Saturday 25 July 2015

साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है

वाल्मिकी रामायण और तुलसीदास के रामचरित मानस के कथा-प्रसंगों में बहुत अंतर है. इसी प्रकार विभिन्न देशों में विविध राम कथाएं प्रचलित है. इन राम कथाओं में अलग-अलग पात्रों का चरित्रांकन भी अलग-अलग हैं. हमारे देश में भी उत्तर में राम की पूजा होती हैं, तो दक्षिण में रावण पूजनीय हैं. छत्तीसगढ़ के देवभोग क्षेत्र में रावण का वध राम नहीं करते, बल्कि 13 देवियाँ करती हैं.
रामलीला का स्वरुप भी लगातार बदलता रहा हैं. आज ही एनडीटीवी में रविश कुमार ने एक जबरदस्त स्टोरी पेश की है.रामलीला के पात्र जरूरी नहीं कि हिन्दू ही हों, बल्कि बड़ी संख्या में मुस्लिम कलाकार भी इस लीला से जुड़े हैं. कुछ कलाकार तो पुश्तों से लीला में काम कर रहे है. कुछ की रोजी-रोटी इससे जुड़ी है, तो अधिकाँश की श्रद्धा. उनका मुस्लिम होना इस काम में आड़े नहीं आता, ठीक वैसे ही जैसे हमारा हिन्दू होना ईद में उनके यहाँ जाकर बिरयानी या सेवई खाने में बाधक नहीं होता. रामलीलाओं के आयोजन में मुस्लिम तरह-तरह से जुड़े हैं.
आज की रामलीलाओं में ऐसे-ऐसे पात्र मिल जायेंगे कि रामायण या मानस में उनका कहीं उल्लेख नहीं, उन पात्रों का अभिनय इतना मसखरी भरा होगा कि आप हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएँ. लीलाओं में इतनी नाटकीयता और ऐसे संवाद कि पूरा मनोरंजन. हिन्दू लीला में मुस्लिम संगीत. संघी गिरोह की नज़र शायद इस बदलती लीला पर नहीं पड़ी है वरना बवाल मच जाएँ, उनकी धार्मिक आस्था का पूरा कचूमर निकल जाएँ.
मित्रों,यही इस देश की बहुलतावादी संस्कृति है, जो लम्बे समय से बह रही है. इस बहाव को किसी हिन्दू या मुस्लिम संस्कृति के नाम से अवरूद्ध नहीं किया जा सकता. संघी गिरोह के नफरत फैलाने वाले लोग भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. वे बस संस्कृति के नाम से राजनीति कर सकते है !!...सांप्रदायिक राजनीति. प्रेमचंद ने तो बरसों पहले ही आगाह कर दिया था --" साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है." यदि इस देश की विविधतापूर्ण रामलीलाओं को जिन्दा रखना हैं, तो इस खाल को खींचकर उनकी साम्प्रदायिक राजनीति को बेनकाब करना होगा.

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