को सफाई कर्मचारी में ही बदल दिया था. उन्हें भी गांधीजी की सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता से कोई लेना-देना नहीं था. यदि उन्हें देश और गांधीजी के प्रति थोड़ी भी श्रद्धा होती, तो बाबरी मस्जिद नहीं टूटती. इसलिए संघी गिरोह भी गांधीजी के नाम पर कुछ नाटक कर रहा है, तो यह तो उनका अधिकार बनता भी है. आखिर इस देश की ही जनता ने उन्हें चुनकर सत्ता में भेजा जो है !!
लेकिन संघियों, इस देश में दो-तिहाई लोग तुम्हारे विपक्ष में भी है, जिन्हें नाटक को नाटक कहने का अधिकार है. तुममें हिम्मत है, तो उनके सवालों के तर्कपूर्ण जवाब दो, गाली-गलौज मत करो.
यह किसी से छुपा नहीं है कि गांधीजी स्वच्छता-पसंद व्यक्ति थे, लेकिन वैसी स्वच्छता के नहीं, जैसी सत्ता में आते ही साथ तुमने पीएमओ की सफाई करके दिखाई है. इस सफाई अभियान में तुमने गांधीजी की हत्या, जिसे तुम बड़े गर्व से गाँधी-वध बताते हो, की फ़ाइलें भी साफ़ कर दी है. गांधीजी की सफाई कोई इवेंट नहीं था और न ही हाथ में झाड़ू लेकर उन्होंने कभी फ़्लैश चमकवाने का काम किया था. गांधीजी अपने हाथ से अपना शौचालय साफ़ करते थे और कल और आज जिन मंत्रियों के हाथों में झाड़ू थी, उनके शौचालय आज के दिन भी ' भंगियों ' ने ही साफ़ किये होंगे.
फेंकू महाराज, इस देश के सफाईकर्मियों की तुमको चिंता होती, तो वर्क-लोड बढ़ने के बावजूद उनकी संख्या कम नहीं होती और न ही उन्हें निजीकरण की वेदी पर बलि चढ़ाया जाता. इस देश के दलित आज सवर्ण ठेकेदारों की दया पर निर्भर होकर रह गए हैं और न्यूनतम मजदूरी से भी वंचित हैं. इन्हें स्थायी कर सम्मानजनक जीवन देने की तुमको कोई चिंता नहीं हैं. तुम्हारा संघी गिरोह आरक्षण का घोर विरोधी है, लेकिन मैला ढोने के काम में 100% आरक्षण दलितों के लिए ही है, तो क्यों ?
लेकिन गांधीजी केवल बाहरी सफाई के ही नहीं, अंदर की सफाई -- मन की सफाई -- पर भी जोर देते थे, इसीलिए सद्भाव और धर्म-निरपेक्षता उनका जीवन मन्त्र था, लेकिन सभी जानते हैं कि संघी गिरोह के मन में कितना मैल भरा हुआ है. तुम तो इस देश के गैर-हिन्दुओं को इस देश का नागरिक मानने के लिये तैयार नहीं हो. अपने मन के मैल की ही सफाई कर लेते प्यारों, तो कोई बाबरी मस्जिद नहीं टूटती और न गुजरात के दंगे होते, न हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश के. आज ही बड़ोदरा दंगे की आग से झुलस रहा है.
गांधीजी के विचारों के प्रति तुम कितने समर्पित हो, यह पूरा देश जनता है !! आज उनको जयंती पर तुमने उन्हें कैसी श्रद्धांजलि दी है, एक दूसरे पोस्ट में बता रहा हूं. इसीलिए गांधीजी का नाम रटने से और आज के दिन झाडू हाथ में लेकर सफाई का दिखावा करने से तुम्हारा साम्प्रदायिक दंगाई चेहरा बदल नहीं जाने वाला है. सड़क की सफाई करने से पहले अपने मन की सफाई कर लेते, तो इस देश का कुछ भला होता !!!!

गाँधी का नाम लेकर सफाई का नाटक

फेंकू महाराज, कचरा केवल वही नहीं है, जो हमारे घरों से निकलता है और जिसकी सफाई का नाटक आज तुमने किया है. इस देश-दुनियां में सबसे ज्यादा कचरा तो वो पूंजीपति और साम्राज्यवादी देश व कार्पोरेट कम्पनियाँ फैला रही हैं, जिन्होंने अपने मुनाफे की हवस में पर्यावरण और जैव-विविधता को नष्ट कर दिया है, जो जंगलों को काट रहे हैं और प्राकृतिक संपदा पर कब्ज़ा कर रहे है, जो अपने कारखानों का गन्दा पानी नदियों में डाल रहे है और उसकी राख आदिवासियों की जमीन पर उड़ेलकर उसे बंजर कर रहे हैं, जो तय मानकों का पालन किये बिना, क़ानून को अपने पैरों तले कुचल रहे हैं और जिनको तुम रेड कार्पेट बिछाकर स्वागत का लालच दे रहे हो.
तुम्हारी गंगा-जमुना के अपवित्र होने का यही कारण है. इस देश की बीमारियों का भी यही कारण है. यही कारण है हमारे देश की जलवायु के गड़बड़ होने का. इस देश के पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और आदिवासी समुदायों की विलुप्ति का भी यही कारण है. इस गड़बड़ी को झाड़ू बुहारकर दूर नहीं किया जा सकता और ना रामदेवी योग से, जैसा तुमने संयुक्त राष्ट्र संघ में सुझाया है.
यदि थोड़ी सी भी ईमानदारी बची हो, तो अपनी कार्पोरेटपरस्त नीतियों को बदलो. धनी देश जो पर्यावरण बिगाड़ रहे हैं, उन पर रोक लगाने की मांग करो, यूनियन कार्बाइड जैसी जो कम्पनियाँ इस देश का सत्यानाश कर रही हैं, उन्हें बंद करवाने का काम करो, देशी-विदेशी जो कम्पनियाँ हमारे देश को लूटने के लिए आ रही हैं, उन्हें रोको, गरीबपरस्त नीतियों पर अमल करो और उनकी भलाई के लिए अमीरों पर टैक्स लगाओ, गरीबों को सब्सिडी दो.
है ऐसा करने की हिम्मत? यदि नहीं, तो गाँधी का नाम लेकर सफाई का नाटक करने की जरूरत नहीं...सब लोग देख रहे हैं कि जिस गाँधी ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद का डटकर मुकाबला किया, उन्हीं के हत्यारे गिरोह का प्रधानमंत्री किस तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद के चरणों में नतमस्तक है और उसकी कंपनियों को देश लूटने के लिए बुला रहा है.

साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है

वाल्मिकी रामायण और तुलसीदास के रामचरित मानस के कथा-प्रसंगों में बहुत अंतर है. इसी प्रकार विभिन्न देशों में विविध राम कथाएं प्रचलित है. इन राम कथाओं में अलग-अलग पात्रों का चरित्रांकन भी अलग-अलग हैं. हमारे देश में भी उत्तर में राम की पूजा होती हैं, तो दक्षिण में रावण पूजनीय हैं. छत्तीसगढ़ के देवभोग क्षेत्र में रावण का वध राम नहीं करते, बल्कि 13 देवियाँ करती हैं.
रामलीला का स्वरुप भी लगातार बदलता रहा हैं. आज ही एनडीटीवी में रविश कुमार ने एक जबरदस्त स्टोरी पेश की है.रामलीला के पात्र जरूरी नहीं कि हिन्दू ही हों, बल्कि बड़ी संख्या में मुस्लिम कलाकार भी इस लीला से जुड़े हैं. कुछ कलाकार तो पुश्तों से लीला में काम कर रहे है. कुछ की रोजी-रोटी इससे जुड़ी है, तो अधिकाँश की श्रद्धा. उनका मुस्लिम होना इस काम में आड़े नहीं आता, ठीक वैसे ही जैसे हमारा हिन्दू होना ईद में उनके यहाँ जाकर बिरयानी या सेवई खाने में बाधक नहीं होता. रामलीलाओं के आयोजन में मुस्लिम तरह-तरह से जुड़े हैं.
आज की रामलीलाओं में ऐसे-ऐसे पात्र मिल जायेंगे कि रामायण या मानस में उनका कहीं उल्लेख नहीं, उन पात्रों का अभिनय इतना मसखरी भरा होगा कि आप हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएँ. लीलाओं में इतनी नाटकीयता और ऐसे संवाद कि पूरा मनोरंजन. हिन्दू लीला में मुस्लिम संगीत. संघी गिरोह की नज़र शायद इस बदलती लीला पर नहीं पड़ी है वरना बवाल मच जाएँ, उनकी धार्मिक आस्था का पूरा कचूमर निकल जाएँ.
मित्रों,यही इस देश की बहुलतावादी संस्कृति है, जो लम्बे समय से बह रही है. इस बहाव को किसी हिन्दू या मुस्लिम संस्कृति के नाम से अवरूद्ध नहीं किया जा सकता. संघी गिरोह के नफरत फैलाने वाले लोग भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. वे बस संस्कृति के नाम से राजनीति कर सकते है !!...सांप्रदायिक राजनीति. प्रेमचंद ने तो बरसों पहले ही आगाह कर दिया था --" साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है." यदि इस देश की विविधतापूर्ण रामलीलाओं को जिन्दा रखना हैं, तो इस खाल को खींचकर उनकी साम्प्रदायिक राजनीति को बेनकाब करना होगा.

गरीबों के मोदी और मोदी की ' गरीबी रेखा '


याद है आपको, जब मौनी बाबा के योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में गरीबी रेखा के संबंध में हलफनामा दिया था, तो भाजपा और संघी गिरोह ने कितना विधवा-विलाप किया था? अब रंगराजन समिति ने इस संबंध में अपनी नयी रेखा मोदी सरकार को सौंप दी है, जिसके अनुसार ग्रामीण इलाकों में 32 रूपये तथा शहरी इलाकों में 47 रूपये प्रतिदिन प्रति व्यक्ति से ज्यादा कमाने वाला गरीब नहीं माना जायेगा....और ऐसे लोगों की संख्या हमारे देश में 36.3 करोड़ से ज्यादा है -- याने हमारी आबादी का 30% से ज्यादा. मजे की बात यह है कि रंगराजन समिति की इस सिफारिश को मोदी सरकार ने स्वीकार कर लिया है.
1973-74 में योजना आयोग ने औसत कैलोरी पोषण आहार के आधार पर ग्रामीण इलाकों के लिए 49.09 रूपये तथा शहरी इलाकों के लिए 56.64 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति माह की गरीबी रेखा तय की थी. यदि औसत 10% की वार्षिक मुद्रा-स्फीति की दर ही मान ली जाएं, तो वर्ष 2014 में यह रेखा क्रमशः 2220 रूपये तथा 2560 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति माह बैठेगी. इन 40 सालों में इतनी महंगाई बढ़ गई, मंत्रियों-संत्रियों और सरकारी कामचोरों की कई गुना तनख्वाह बढ़ गई, ठेकेदारों और राजनेताओं की संपत्तियों में सैंकड़ों गुना वृद्धि हो गई...लेकिन गरीबी नापने का पैमाना नीचे-से-नीचे खिसककता गया. मोदी और रंगराजन के अनुसार, गरीबों को गांवों और शहरों में जिन्दा रहने के लिए क्रमशः 972 रूपये और 1407 रूपये पर्याप्त है....और इस राशि में पोषण आहार के साथ ही गैर खाद्य आइटम तथा कपड़ा, मकान, परिवहन व शिक्षा का खर्च भी शामिल है.
रंगराजन समिति का आंकलन और 1973-74 में योजना आयोग के आंकलन के आधार पर जो वास्तविक प्रक्षेपित गरीबी रेखा बनती है, उसका चार्ट मैं नीचे दे रहा हूं. इस वास्तविक आंकलन में गैर-खाद्यान्न मदों पर जो खर्च है, उसे पोषण आहार के रंगराजन समिति द्वारा तय प्रतिशत के अनुपात में ही प्रक्षेपित किया गया है.
...............1.-रंगराजन समिति का आंकलन .......... 2- प्रक्षेपित आंकलन
.......................1-ग्रामीण............... 2-शहरी ......... 3-ग्रामीण..... 4-शहरी
1- पोषण-आहार .....554 ............... 656.................2220.......... 2560
2- कपड़ा, शिक्षा, ....141(25.5%)... 407(62%)........565...........1588
मकान व परिवहन आदि
3- गैर-खाद्य आहार..277(50%)...... 344(52.4%)...1110 ..........1342
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कुल (रूपये में).......972 ................1407............... 3895.......... 5490
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तो भारत सरकार के आंकड़ों के ही अनुसार गरीबी रेखा का प्रक्षेपित आंकलन ग्रामीण व शहरी भारत के लिए क्रमशः 3895 रूपये और 5490 रूपये होता है. इसका मतलब है कि देश की 80% आबादी वास्तव में गरीबी रेखा के नीचे ही जी रही है, लेकिन मोदी इसे मानने के लिए तैयार नहीं है. स्पष्ट है कि रंगराजन समिति के साथ मिलकर मोदी सरकार देश की जनता के साथ धोखाधड़ी कर रही है.
एक औसत भारतीय परिवार में 4-5 लोग होते हैं. अब यदि न्यूनतम मजदूरी 15000 रूपये प्रति माह की मांग की जा रही है, तो इसमें गलत क्या है?....लेकिन मोदी अपनी 'गरीबी रेखा ' से टस-से-मस नहीं होने जा रहे हैं.

वादे हैं, वादों का क्या...


वादा तो धान के एक-एक दाने को खरीदने का था, वादा तो न्यूनतम समर्थन मूल्य 2100 रूपये प्रति क्विंटल और ऊपर से 300 रूपये प्रति क्विंटल बोनस देने का था. वादा तो हमारे खेतों को सही कीमत पर खाद-बीज-बिजली-पानी-दवाई देने का भी था. लेकिन ये चुनावी वादे ही तो थे. लोकसभा के चुनावों में फेंकू महाराज ने भी किसानों के लिए घूम-घूमकर आंसू बहाए थे. लेकिन वो भी चुनावी आंसू ही तो थे. ऐसे वादों और आंसूओं का चुनावों के बाद कोई अर्थ भी होता है, जिसकी परवाह की जाएँ ?
ऐसे वादों का कोई अर्थ होता, तो वादे तो अटलबिहारी की सरकार ने भी किये थे. उन्होंने ही अपने वादे को कहां याद रखा था ? उन्हें ही कौन-सी परवाह थी किसानों की कि मोदी ही अपने वादों की परवाह करें ? यदि ऐसा ही होता, तो अटलबिहारी कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबन्ध को नहीं हटाते और देश की कृषि-व्यवस्था को चौपट करने के लिए धनी देशों के आगे घुटने नहीं टेकते. यदि ऐसा ही होता, तो अकाल से मर रही जनता को सस्ते में अनाज आबंटित करने की जगह सुअरों को खिलाने के लिए 3 रूपये किलो की दर से अमेरिका को गेहूं नहीं बेचते. उन्हें ही यदि जनता की परवाह होती, तो क्यों वे खाद-बीज-बिजली-पानी-दवाई की सब्सिडी में कटौती करके उन्हें महंगा करते ? जब अटल बिहारी ने ही आम जनता और किसानों की नहीं सोची, तो फिर से मोदी के संघ-भाजपा को चुनकर आज उससे अपना वादा पूरा करने की मांग जनता क्यों कर रही हैं ? आम जनता तो सरासर राजनैतिक बेईमानी कर रही है !! इस जनता में कुछ ' नैतिकता ' भी बची है या नहीं ?
तो मित्रों, मोदी भी तो अटल बिहारी और दिवंगत कांग्रेस सरकार के नक़्शे-कदमों पर ही चल रहे हैं. यदि किसानों का पूरा अनाज सरकार खरीद लें, तो अमेरिकी अनाज के लिए देश में बाज़ार कहां से बनेगा ? यदि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाएँ, तो मगरमच्छ अनाज-व्यापारी जिंदा कैसे रहेंगे ? यदि वायदा-व्यापार पर रोक लग जाएँ, तो अनाज-सटोरियों का क्या होगा ? यदि किसानों के लिए सही कीमत पर खाद-बीज-दवाई का इंतजाम सरकार ही कर दें, तो संघी गिरोह को चंदा देने वाले कालाबाजारिये कहां से कमाएंगे ?
इस गिरोह को तो सबको साथ लेकर चलना है. किसानों को भी और हरामखोरों को भी. इस गिरोह के पास सबको देने के लिए कुछ-न-कुछ है. किसानों के लिए वादें हैं, तो हरामखोरों के लिए तिजोरी भरने के लिए रास्ते. देश को देने के लिए कंगाली है, तो अमेरिका को देने के लिए पूरा देश.
तो मित्रों, मोदी और रमन की नीयत पर कोई सवाल खड़े ना करो यार. उनसे मत पूछो कि किसानों की जमीन के पंजीयन का लफड़ा क्यों ? क्या गांव के पटवारी के पास जमीन का रिकॉर्ड नहीं है ? उनसे मत पूछो कि तुम्हारे मोदी ने कृषि लागत और मूल्य निर्धारण आयोग की सिफारिशें ठुकराकर किसानों को फसल के लाभकारी मूल्य से क्यों वंचित कर दिया और रमन सरकार ने चूं तक क्यों नहीं की ? मत पूछो यारों रमन से कि पिछले साल के बोनस के पूरे पैसे अभी तक क्यों नहीं मिले और इस साल की बोनस घोषणा पर अब तक चुप्पी क्यों ? मत पूछो कि किसानों को दी जाने वाली बिजली महंगी और कारखानेदारों को दी जाने वाली बिजली सस्ती क्यों? मत पूछो कि पिछले साल 80 लाख टन धान खरीदी का दावा करने वाली रमन सरकार के किसने और क्यों हाथ बांध दिए हैं कि इस साल वह 50 लाख टन धान भी खरीदने के लिए तैयार नहीं. ये भी मत पूछो कि सरकार अनाज खरीदी इसी तरह ख़त्म कर देगी, तो इस देश की खाद्यान्न सुरक्षा का क्या होगा ? तब क्या इस देश की जनता का पेट भरने के लिए अमेरिका आएगा ?
.... और स्वामीनाथन के राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बारे में तो पूछो ही मत. इस देश की राष्ट्रभक्त सरकार को आयोगों से सख्त चिढ़ है. फिर चाहे वो योजना आयोग हो या स्वामीनाथन आयोग. और जिस बात से सरकार यानि संघी गिरोह को चिढ़ हो, उस बात से चिढना हर राष्ट्रभक्त नागरिक का परम कर्तव्य है ...वरना मुठभेड़ों में आतंकवादी या नक्सलवादी बताकर मारे जाओगे !!
तो फेंकू महाराज और लबरे रमनजी, तुम दोनों मिलकर हमारी सब्सिडी में कटौती करो, हमें कुछ नहीं कहना. तुम दोनों हमारे पेट पर लात मारो, तो हम खुश. तुम हमारा गला काटो, तो और-और ज्यादा खुश. आखिर देश के विकास का मामला है. और जो देश के विकास के साथ नहीं है, वो सबके विकास के साथ नहीं है. जो सबके विकास के साथ नहीं है, वो अमेरिका के साथ नहीं हैं. जो अमेरिका और संघी गिरोह के साथ नहीं हैं, वो या तो आतंकवादी है या नक्सली....और उसका हश्र तय है. इसके लिए गुजरात या बस्तर जाने की जरूरत नहीं हैं.

धन्य हैं रमन-मोदी की दूरदृष्टि !!!


छत्तीसगढ़ में सहकारी बैंकों द्वारा प्रति एकड़ 14 हजार रूपये का कृषि ऋण दिया जाता है. जब किसान सोसायटियों में अपनी फसल बेचता है, तो उसको देय राशि से यह ऋण समायोजित कर लिया जाता है तथा बची हुई रकम का ही भुगतान होता है.
अब यदि प्रति एकड़ 10 क्विंटल धान ही खरीदा जायेगा, तो पूरी राशि ऋण में ही समायोजित हो जाएगी और किसानों के हाथ में आएगा शून्य. यदि किसान इससे बचना चाहेगा, तो बैंकों का डिफाल्टर बनेगा और अगले साल उसका खेती करना मुश्किल. मंडियों तक उसकी पहुँच हैं नहीं, या फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना सुनिश्चित नहीं है. ऐसे में वह औने-पौने भाव पर बिचौलियों को ही अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर होगा. इसलिए अब सोसाइटी में जाएं या फिर जाएँ मंडी में, दोनों तरफ से किसानों की तबाही तय है.
तो मित्रों, रमन सरकार के इस फैसले के बहुत दूरगामी परिणाम होने वाले हैं. किसानी घाटे का सौदा होगी, तो वे अपनी जमीन का मोह छोड़ेंगे, इससे कार्पोरेटों को उनकी जमीन हड़पने में सुविधा होगी. पूंजीपतियों के पास जमीन जाएगी, तो उद्योग-धंधे लगेंगे, बिल्डिंगें बनेंगी, इससे प्रदेश के विकास की रफ़्तार तेज होगी और प्रदेश का जीडीपी बढेगा. जीडीपी बढ़ेगी, तो कागजों में प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी और विज्ञापनों में यह दावा किया जा सकेगा कि प्रदेश की जनता खुशहाल है. विज्ञापनों में खुशहाली दिखेगी, तो किसानों की बदहाली पर कौन रोयेगा, जो वैसे भी इस प्रदेश के विकास में बाधक बने हुए हैं.
अब यह ना कहो कि इससे प्रदेश में उत्पादन घटेगा या फिर किसान आत्महत्याओं में बढ़ोतरी होगी. हमारे देश के लोगों को खिलाने के लिए अमेरिका में भरपूर उत्पादन हो रहा है, हम तो केवल उसको बाजार दे रहे हैं. वैसे भी हमारे यहां कृषि भूमि का रकबा घटने के बावजूद महाराष्ट्र, आन्ध्र तथा ओड़िशा की कृपा से उत्पादन बढ़ रहा है कि नहीं?...और किसान आत्महत्याओं के आंकड़े तो हमने चमत्कारी ढंग से शून्य कर ही दिए हैं. आगे तो न रहेंगे किसान और न रहेंगी किसान आत्महत्याएं.
रमन-मोदी राज के हे सौभाग्यशाली छत्तीगढ़वासियों, रमन-मोदी दोनों की दृष्टि बहुत दूर तक की है. यह दिव्य-दृष्टि उन्हें दिवंगत कांग्रेसी राज से ही मिली है. इस दिव्य-दृष्टि का नाम है निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण. यह नीति ही छत्तीसगढ़ को पूंजीपति-कार्पोरेटों का और भारत को अमेरिका का सिरमौर बनाएगी. अमेरिका खुश होगा तो हमें भी खुश होने का मौका मिलेगा, वरना....!!!??? आप तो जानते हैं, कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है...और यहां तो हम किसानों की बदहाली ही खो रहे हैं!!!

वक्त की जरूरत है, आनुपातिक चुनाव प्रणाली.


' भारत में चुनाव सुधार के लिए अभियान ' पर एक सार्थक परिचर्चा का आज आयोजन हुआ. भारत में संसदीय प्रजातंत्र को ' बहुमत के शासन ' के रूप में परिभाषित किया जाता है. लेकिन सवाल यही है कि बहुमत के इस शासन को सुनिश्चित कैसे किया जाए? क्या यह अवधारणा बहुसंख्यक हिन्दू हितों का ही प्रतिनिधित्व करती है और इस अवधारणा में अल्पमत का विलगाव निहित है?? क्या बहुमत का यह शासन हमारे देश की व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-भाषाई विविधता तथा वर्गीय हकीकत को प्रतिबिंबित करता है???
यह सवाल इसलिए कि आज केन्द्र में एक ऐसी पार्टी की सत्ता है, जिसका चरित्र मूल रूप से दक्षिणपंथी सांप्रदायिक पार्टी का है और जो केवल हिन्दू-हितों की दुहाई देती रहती है. इसलिए इस सरकार से धर्मनिरपेक्षता का सही तरीके से पालन करने की आशा ही नहीं की जा सकती, जबकि धर्मंनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय हमारे गणतंत्र की बुनियाद है. इस बुनियाद को कमजोर करने का खेल शुरू हो चुका है. इस पार्टी के पास केवल 31% वोट ही है, जबकि सीटों का पूर्ण बहुमत उसे प्राप्त हो गया है. अपने गठबंधन के मित्रों के साथ भी उसे केवल 38% वोट प्राप्त है, जबकि कुल सीटों की लगभग दो-तिहाई सीटों पर वह काबिज है.
आज़ादी के बाद इतने कम वोटों से पहली बार कोई सरकार बनी है. इस पार्टी और गठबंधनके पास कोई वैकल्पिक नीतियां भी नहीं हैं और वह कांग्रेस की ही नीतियों को बड़े जोर-शोर से लागू कर रही है.इसके निर्वाचित 282 सांसदों में से एक भी मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं है. 237 करोडपति सांसद हैं.
पूरे चुनाव अभियान के दौरान संसदीय प्रजातंत्र को हाशिये में डाल दिया गया था और पूरी कुश्ती मोदी बनाम राहुल तक सीमित कर दी गयी थीं.यह दोनों पार्टियों के हित में भी था कि नीतियों पर आम जनता के बीच कोई बहस न चल पायें. दो मुर्गों के बीच की लड़ाई में तो जनता पूरी तरह ' तमाशबीन ' बनी रहें. कार्पोरेट मीडिया ने इस मुर्गा-लड़ाई को इस तरह दिखाया, जैसे राष्ट्रवादियों का भारत-विजय अभियान चल रहा हो,इसके चलते छोटे दल और निर्दलीय लगभग हाशिये पर या खेल के मैदान से ही बाहर थे,
नतीजा यह रहा कि उत्तरप्रदेश में बसपा के वोट प्रतिशत बढ़ने के बावजूद उसे कोई सीट नहीं मिल पाई. यही हाल ' आप ' जैसी पार्टी का हुआ, जिसे 2% वोट मिलने के बावजूद केवल 4 सीटें ही मिल पाई. पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को 30% वोट मिलने के बावजूद उन्हें केवल 2 सीटें ही मिली .
यदि इस बार विभिन्न पार्टियों को मिले मतों को आनुपातिक ढंग से सीटों पर प्रक्षेपित किया जाएँ, तो कांग्रेस को 105, भाजपा को 169, माकपा सहित विभिन्न वामपंथी पार्टियों को 22, बसपा को 23, अन्नाद्रमुक को 13 तथा तृणमूल कांग्रेस को 21 सीटें मिलतीं और भाजपा बहुमत से कोसों दूर रहती.
इसीलिए अब वक्त का तकाजा है कि व्यापक रूप से चुनाव-सुधार हो और इसमें आनुपातिक प्रणाली अपनाई जाये.
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कही हैं निगाहें और निशाना कही और...

खाड़ी और अरब जगत के देशों के पास बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन तेल ही है. इसी तेल पर कब्ज़ा करने के लिए अमेरिका दुनिया-भर का प्रपंच रचता रहता है. कभी उसे इन देशों में कट्टरपंथी सरकारें दिखने लगती हैं और वह यहां जनतांत्रिक सरकारों की स्थापना का जिम्मा उठा लेता है! कभी उसे 'इस्लामी आतंकवाद ' का खतरा नज़र आने लगता है और विश्व-शान्ति की चिंता सताने लगती है !! कभी उसकी ' मानवाधिकार हनन ' के नाम पर नींद उड़ जाती है !!! लेकिन इन तमाम स्वयंभू जिम्मेदारियों और चिंताओं के पीछे अमेरिका की वास्तविक नीयत किसी से छुपी नहीं है.
लेकिन अमेरिका के इस रवैये से पूरी दुनिया तबाह ही हुई है. पहले समस्या पैदा करो, फिर उसका हल युद्ध में खोजो, चाहे संयुक्त राष्ट्रसंघ इसका अनुमोदन तक न कर रहा हो, इस युद्ध के बहाने अपने हथियारों को बेचो और हथियार-उद्योग को पालो-पोसो. कथित आतंकवाद के खिलाफ और जनतंत्र बहाली की लड़ाई में ऐसे गुटों को हथियारों और पैसों से मदद करो, जो अमेरिका के तात्कालिक हितों की पूर्ति तो ज़रूर करते हैं, लेकिन बाद में फिर यही ताकतें दुनिया के लिए ख़तरा बन जाती हैं. फिर इन ताकतों से लड़ने के लिए अपने हथियारों को और चमकाओ. इससे अमेरिकी चेहरे पर तेल की चर्बी तो जरूर चढ़ सकती हैं, लेकिन विश्व जनगण बदहाली की खाई में ही और धंस जाता है.
इराक, ईरान, सीरिया, तुर्की, लेबनान, लीबिया -- सबकी यही कहानी है. ये देश अमेरिकी संत्रास से अभिशप्त है, तो केवल इसलिए कि उनके पास तेल का अथाह भण्डार है. अमेरिका इन देशों में केवल ऐसी सरकारें ही देखना पसंद करता है. जो बिना चूं-चपड़ किये अमेरिकी हितों की ही पूर्ति करती रहें.
यही अमेरिका है, जिसके कारण अल-कायदा का जन्म हुआ. सीरिया के खिलाफ संघर्ष में इसी अमेरिका ने इस्लामवादी गुटों को मदद दी. आज इन्हीं ताकतों का रूपांतरण आई एस(इस्लामिक स्टेट) के रूप में हो चुका है. अब आइ एस के खिलाफ अमेरिका फिर हुंकार भर रहा है -- तमाम विश्व-कानूनों को धता बताते हुए.
दरअसल अमेरिका यही चाहता है कि अरब देश भीषण साम्प्रदायिक टकरावों से गुजरते रहे, वहां अराजकता का बोलबाला हो, गृहयुद्ध चलता रहे. अमेरिका की रोजी-रोटी अरब जगत की अस्थिरता की आंच पर ही सिंक सकती हैं. आई एस पर किया गया ताज़ा हमला इस अंतहीन कहानी का दुहराव भर है. फिलीस्तीन पर इसराइल के हमले में भी अमेरिका की ऐसी ही भूमिका हमने देखी थी..
....और संघी गिरोह और फेंकू सरकार ऐसे ही तिकड़मबाजों के साथ रणनीतिक सहयोग करके 'धन्य' हो रही है. यह सहयोग भारत को अमेरिका का दुम तो बना सकता है, विश्व का सिरमौर नहीं.

अरविंद सुब्रमण्यम की नियुक्ति के मायने...


अपने गठन के बाद से ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक (फण्ड-बैंक) अमेरिकी हितों को, खासतौर पर 9वें दशक के बाद से वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों को, पूरे विश्व में लागू करने के हथियार रहे हैं. इन नीतियों को लागू किये जाने के चलते कई देशों की स्वतंत्र अर्थव्यवस्थाएं तबाह हुई है, वहां राजनैतिक अस्थिरता बढ़ी है और अमेरिका को वहां प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हस्तक्षेप करने में आसानी हुई है.
नरसिम्हा राव सरकार के राज में मनमोहन सिंह को भी इसी फण्ड-बैंक से आयात कर वित्त मंत्री बनाया गया था और उन्होंने वैश्वीकरण की जिन नीतियों को लागू किया था, और कमोबेश बाद की सरकारों ने भी जिसका अनुसरण किया, उसके परिणाम आज देश की जनता के सामने है. भाजपा-संघ की फेंकू सरकार की भी इन नीतियों से कोई असहमति नहीं है, बल्कि यह भी जोर-शोर से उन्हीं नीतियों को लागू कर रही है. इससे हमारे देश का मानव विकास सूचकांक, जो पहले ही गिरावट की ओर है, और ज्यादा तेजी से गिरेगा. ....और इसका मतलब है कि हमारे देश की गरीब जनता की आय, रहन-सहन के स्तर, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल तथा पोषण-आहार तक उसकी पहुँच जैसी बुनियादी सुविधाओं में तेजी से कटौती होगी.
भाजपा ने ' सत्ता पलट ' का नारा दिया था, ' नीतियां पलट ' का नहीं. नीतियां तो मनमोहन सिंह वाली ही जारी रहेगी (नए आकर्षक पैकिंग के साथ) और फेंकू महाराज को इसे जारी रखने के लिए ऐसे ही नौकरशाहों की जरूरत पड़ेगी, जो न केवल अमेरिका की साम्राज्यवादपरस्त विचारधारा से दीक्षित हो, बल्कि समय-समय पर 30-35 रूपये की गरीबी रेखा भी निर्धारित कर इस देश की 80% गरीब जनता को बचे-खुचे समाज कल्याण के कार्यक्रमों से भी बाहर धकेलने के लिए इस सरकार की साज़िश में शामिल होने के लिए तर्क प्रस्तुत करें.
सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में अरविंद सुब्रमण्यम की नियुक्ति यही बताती है कि फण्ड-बैंक निर्देशित नीतियों पर ही यह सरकार चलती रहेगी. इससे आप समझ सकते हैं कि इस देश की, इस देश की अर्थव्यवस्था की और इस देश की आम जनता की भावी दशा-दिशा मोदीराज में क्या होगी ?

अमेरिकी चाकरी में खड़े ' संघी ' राम...


संघी गिरोह संस्कृति की कितनी ही लम्बी-चौड़ी बात क्यों न करें, लेकिन वास्तविकता यही है कि भारतीय जनमानस से उसका कोई लेना-देना नहीं है, जो राम के प्रति अपनी आस्था ' राम-राम ' के अभिवादन में व्यक्त करती है. राम के प्रति उसकी आस्था लोगों को तोड़ती नहीं, बल्कि जोडती है; जबकि संघी गिरोह की राम के प्रति आस्था उसके ' जय श्रीराम ' के उत्तेजक नारे में प्रकट होती है, जो लोगों को जोड़ती नहीं, बल्कि तोड़ती है. भारतीय जनमानस के राम सौहार्द्र के, अन्याय पर न्याय के विजयी होने का प्रतीक है; जबकि संघी गिरोह के राम कट्टर हिन्दुत्व के, गैर-हिन्दुओं के प्रति घृणा के और दंगों के प्रतीक है. संघी गिरोह के लिए राम के प्रति आस्था का उदघोष ' सांस्कृतिक ' नहीं, बल्कि एक ' राजनैतिक ' काम है, जो उसकी चुनावी नैया पार लगा दें. यही कारण है कि संघी गिरोह राम मंदिर के निर्माण पर फिलहाल कोई जोर नहीं देना चाहता.
राम मंदिर का मुद्दा भाजपा के घोषणा पत्र में तो है, लेकिन अभी प्राथमिकता में नहीं है, क्योंकि उसका मानना है कि उसे जनता ने 2019 तक का समय दिया है. उसकी प्राथमिकता में तो अभी वे ही मुद्दे हैं, जो अमेरिका के इशारे पर लागू किये जाने हैं -- याने सार्वजनिक उद्योगों का विनिवेशीकरण या निजीकरण करो, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा दो और अमेरिका को और ज्यादा लूट का मौका देने के लिए भारत का बाज़ार विदेशियों के लिए खोलो, निजी उद्योगों के लिए सस्ते श्रम का बाज़ार तैयार करो और इसके लिए मनरेगा जैसी ग्रामीण रोज़गार योजनाओं को दफनाओ, असंगठित मजदूरों को संगठित मजदूरों के खिलाफ खड़ा करो और न्यूनतम मजदूरी क़ानून व अन्य श्रम कानूनों को ख़त्म करो, प्राकृतिक संपदा को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले करो, आम जनता के लिए बने योजना आयोग और देश के योजनाबद्ध विकास को ' अलविदा ' कहने के बाद पूंजीपतियों के लिए गैर-योजना और अनियोजित विकास को बढ़ावा दो. अमेरिकी चाकरी बजाने के लिए देश के संविधान और संघीय शासन की जितनी ऐसी-तैसी कर सको, करो. इस प्रकार, उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की अमेरिकापरस्त नीतियों को लागू करना ही इस समय भाजपा का प्रमुख एजेंडा है. सत्ता में बने रहने की उसकी सार्थकता इसी में है कि इन नीतियों को और ज्यादा तेजी से लागू करे, वरना कांग्रेस ही क्या बुरी थी !!
लेकिन इस रास्ते पर चलने के दुष्परिणाम जाग-जाहिर है. यह रास्ता जनता में भयंकर असंतोष पैदा करता है. इसी असंतोष का फल कांग्रेस को इस बार भुगतना पड़ा है. इसी असंतोष के कारण अटलबिहारी की ' शाइनिंग इंडिया ' , ' भाजपा अस्त ' में बदल गयी थी. आर्थिक नीतियों से उपजे असंतोष ने पहले भी सत्ताधारी पार्टियों को उखाड़ फेंका है, इसे संघ-मोदी अब अच्छी तरह जान गए हैं.
अगले तीन सालों में यह असंतोष अपने चरम पर पहुँच चुका होगा. तब 2017-18 में राम मंदिर के मुद्दे को सामने लाया जायेगा. तब यह मुद्दा इस देश के लोगों की वर्गीय एकता को तोड़ने और इस जन असंतोष को दबाने-कुचलने के काम में आएगा. राम मंदिर बने या न बने, लेकिन तब 'संघी ' राम पूरे देश के लोगों को धार्मिक आधार पर बांटने के काम तो आयेंगे ही ! ऐसे संगीन माहौल में ' संघी ' राम हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच दंगा करवाने के काम में नहीं आयेंगे, तो और कब काम आयेंगे ? ' बाबर की औलादों ' के खिलाफ ' हिन्दुत्व ' की रक्षा की लड़ाई में राम मोदी के हाथ की ढाल न बने, तो राम को 'श्रीराम ' बनाने का फायदा ही क्या?
इसलिए मित्रों, 2017-18 में राम फिर प्रकट होंगे, नए अस्त्रों और नए तेवर के साथ. राम मंदिर बने चाहे न बने, लेकिन ' संघी ' राम लोकतंत्र के मंदिर पर 2019 में कब्ज़ा करने में मददगार तो जरूर बनेंगे. ' संघी ' राम को तो अमेरिकी ' मंदिर ' की पुकार को पूरी करना है. 2019 के बाद फिर वही अमेरिकापरस्त नीतियां लागू की जाएँगी और फिर 2022-23 में ' जय श्रीराम ' के नारे लगाये जायेंगे. संघी गिरोह की रणनीति इस देश की जनता से छुपी हुई नहीं है.

जिस फसल को कांग्रेस ने बोया है, भाजपा उसी को काट रही है....


महाराष्ट्र में मुस्लिमों की आबादी राज्य की समूची आबादी का मात्र 10% ही है, लेकिन वर्ष 1998-2000 के बीच यहां साम्प्रदायिक तनावों/दंगों की सबसे अधिक 1192 घटनाएं रिकॉर्ड की गई है, जबकि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्णाटक, बिहार और ओड़िशा इससे नीचे थे. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1999-2013 के बीच देश में पुलिस और न्यायिक हिरासत में मौतों की 1418 घटनाएं दर्ज हुई है, और इसका 23% --याने 326 मौतें महाराष्ट्र में ही हुई है. इनमें से अधिकाँश अल्पसंख्यक समुदाय से ही संबंधित थे. महाराष्ट्र के जेलों में 32% लोग मुस्लिम ही है. इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि कथित रूप से ' धर्मनिरपेक्ष ' कांग्रेस-एनसीपी राज में भी महाराष्ट्र का समाज किस हद तक साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत हो चुका है.
1990 के दशक की शुरूआत में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुंबई में बड़े प्रायोजित तरीके से दंगों का आयोजन किया गया था. इन दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट भी आ चुकी है, जिसमे संघी गिरोह को जिम्मेदार ठहराया गया है. लेकिन इस रिपोर्ट को कहीं गहरे में दफना दिया गया और किसी भी सरकार ने कोई भी कार्यवाही नहीं की. सच्चर आयोग की रिपोर्ट को भी महाराष्ट्र में लागू नहीं किया गया, जिसने महाराष्ट्र में मुस्लिमों की बदहाली को सामने लाने का काम किया था. कांग्रेस-एनसीपी गंठजोड़ ने इस मामले में अपने चेहरे पर कालिख ही पोतने का काम किया है.
भ्रष्टाचार के मामले में तो कांग्रेस-भाजपा में कोई अंतर ही नहीं है. दोनों एक-दूसरे से होड़ ही लेते दिखते हैं. यही हाल अमेरिकापरस्त उदारीकरण की नीतियों को लागू करने के मामले में है, जहां कांग्रेस की जगह अब भाजपा ने ले ली है. महाराष्ट्र में चुनाव के नतीजों की घोषणा के बाद एनसीपी के रूख ने फिर यही साबित किया है कि ये पूंजीवादी पार्टियां केवल सत्ता की लालची होती है और इनका बुनियादी संवैधानिक व नैतिक मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं होता !!
कांग्रेस ने अपने राज में जिस फसल को बोया था, भाजपा आज उसी को काट रही है. महाराष्ट्र में साम्प्रदायिक ताकतों की बढ़त के लिए कांग्रेस के सिवा और कौन जिम्मेदार हो सकता है ?

यह कैसा पोरिबर्तन....???


--- कुनाल घोष, तृणमूल कांग्रेस के राज्य सभा सांसद.
--- अहमद हसन इमरान, तृणमूल के राज्यसभा सांसद और पत्रकार.
--- श्यामपद मुखर्जी, पश्चिम बंगाल के कपडा मंत्री.
--- मदन मित्र, खेल मंत्री.
--- बापी करीम, मित्र के पूर्व पीए.
--- मुकुल रॉय, तृणमूल महासचिव.
--- रजत मजुमदार, तृणमूल उपाध्यक्ष व सशस्त्र पुलिस के पूर्व डायरेक्टर.
--- देवव्रत सरकार, ईस्ट बंगाल क्लब का एक अधिकारी.
--- संधीर अग्रवाल, एक व्यापारी.
--- सुदीप्त सेन, शारदा ग्रुप के चेयरमैन व मैनेजिंग डायरेक्टर.
तो दोस्तों, इस लिस्ट में नेता भी है, अधिकारी भी हैं, व्यापारी भी हैं. अब अभिनेता भी शामिल हो चुके है. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी तक आग की लपटें पहुँचने लगी है. ये शारदा चिट फण्ड घोटालों में शामिल महानुभावों की लिस्ट है, जिन्होंने मिलकर अपनी लूट की क्षमताओं का प्रदर्शन किया है और बंगाल के 17 लाख गरीबों सहित ओड़िशा, झारखण्ड और असम के लोगों को भी नहीं छोडा है.
25000 करोड़ रुपयों से ज्यादा का यह घोटाला है. वर्ष 2011 में ही यह घोटाला उजागर हो चुका था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही इस घोटाले की सीबीआई जांच शुरू हो पाई.अभी तक सीबीआई को इस घोटाले से संबंधित पूरे रिकॉर्ड राज्य सरकार से नहीं मिले हैं, तो इसका कारण आसानी से समझा जा सकता है.
लेकिन घोटाला केवल गरीबों के धन-हड़प तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इसके तार आतंकी संगठन ज़मात-उल-मुजाहिदीन से भी जुड़ गए हैं, जिसे शारदा द्वारा फाइनेंस किया जा रहा था बांग्लादेश की सरकार की अस्थिर करने के लिए. आज तक भारत आरोप लगता था कि उसके खिलाफ आतंकी संगठनों को मदद दी जाती है, आज बंगदेश आरोप लगा रहा है कि उसकी जमीन का उपयोग बांग्लादेश की सरकार के खिलाफ हो रहा है और भारत का सिर शर्म से झुका हुआ है.
पश्चिम बंगाल में 1977 के बाद से लगातार 35 सालों तक वामपंथी शासन रहा है, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर कोई घोटाला नहीं हुआ. किसी घोटाले में कोई मंत्री आज तक शामिल नहीं पाया गया.बंगाल साम्प्रदायिक सद्भाव का गढ़ बना रहा. कृषि के क्षेत्र में उसने अभूतपूर्व प्रगति की, क्योकि भूमि सुधारों को बुनियाद पर यह प्रगति टिकी हुई थी. मानव विकास संकेतकों पर इसकी प्रगति पर अंतर्राष्ट्रीय शोध हुए. लेकिन आज का बंगाल...!!! ये कैसा पोरिबर्तन (परिवर्तन)...???

घोटाला 47 करोड़ का, जांच 8 साल की और कार्यवाही एक 'चूहे' पर...


2007 में छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में मनरेगा के कार्यक्रम में तब देश का सबसे बड़ा घोटाला सामने आया था -- 47 करोड़ का. तब इस कार्यक्रम के नोडल अधिकारी थे कलेक्टर जी. एस. धनंजय, जो मनरेगा के नोडल अधिकारी भी थे, का इस घोटाले को पूरा संरक्षण था. जिला पंचायत अधिकारी थे के. पी. देवांगन, जिनके अगुआई में इस पूरे घोटाले को अंजाम दिया गया था. घोटालेबाज़ीं में भाजपा के बड़े-बड़े नेता शामिल थे, तो ठेकेदार और व्यापारी भी थे. पूरा एक गिरोह काम कर रहा था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस घोटाले को उजागर किया था.
इस घोटाले के खुलासे के बाद देवांगन को निलंबित कर दिया गया गया था और धनंजय को हटा दिया गया था. 2008 में घोटाले की रिपोर्ट भी आ गई, लेकिन फिर भी देवांगन को बहाल कर दिया गया कि वे शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति के मामले में और घोटाला कर सकें.
बेचारे देवांगन तो कल बर्खास्त हो गए, लेकिन इस घोटाले में शामिल नेता-ठेकेदार-व्यापारियों का गिरोह आज भी चांदी काट रहा है और इस सरकार के 'कर्मठ' धनंजय साहब पदोन्नत होकर और भी बड़ी जगह जमे हुए हैं -- और बड़ा घोटाला करने के लिए.
देवांगनजी. किसी भी घोटाले में गाज तो छोटे अधिकारी पर ही गिरती है. भाजपा की रमन-मोदी सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ 'जीरो टॉलरेंस' की नीति का यही मतलब है!!! कितना भी बड़ा घोटाला हो जाएँ, बलि तो 'चूहों' की ही ली जायेगी!!!!