Saturday 25 July 2015

नारी समाज के अंतर्मन की कथा -- ‘स्त्री पत्र’




पूनम तिवारी की उपस्थिति समारोह को गरिमा प्रदान कर रही थी, तो सीमा
विश्वास का अभिनय मंच को रंगारंग बना रहा था। यहां राजनेताओं सहित सभी
प्रकार के नेताओं की उपस्थिति केवल दर्शक दीर्घा तक सीमित थी उनकी
अल्पसंख्या के साथ, लेकिन कलाप्रेमी दर्शकों और साहित्य-संस्कृति से
जुड़ी हस्तियों से ठसाठस भरी हुई। इस समारोह में एक कलाकार (सीमा
विश्वास) ने दूसरे कलाकार (पूनम तिवारी) को सम्मानित किया, लेकिन इस
अहसास के साथ कि --‘‘पूनम, पूनम है और सीमा, सीमा।’’ आकाश की सीमा अनंत
होती है, लेकिन यह अनंतता भी ‘पूनम’ (के चांद) के बिना अधूरी ही होती है।
जितना आकाश हम जानते हैं, उसकी सीमाओं को ग्रह-तारे-नक्षत्र ही प्रकाशित
कर रहे हैं। तो इस तरह होती है रायपुर इप्टा के 18 वें मुक्तिबोध
राष्ट्रीय नाट्य समारोह की गरिमामय और रंगारंग शुरूआत। रायपुर और आसपास
के दर्शक यदि साल भर इस समारोह की प्रतीक्षा करते हैं, तो यह बहुत
स्वाभाविक ही है।
अभिनय जगत में सीमा विश्वास नया नाम नहीं हैं। ‘बैंडिट क्वीन’ से ही लोग
उन्हें पहचानते हैं उनके उत्कृष्ट अभिनय के लिए, फूलन देवी की उनकी
भूमिका के लिए, एक जीवित स्त्री की व्यथा को अपने अभिनय में सशक्त रुप से
उभारने के लिए। फूलन के स्त्री-मन के अंदर झांके बिना, उसे महसूस किए
बिना ऐसा सशक्त अभिनय संभव नहीं था। लेकिन फूलन की व्यथा जिस जातिवादी
उत्पीड़न से उपजी थी, उसे महसूसना हर किसी के बस की बात नहीं। इसके लिए
एक संवेदनशील मन भी चाहिए। इस ‘संवेदनशील मन’ के बिना अभिनय तो हो सकता
है, लेकिन पात्र के ‘अंतर्मन’ में उतरा नहीं जा सकता।
शायद उसी ‘बैंडिट क्वीन’ वाली सीमा विश्वास को कुछ लोग देखने आये हों,
लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी होगी। रायपुर, इप्टा के रंगमंच पर वह
‘बैंडिट क्वीन’ नहीं, बल्कि मृणाल थीं, गुरुवर रविन्द्रनाथ टैगोर की। यह
मृणाल अपने ‘स्त्री पत्र’ के साथ उपस्थित थी, इस सोच को चुनौती देते हुए
कि-‘‘पागल है, तो हो, आखिर है तो पुरुष ही।’’ रविन्द्रनाथ टैगोर की मृणाल
इसी पुरुषवादी-छाया से मुक्त होती है, 15 साल के अपने दांम्पत्य जीवन से
तलाक लेकर। इस मायने में टैगोर की कहानी नारी-अस्मिता को खोज की कहानी
है। यह खोज नारी के सौंदर्य की भी खोज है, और उसकी बुद्धिमता की भी।
सीमा विश्वास, टैगोर की इस कहानी को वर्तमान हालातों से जोड़कर मंचित करने में
सफल रही हैं। मंच पर सीमा विश्वास मृणाल ही नहीं, बिन्दु भी थीं। मृणाल
और बिन्दु मिलकर उस भारतीय यथार्थ और कमोबेश वैश्विक यथार्थ की रचना करते
हैं, जहां एक पुरुष-प्रधान समाज की पुरुषवादी-सामंती मानसिकता में स्त्री
अपने स्वतंत्र अस्तित्व की खोज के लिए संघर्षरत है, लेकिन दिक्कत यही है
कि इस संघर्ष में आज भी उसे संपूर्ण नारी समाज का समर्थन-सहयोग नहीं
मिलता, और ‘‘स्त्री ही स्त्री की दुश्मन बन जाती है।’’ इस मायने में
हमारे समाज की आधी आबादी का संघर्ष पुरुषवादी-सामंती मानसिकता से मुक्त
होने का संघर्ष भी है। यह मानसिकता आज भी लड़कियों के जन्म पर मातम ही
मनाती है, जबकि जरुरत है ढोल-गाजे-बाजे के साथ उसके जन्म का उत्सव मनाने
की। यह मानसिकता बिन्दु को आत्महत्या करने के लिए विवश करती है, जबकि
जरूरत है जीने के लिए, हंसने के लिए इस आत्महंता मानसिकता की नकार की।
मृणाल का जीवन-संघर्ष, बिन्दु के मृत्यु-संघर्ष का नकार है। जहां बिन्दु
पूंजीवादी-सामंती सोच के समक्ष समर्पण है, वही मृणाल इस सोच के प्रति
विद्रोह और संघर्ष की अभिव्यक्ति। इस विद्रोह और संघर्ष में उसकी यह
विवशता आड़े नहीं आती कि आगे क्या होगा? इस तरह मृणाल का संघर्ष अपने
स्वतंत्र अस्तित्व के लिए भविष्य का संघर्ष भी है। यह संघर्ष महिलाओं की
साडि़यों में लगी आग से मुक्ति का और पुरुषों की धोतियों में आग लगाने का
संघर्ष भी है। अपने समय के और भविष्य के इस संघर्ष को टैगोर ने अपनी पैनी
दृष्टि से काफी पहले देख लिया था और इसी दृष्टि को मंच पर जीवित करने में
सीमा विश्वास सफल रही हैं।
यह सोलो प्ले (एकल अभिनय) था, जहां उनका साथ देने के लिए, संवाद अदायगी
के दौरान उठती सांसों को थामने के लिए कोई अन्य पात्र मंच पर नहीं था।
यदि उनके साथ कुछ था, तो वह था नेपथ्य का संगीत और लाईट। लेकिन यह साथ
इतना भरपूर था कि रंगदर्शक उनके चेहरे के आते-जाते भावों, क्षण-प्रतिक्षण
बदलते रंगाभिनय को सहजता से देख रहे थे। दर्शकों के चेहरों का रंग बता
रहा था कि उसने न केवल सीमा के ‘स्त्री पत्र’ को स्वीकार किया, बल्कि
उनके ‘स्त्री पत्र’ ने नाट्य समारोह को भी सार्थक रंग में भर दिया।
(लेखक की टिप्पणी- बतौर एक दर्शक ही)

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