Saturday 25 July 2015

वक्त की जरूरत है, आनुपातिक चुनाव प्रणाली.


' भारत में चुनाव सुधार के लिए अभियान ' पर एक सार्थक परिचर्चा का आज आयोजन हुआ. भारत में संसदीय प्रजातंत्र को ' बहुमत के शासन ' के रूप में परिभाषित किया जाता है. लेकिन सवाल यही है कि बहुमत के इस शासन को सुनिश्चित कैसे किया जाए? क्या यह अवधारणा बहुसंख्यक हिन्दू हितों का ही प्रतिनिधित्व करती है और इस अवधारणा में अल्पमत का विलगाव निहित है?? क्या बहुमत का यह शासन हमारे देश की व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-भाषाई विविधता तथा वर्गीय हकीकत को प्रतिबिंबित करता है???
यह सवाल इसलिए कि आज केन्द्र में एक ऐसी पार्टी की सत्ता है, जिसका चरित्र मूल रूप से दक्षिणपंथी सांप्रदायिक पार्टी का है और जो केवल हिन्दू-हितों की दुहाई देती रहती है. इसलिए इस सरकार से धर्मनिरपेक्षता का सही तरीके से पालन करने की आशा ही नहीं की जा सकती, जबकि धर्मंनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय हमारे गणतंत्र की बुनियाद है. इस बुनियाद को कमजोर करने का खेल शुरू हो चुका है. इस पार्टी के पास केवल 31% वोट ही है, जबकि सीटों का पूर्ण बहुमत उसे प्राप्त हो गया है. अपने गठबंधन के मित्रों के साथ भी उसे केवल 38% वोट प्राप्त है, जबकि कुल सीटों की लगभग दो-तिहाई सीटों पर वह काबिज है.
आज़ादी के बाद इतने कम वोटों से पहली बार कोई सरकार बनी है. इस पार्टी और गठबंधनके पास कोई वैकल्पिक नीतियां भी नहीं हैं और वह कांग्रेस की ही नीतियों को बड़े जोर-शोर से लागू कर रही है.इसके निर्वाचित 282 सांसदों में से एक भी मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं है. 237 करोडपति सांसद हैं.
पूरे चुनाव अभियान के दौरान संसदीय प्रजातंत्र को हाशिये में डाल दिया गया था और पूरी कुश्ती मोदी बनाम राहुल तक सीमित कर दी गयी थीं.यह दोनों पार्टियों के हित में भी था कि नीतियों पर आम जनता के बीच कोई बहस न चल पायें. दो मुर्गों के बीच की लड़ाई में तो जनता पूरी तरह ' तमाशबीन ' बनी रहें. कार्पोरेट मीडिया ने इस मुर्गा-लड़ाई को इस तरह दिखाया, जैसे राष्ट्रवादियों का भारत-विजय अभियान चल रहा हो,इसके चलते छोटे दल और निर्दलीय लगभग हाशिये पर या खेल के मैदान से ही बाहर थे,
नतीजा यह रहा कि उत्तरप्रदेश में बसपा के वोट प्रतिशत बढ़ने के बावजूद उसे कोई सीट नहीं मिल पाई. यही हाल ' आप ' जैसी पार्टी का हुआ, जिसे 2% वोट मिलने के बावजूद केवल 4 सीटें ही मिल पाई. पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को 30% वोट मिलने के बावजूद उन्हें केवल 2 सीटें ही मिली .
यदि इस बार विभिन्न पार्टियों को मिले मतों को आनुपातिक ढंग से सीटों पर प्रक्षेपित किया जाएँ, तो कांग्रेस को 105, भाजपा को 169, माकपा सहित विभिन्न वामपंथी पार्टियों को 22, बसपा को 23, अन्नाद्रमुक को 13 तथा तृणमूल कांग्रेस को 21 सीटें मिलतीं और भाजपा बहुमत से कोसों दूर रहती.
इसीलिए अब वक्त का तकाजा है कि व्यापक रूप से चुनाव-सुधार हो और इसमें आनुपातिक प्रणाली अपनाई जाये.
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