Saturday 25 July 2015

जरूरत है महिलाविरोधी नीतियों और विचारों को बदलने की....




लो भाई , इतना तेज विकास कभी देखा है आपने? एक साल में ही 13 सीढियां नीचे उतर गए. 142 देशों को लिस्ट में कल तक हम 101वें स्थान पर थे, आज 114वें पर पहुँच गए. विश्व में महिलाओं की स्थिति पर वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की लैंगिक समानता रिपोर्ट यही बता रही है. इस रिपोर्ट को विभिन्न देशों में महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार के मानकों के आधार पर तैयार किया जाता है.
हमारी सरकार विकास के कितने भी दावे कर लें और इसके समर्थन में जीडीपी विकास दर और सेंसेक्स की उछाल बता दें, महिलाओं को ' देवी ' की तरह पूजने की भी कितनी ही शेखी क्यों न बघार लें, वास्तविकता यही हैं कि हमसे ऊपर बांग्लादेश है, श्रीलंका है और नेपाल भी है. चीन को तो खैर ऊपर होना ही है. भारत की प्रतियोगिता तो केवल पाकिस्तान से है और पाकिस्तान की रैंकिंग और नीचे है, इसलिए मोदी महाराज पटाखे फोड़कर जश्न मना सकते हैं. एशिया-पैसीफिक देशों में भी हम 19वें नंबर पर है.
लेकिन इस रिपोर्ट की गहराई में जाएँ, तो लैंगिक बदहाली और तीखी होकर सामने आती है. महिलाओं की शैक्षणिक उपलब्धियों के मामले में हमारा स्थान 126वें नंबर पर है, अर्थ-व्यवस्था में भागीदारी और अवसरों की समानता के मामले में हम 134वें स्थान पर है, और स्वास्थ्य के मामले में तो सबसे नीचे 141वें स्थान पर ही है. तब हमारे देश की महिलाएं समग्र रूप से 114वें स्थान पर कैसे आ गई ? इसका कारण यही है कि राजनैतिक सशक्तिकरण के मानक पर वह 15वें स्थान पर है.
लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि विधानमंडलों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व आज भी 9-10% के आसपास ही है और महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा से पारित होकर पिछले कई सालों से लोकसभा में लटका पड़ा है. इसको पारित करने की प्राथमिकता न कांग्रेस सरकार के एजेंडे में थी, न इस पर शोर मचाने वाली भाजपा सरकार के एजेंडे में आज यह है. इसके बावजूद यदि हम 15वें स्थान पर है, तो केवल इसलिए कि पंचायतों में हम महिलाओं का उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर पाए है.
लेकिन स्वास्थ्य के मामले में? सरकारी रिपोर्ट ही यह बताती है कि इस देश की आधी महिलायें गंभीर कुपोषण का शिकार है और हमारे घरों में आज भी महिलायें परिवार के सदस्यों का जूठा और बचा-खुचा खाना खाकर ही अपना पेट भरती है. रोजगार के मामले में? संगठित क्षेत्र के रोजगार में पुरूषों की तुलना में केवल 10% महिलायें ही काम में लगी हुई है और असंगठित क्षेत्र में जो महिलायें काम करती हैं, समान मजदूरी वाले तमाम कानूनों के बावजूद उन्हें पुरूषों के बराबर मजदूरी नहीं मिलती, न्यूनतम मजदूरी हासिल करना तो दूर की बात है. यही कारण हैं कि आय-अर्जन के मामले में यह रिपोर्ट यह बताती है कि इस देश के कामकाजी पुरुषों की औसत वार्षिक आय जहां 8087 डॉलर (4.85 लाख रूपये) हैं, वहीँ महिलाओं की मात्र 1980 डॉलर (1.18 लाख रूपये) -- याने एक-चौथाई से भी कम. और यह स्थिति तब है, जब वे श्रम के मामले में पुरूषों से आगे ही हैं, पीछे नहीं. रिपोर्ट यह भी बताती है कि अनपेड (अवैतनिक) कामों के लिए, जो अधिकतर घरेलू काम ही होते हैं, पुरुषों की तुलना में महिलाएं 6 घंटे ज्यादा काम करती है. इस प्रकार वे दोहरी चक्की में पिस रही है -- चौथाई मजदूरी पर घर से बाहर और बिना मजदूरी के घर के अन्दर. ...और ये दोनों काम उसके पवित्र कर्तव्यों की श्रेणी में आते हैं.
जिस देश में बच्चियां जन्म लेने से पहले ही गर्भ में मार दी जाती हो, जिस देश में बच्चियों के जन्म लेने के साथ ही लैंगिक भेदभाव शुरू हो जाता हो, जिस देश में लड़कों और लड़कियों के लिए आचार संहिता अलग-अलग हों, जिस देश के मंत्री-संत्री और धार्मिक धंधेबाज महिला उत्पीड़न के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराते हों, जिस देश में महिलाओं को केवल बच्चे जनने की मशीन और बाज़ार में उपभोक्ता सामग्री बेचने का विज्ञापन समझा जाता हो, जिस देश में तमाम ' नैतिकता ' केवल महिलाओं पर लागू होती हो और इन्हें लागू करवाने की ठेकेदारी पुरुष-समाज के हाथों में हों, जिस देश में महिलाओं के कानूनी अधिकारों को भी छिनने के लिए खडी खाप पंचायतों को राजनेताओं का संरक्षण मिलता हो, जिस देश में महिलाओं को पति सहित किसी भी मामले में अपनी पसंद बताने का और चुनने का अधिकार न हो,जिस देश मे महिलाओं के चरित्र का आंकलन उसके लज्जाशील होने से और पुरुष की मर्दवादी सोच से होता हो, जिस देश मे गालियाँ भी महिला जननांगों पर ही बनी हो, जिस देश की महिलाओं को बच्चा पैदा करने से लेकर नसबंदी तक मे अनुमति लेनी पड़ती हो और नौकरी करने पर भी तनख्वाह अपने हाथ मे न रख सकती हो,जिस देश में महिलाओं के खिलाफ ' टोनही ' और ' डायन ' के विचार मौजूद हो, उस देश में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति इससे बेहतर होने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती.
आर्थिक उदारवाद की नीतियों ने महिलाओं की समग्र हैसियत में गिरावट ही लाई है. इस गिरावट में यदि कांग्रेस का योगदान सबसे ज्यादा है, तो उन्हीं नीतियों को और तेजी से लागू करने वाले संघ-भाजपा के राज मे भी इस गिरावट के रूकने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती, जब तक कि इन नीतियों को अलविदा नहीं कहा जाता.

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