Tuesday 19 April 2016

माओवादियों और राजकीय दमन के बीच पिसता बस्तर

माओवादियों और राजकीय दमन के बीच पिसता बस्तर
छत्तीसगढ़ इस राष्ट्रवादी षडयंत्रवादी सरकारी दिमाग की प्रयोगशाला है. सोनी सोरी, लिंगा, प्रभात की प्रताड़ना सिर्फ इसलिए कि वे असहाय कर दिए गए आदिवासियों के हक में काम कर रहे हैं. ओड़िशा में सारंगी, छत्तीसगढ़ में डॉक्टर जाना ! सूची बढ़ती जा रही है.
--- अपूर्वानंद, दिल्ली विवि के प्राध्यापक
जो कोई बेला और मुझे नक्सलवादी मानता है, वह निश्चित ही सच्चाई से कोसों दूर है. ...मैं न तो नक्सलवादी हिंसा का समर्थन करता हूं और न ही राजसत्ता द्वारा की जाने वाली हिंसा का. ...लोकतांत्रिक साधनों के जरिये अन्याय के सभी रूपों के प्रतिकार का मैं समर्थक हूं. मुझे 'विदेशी दलाल' बताया गया है. सच्चाई यह है कि मैं भारतीय नागरिक हूं. नक्सलवादी होने का आरोप एक बहाना भर है बेला को परेशान करने की असली वजह यह है कि उन्होंने कुछ हफ्ते पहले सुरक्षा बल के कुछ सदस्यों के खिलाफ बलात्कार और यौन-हिंसा की शिकायतें दर्ज कराने में बीजापुर जिले की कुछ आदिवासी महिलाओं की मदद की थी. इसके बाद से पुलिस-प्रायोजित सामाजिक एकता मंच जैसे समूहों ने बेला को निशाना बनाना शुरू कर दिया. ...बस्तर जैसी जगह में किसी पर नक्सलवादी होने का आरोप मढ़ना उसकी जान खतरे में डालने के बराबर है....
--- अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, कैच न्यूज़ को दिए साक्षात्कार में.
ज्यां द्रेज और अपूर्वानंद के ये कथन बस्तर की वर्तमान स्थिति की भयावहता को बताने के लिए काफी है. इससे पहले 19 फरवरी को माकपा पोलिट ब्यूरो सदस्य बृंदा कारात ने मुख्यमंत्री रमनसिंह को पत्र लिखकर जगदलपुर लीगल एड ग्रुप के वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया, महिला पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम तथा राजनैतिक कार्यकर्त्ता सोनी सोरी पर किये जा रहे हमलों के खिलाफ हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था.

इसी पृष्ठभूमि में माकपा नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने 17-18 मार्च को दक्षिण बस्तर का दौरा किया. इस दल का नेतृत्व माकपा संसदीय दल के सचेतक तथा आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच के कोषाध्यक्ष जीतेन्द्र चौधुरी कर रहे थे. प्रतिनिधिमंडल में जनवादी महिला समिति की नेता आशा लता तथा तापसी प्रहराज, पार्टी के छत्तीसगढ़ राज्य सचिव संजय पराते तथा सचिवमंडल सदस्य एम के नंदी, आदिवासी एकता महासभा के महासचिव बालसिंह और जन विज्ञान कार्यकर्ता पी सी रथ शामिल थे.

प्रतिनिधिमंडल के दौरे की सूचना राज्य प्रशासन को पहले ही दे दी गई थी. प्रशासन भी दौरे को विफल बनाने के लिए कमर कसे हुए था. उसने सोनी सोरी को घर से हटाने की नाकाम कोशिश की, उसने बीजापुर के नेंड्रा गांव में जाने से हतोत्साहित किया, उसने सुकमा के कुन्ना गांव में जाने के लिए सुरक्षा देने से ही इंकार कर दिया. लेकिन प्रशासन के इस रूख के बावजूद, प्रतिनिधिमंडल का दौरा सफल रहा. उसने इन दोनों दूरस्थ गांवों में जाकर हालात का जायजा लिया, ग्रामीणों तथा राजनैतिक कार्यकर्ताओं से बातचीत की और बलात्कार व यौन-उत्पीड़न की शिकार आदिवासी महिलाओं से मुलाक़ात की. इस दौरे को सफल बनाने में सीपीआई नेता मनीष कुंजाम तथा उनके साथियों रामा सोढ़ी, नंदाराम सोढ़ी, लक्ष्मण कुंजाम, कुसुम नाग, गंगाराम नाग, जी आर नेगी आदि का योगदान सराहनीय रहा.

सोनी सोरी से भेंट
माकपा प्रतिनिधिमंडल ने बीजापुर जाने से पहले दंतेवाड़ा जिले के गीदम में  सोनी सोरी से उनके घर में मुलाक़ात की. इस मुलाक़ात से पहले ही पुलिस ने उन्हें घर से जबरदस्ती हटाने की कोशिश की, जिसका उन्होंने तीखा विरोध किया. उन्होंने अपने ऊपर हुए हमले की विस्तार से जानकारी दी तथा जांच के नाम पर प्रशासन द्वारा किये जा रहे नाटक के बारे में भी बताया. सोनी सोरी के चेहरे को किसी रसायन से जलाए जाने के तथ्य के बाद भी, आज भी प्रशासन इसे महज चेहरे पर कालिख पोतना बता रहा है. उन्होंने बताया कि किस तरह उनके परिजनों को ही षडयंत्रकारी बताकर इस मामले में फंसाने की कोशिश की जा रही है.

सोरी की बहन धनेश्वरी जगदलपुर में नर्सिंग कोर्स कर रही है. उसे लगातार कॉलेज से उठाकर थाने ले जाया जाता है और न केवल डराया-धमकाया जाता है, बल्कि अश्लील बातें भी की जाती है. लिंगा कोड़ोपी ने मल्टीमीडिया में डिग्री कोर्स किया है, उन्हें लगातार एनकाउंटर की धमकियां दी जा रही हैं. अजय बघेल उनकी बुआ के लड़के हैं और पुलिस ने उन्हें इतना पीटा है कि ठीक-से चल-फिर नहीं पा रहे थे.

 सोनी सोरी पूछती हैं -- "मेरी गलती क्या है? जिन आदिवासियों के साथ अत्याचार हो रहा है, उन्हें इकठ्ठा करके अधिकारियों के पास जाकर न्याय मांगने में गलत क्या है? यदि मैं गलती कर रही हूं, तो मेरे घर वालों को परेशान क्यों किया जा रहा है?" वे कहती हैं कि अपने जले हुए चेहरे के साथ वह पूरे बस्तर को न्याय दिलाने की लड़ाई में जुटी रहेंगी.

सास-बहू दोनों से बलात्कार
यहां से हमारा दल बीजापुर जिले के नेंड्रा गांव की ओर बढ़ा. बीजापुर एसपी ने बताया कि उस गांव तक वाहन से जाना संभव नहीं है और हमें 10 किमी. पैदल ही चलना होगा. इस चुनौती को हमने स्वीकार किया. (बाद में पता चला कि माकपा दल के दौरे की सूचना के बाद स्वयं जिलाधीश इस गांव तक अपनी चौपहिया वाहन से गए थे.) तिम्मापुर थाने में हमने गाडी रोकी तथा पैदल चलने की तैयारी की. लेकिन एक महिला पत्रकार पुष्पा रोकड़े वहां मिल गई. इस परिचय के बाद कि अखबार के मालिक-संपादक से मेरी अच्छी जान-पहचान है, वह हमारे दल को गांव तक ले जाने के लिए तैयार हो गई. मानवाधिकार आयोग के सदस्यों को उसने ही गांव तक पहुंचाया था. हम अपने वाहन से ही नेंड्रा गांव तक पहुंचे. उस महिला पत्रकार की मदद से ही हमने ग्रामीणों को इकठ्ठा किया. जनवरी में ही सुरक्षा बलों ने इस गांव की महिलाओं के साथ बलात्कार किया था. इन बलात्कृत महिलाओं में वे सास-बहु भी थी, जिनसे हमारी मुलाक़ात हुई और उन्होंने स्पष्ट रूप से हमें बताया कि सुरक्षा बलों ने उनके साथ बलात्कार किया है. बलात्कार में शामिल एक सुरक्षा कर्मी (एसपीओ) का नाम भी उन्होंने बताया, जो कि पहले सलवा जुडूम कार्यकर्ता था. सुरक्षाकर्मियों ने उनके घरों को लूटा भी. इस घटना को उजागर करने के कारण ही बेला भाटिया पर हमला किया गया था. घटना के तीन माह बाद भी कांग्रेस-भाजपा का कोई नेता यहां नहीं पहुंचा और न ही बलात्कारियों पर ही कोई कार्यवाही हुई है.

पूरा गांव उजाड़-सा था. स्कूल नहीं, डॉक्टर नहीं, पीने का पानी नहीं. आंगनबाड़ी भवन अधूरा पड़ा है -- खंडहर में तब्दील होता हुआ. ग्रामीणों को इसके निर्माण की मजदूरी आज तक नहीं मिली. प्रशासन का कहना है -- मजदूरी बकाया नहीं, पैसों की कमी नहीं. इसे नक्सली बनने नहीं दे रहे, वे विकास कार्यों में बाधा डालते हैं. नजदीक का प्राइमरी स्कूल 8 किमी. दूर तिम्मापुर में है, बच्चों का जहां तक जाना संभव ही नहीं है. ग्रामीण मनरेगा को जानते भी नहीं, लेकिन पूरे जिले में इस वित्तीय वर्ष की 8-10 करोड़ रुपयों की मजदूरी बकाया है. ग्रामीणों को 35 किलो अनाज 100 रूपये में मिलता है, जबकि इसकी वास्तविक कीमत अन्त्योदय परिवारों के लिए 35 रूपये ही है. राशन दुकान से चावल के सिवा और कुछ नहीं मिलता --न नमक, न चना, न दाल, न शक्कर, न मिट्टी तेल. इस गांव की बैठक में लगभग 100 लोग इकठ्ठा थे, लेकिन किसी की भी सामाजिक सुरक्षा पेंशन तक पहुंच नहीं है. महिलाओं ने बताया कि जंगल में सुरक्षा बलों की लगातार मौजूदगी के कारण न वे घर बनाने के लिए घास-फूस ला पा रही हैं, न वनोपज बीनने जा पा रही हैं और न ही शौच के लिए जाना हो पा रहा हैं.
फिर वही कहानी
सुकमा के कुन्ना गांव की कहानी भी इससे अलग नहीं हैं. इस जिले के कोंटा ब्लॉक में 57 पंचायतें हैं. लेकिन कहीं भी रोजगार की गारंटी नहीं. छिंदगढ़ ब्लॉक में 46 पंचायतें हैं, लेकिन मनरेगा की 107 करोड़ रुपयों की मजदूरी बकाया है. आइसीडीएस के पुरूष अधिकारी आंगनबाड़ी का सामान हड़प लेते हैं और दोष कार्यकर्ताओं पर लगाते हैं. वर्ष 2002 के राशनकार्डधारियों को ही यहां सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिल रही हैं और उनकी संख्या बहुत कम है.
12 जनवरी की सुबह इस गांव के पटेलपारा के लिए कहर बनकर आई. नक्सलियों की खोजबीन  के नाम पर सुरक्षा बलों के जवान दो दिन से भुसारास कैम्प में रुके थे. सुबह 9 बजे वे गांव पर टूट पड़े. जिसे देखा, बर्बरतापूर्वक मारा-पीटा, घरों को लूटा --उनका अनाज, उनके पशु-पक्षी, उनके जेवर-- सब कुछ. लेकिन वे केवल सामान लूटने के लिए ही नहीं आये थे, उन्होंने महिलाओं की iइज्जत भी लूटी. 8 महिलाओं को उन्होंने निर्वस्त्र कर डाला, उनसे बलात्कार की कोशिश की, उनके स्तनों को दबाकर दूध निकाला और जिन महिला-पुरूषों ने उनका विरोध किया, उन्हें बेदम पीटा. इस पिटाई के कारण दूसरे दिन ही सोड़ी हुंगा की मृत्यु हो गई. इस घटना में भी सलवा-जुडूम कार्यकर्त्ता --जो अब पुलिस जवान बन गए हैं-- शामिल थे. पीड़ित महिलाओं ने हमें अपनी आप-बीती सुनाई और दोषियों को नाम से भी चिन्हित किया. प्रशासन द्वारा इस घटना को दबाने की कोशिश की गई. आदिवासी महासभा (सीपीआई) के नेतृत्व में 22 जनवरी को कलेक्ट्रेट घेराव के बाद ही 27 जनवरी को पुलिस ने "अज्ञात फ़ोर्स के जवान" के खिलाफ आईपीसी की सामान्य धाराओं में जुर्म दर्ज किया, लेकिन अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई हैं.

कुन्ना जाने से रोकने की कोशिश
हमारा दल 18 मार्च की सुबह बचेली से कुन्ना के लिए रवाना हुआ था. प्रशासन को रास्ते के बारे में जानकारी दे दी गई थी कि ग्राम भुसारास से दूधीरास होते हुए कुन्ना जायेंगे. भुसारास से कुन्ना गांव की दूरी 9 किमी है. लेकिन इस रास्ते से प्रशासन हमें ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ. इसके बजाये छिंदगढ़, कूकानार होते हुए वह हमें कुन्ना पहुँचाना चाहता था. यह दूरी 90 किमी. है. प्रशासन की मंशा स्पष्ट थी कि हम लोग इस गांव में पहुंचे ही नहीं. तब हमने दो भागों में बंटना उचित समझा. मैं और रथ छोटे रास्ते से कुन्ना पहुंचे. हमने गांव वालों से बातचीत की. बाकी साथियों ने प्रशासन से सहयोग किया, लेकिन कूकानार पहुंचने के बाद पुलिस प्रशासन ने कुन्ना जाने से रोक दिया. प्रशासन ने बताया कि नक्सली वहां भयंकर बम विस्फोट कर रहे हैं और गोलियां चल रही हैं और वे हमारे दल को सुरक्षा देने में असमर्थ हैं. ऐसी हालत में जीतेन्द्र चौधुरी ने बिना सुरक्षा बलों के कुन्ना जाने की ठानी. वे कुन्ना पहुंचे, लेकिन निर्धारित समय से तीन घंटे देरी से. दोनों रास्ते निरापद थे, न कहीं विस्फोट, न कहीं गोली. प्रशासन की मंशा साफ़ थी, लेकिन हमारे इरादे भी अटल थे.

कुन्ना में लगभग डेढ़ हजार ग्रामीणों की सभा को चौधुरी व अन्य साथियों ने संबोधित किया. ये ग्रामीण कुंदनपाल, मिसवार, डब्बा तथा कुन्ना पंचायतों से आये थे. आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों की तीखी भर्त्सना करते हुए हमने उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी बातें संसद और संबंधित मंत्रियों-अधिकारियों तक पहुंचाई जायेगी.
जगदलपुर लौटकर जीतेन्द्र चौधुरी ने पत्रकार वार्ता में हिस्सा लिया. गांवों की आंखों-देखी को विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि सशस्त्र बलों के एक छोटे-से हिस्से द्वारा जिस प्रकार आदिवासियों पर अत्याचार किया जा रहा है, उससे समूचा बल बदनाम हो रहा है और भाजपा सरकार को चाहिए कि ऐसे तत्वों की पहचान कर उन्हें कड़ा दंड दें. उन्होंने कहा कि विकास के लिए शांति पूर्व शर्त है. इसलिए माओवादियों को हिंसा छोडनी होगी और सरकार को भी मानवाधिकारों के दमन पर रोक लगाना होगा तथा विरोध की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा देना होगा. सरकार को असहमति की आवाज़ भी सुननी होगी तथा बुनियादी सुविधाओं तक नागरिकों की पहुंच को सुनिश्चित करना होगा. उन्होंने बस्तर में आदिवासी वनाधिकार क़ानून को लागू करने तथा प्राकृतिक संपदा की लूट को रोककर जल, जंगल, जमीन पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों को स्थापित करने की भी मांग की. उन्होंने उद्योगों के नाम पर आदिवासियों की हड़पी गई भूमि को भी वापस करने की मांग की.

प्रतिरोध की आवाजें
18 मार्च को ही 'बस्तर बचाओ संघर्ष समिति' के बैनर तले राजधानी रायपुर में एक प्रदर्शन किया गया. इसमें अन्य वामपंथी पार्टियों व संगठनों के साथ माकपा भी शामिल थी. बस्तर को छत्तीसगढ़ के नागरिकों की चिंता के केन्द्र में लाना इसका मुख्य उद्देश्य था. सभा को धर्मराज महापात्र, सोनी सोरी, विजय भाई, एन के कश्यप व अन्य गणमान्य नागरिकों ने संबोधित किया व अपनी गिरफ्तारियां दी. एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल को ज्ञापन देकर नागरिक अधिकारों के दमन पर रोक लगाने की मांग की.

बस्तर की भयानक सच्चाई को प्रकारांतर से नक्सल अभियान के विशेष महानिदेशक डी एम अवस्थी को भी स्वीकार करना पड़ा है. अपने पत्र में उन्होंने बस्तर के 7 पुलिस अधीक्षकों को निर्देशित किया है कि नक्सलविरोधी अभियान के दौरान महिलाओं व बेक़सूर लोगों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न की जायें, किसी भी सूरत में निर्दोष व्यक्ति या पकड़े हुए व्यक्ति का एनकाउंटर न किया जाए और किसी दोषी व्यक्ति को पकड़ा जाता है, तो उसे गिरफ्तार कर विधि-सम्मत कार्यवाही की जाएं.

ग्रामीण आदिवासियों पर सुरक्षा बलों द्वारा जारी बर्बर अत्याचारों की पुष्ट घटनाओं के सामने आने तथा इन्हें उजागर करने वाले बस्तर में कार्यरत सामाजिक-राजनैतिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं , पत्रकारों व वकीलों पर हुए पुलिस-संरक्षित हमलों के हो-हल्ले के बाद ये निर्देश दिए गए हैं. पत्रकार प्रभात सिंह व दीपक जायसवाल की गिरफ़्तारी तथा बीजापुर व सुकमा जिलों में आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार पर विधानसभा में जबरदस्त हंगामा हुआ है, एडिटर्स गिल्ड ने इन मामलों का स्वतः संज्ञान लिया है तथा प्रेस कौंसिल और मानवाधिकार आयोग को भी हस्तक्षेप करना पड़ा है.
पत्रकारों को प्रताड़ित करने की शिकायतों के निराकरण के लिए बनी राज्य स्तरीय कमिटी की पहली बैठक में यह ही तय नहीं हो पाया कि पत्रकार किसे माना जाएं? लेकिन माओवाद को कुचलने के नाम पर सरकारी संरक्षण में किये जा रहे दमन के खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें लगातार उठ रही हैं और भाजपा सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा है.

प्राकृतिक संसाधनों की लूट
बस्तर प्राकृतिक संसाधनों की लूट का चारागाह बन गया है. माओवाद से निपटने के नाम पर जिस प्रकार से सैन्य बलों व पुलिस को निर्दोष आदिवासियों को लूटने तथा उनके मानवाधिकारों को कुचलने की इजाज़त दी जा रही है, वह किसी भी सभ्य समाज को स्वीकार्य नहीं होगा. इससे नक्सलियों को पैर फैलाने का मौका भी मिल रहा है. लेकिन यह सब किया जा रहा है, तो महज इसलिए कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट को सुनिश्चित किया जा सकें. लेकिन बस्तर के आदिवासी आज भी जल, जंगल, जमीन से जुड़े अपने हकों के लिए लड़ रहे हैं, और यही कारण है कि बंदूक की नोंक पर लोहंडीगुडा के आदिवासियों की जमीन छीनने के बावजूद टाटा अपना स्टील प्लांट यहां लगा नहीं पाया है. बैलाडीला में लौह-अयस्क खनन के लिए टाटा को जो प्रोस्पेक्टिंग लाइसेंस दिया गया था, वह भी निरस्त हो चुका है और अब टाटा का स्टील प्लांट लगने की संभावना नगण्य ही है. इसके बावजूद सरकार आदिवासियों की अधिग्रहित जमीन को भू-अधिग्रहण क़ानून की शर्तों के अनुसार लौटाने के लिए तैयार नहीं है.

सलवा-जुडूम अभियान के कारण बस्तर के 650 से ज्यादा गांव लगभग वीरान हो गए हैं. आदिवासियों की जनसंख्या में इस अभियान के कारण भारी गिरावट आई है और कुछ जातियां तथा बोलियाँ तो विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई है. बस्तर आदिम संचय की पूंजीवादी प्रक्रिया का एक जबरदस्त उदाहरण बनाकर सामने आ रहा है.

इस प्रक्रिया ने बस्तर को दो भागों में बांट दिया है. एक प्रभावशाली राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक तबका है, जिसमें मध्य वर्ग का एक हिस्सा भी शामिल है, जो बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है और जो 'आदिम संचय' की इस प्रक्रिया में ही अपना विकास देखता है. वह चाहता है कि बस्तर की संपदा को आदिवासी उन्हें चुपचाप सौंप दें और विरोध की किसी भी आवाज़ को सरकारी दमन से दबा दें. दूसरा तबका वह विशाल आदिवासी और ग्रामीण समुदाय है, जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और जिसके पास खोने को कुछ नहीं है. वह माओवादियों से भी लड़ रहा है और माओवादियों को कुचलने के नाम पर उन पर हो रहे राजकीय दमन के खिलाफ भी संघर्ष कर रहा है.

भाजपा सरकार द्वारा प्रायोजित सलवा-जुडूम अभियान, जिसे महेंद्र कर्मा के नेतृत्व में कांग्रेस के एक बड़े हिस्से का भी समर्थन प्राप्त था, इसी लूट को सुगम बनाने का अभियान था. इस अभियान के दौरान सलवा-जुडूम के कथित लड़ाकों ने बड़े पैमाने पर घर लूटे, गांव जलाए, महिलाओं से बलात्कार किया, फर्जी एनकाउंटर किये और एक बड़ी आबादी को राहत शिविरों में रहने के लिए बाध्य किया. आदिवासियों के विस्थापन से 650 गांव खाली हो गए. जो लोग सलवा-जुडूम कार्यकर्त्ता बने, वे ऐसे 'आत्म-समर्पित' नक्सली थे, जो पहले माओवादियों के साथ मिलकर लूट-खसोट करते थे. सलवा-जुडूम अभियान ने उनकी लूट तथा गुंडागर्दी को राजनैतिक-प्रशासनिक संरक्षण दिया. सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस अभियान को 'अवैध' घोषित करने के बाद अब ये तत्व पुलिसकर्मी बनकर सैन्य-बलों के साथ मिलकर लूटपाट कर रहे हैं.

माओवादियों को कुचलने के नाम पर आज बस्तर में सशस्त्र बलों की 40 से अधिक कंपनियां तैनात हैं और हर 50 नागरिकों पर एक बंदूकधारी जवान. इस प्रकार समूचा बस्तर सैन्य छावनी में बदल गया है. सैंकड़ों करोड़ रूपये केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा हर साल झोंके जा रहे हैं और यह आबंटन भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत बन गया है. प्रशासनिक अधिकारियों का भी एक हिस्सा अब यह नहीं चाहता कि माओवादियों का खात्मा हो. माओवादी होंगे, तो फंड होगा और विकास के नाम पर बिना विकास किये इस फंड का गबन संभव होगा. बड़े पैमाने पर 'ईनामी नक्सलियों' का आत्म-समर्पण होगा और इस बहाने कईयों की पदोन्नतियां भी पक्की होंगी.

फर्जी आत्म-समर्पण में बढ़ोतरी
एसआरपी कल्लूरी के बस्तर आईजी बनने के बाद 'आत्म-समर्पण' एक आकर्षक काम बन गया है. दिसंबर 2014 की 'इंडियन एक्सप्रेस' की एक रिपोर्ट बताती है कि जनवरी 2009 से मई 2014 के बीच 65 महीनों में बस्तर में केवल 139 नक्सलियों ने समर्पण किया था, लेकिन जून-नवम्बर 2014 के बीच के 6 महीनों में 'कल्लूरी राज' में 377 आत्म-समर्पण हो जाते हैं और इसमें भी नवम्बर 2014 में ही 155 आत्म-समर्पण !! अखबार की छानबीन के अनुसार इनमें से 270 लोगों का नक्सली के रूप में कोई पुलिस रिकॉर्ड ही नहीं था. इसीलिए इनमें से किसी को पुनर्वास/ मुआवजा भी नहीं मिला. लगभग 100 लोगों को 2-5 हजार रुपयों तक की ही मदद मिली तथा केवल 10 को चतुर्थ श्रेणी की नौकरी. स्पष्ट है कि आत्म-समर्पण में भी बड़े पैमाने पर 'फर्जीवाड़ा' किया जा रहा है. इस प्रकार एक सामान्य नागरिक के भी नागरिक अधिकारों व उसके इज्जत से जीने के अधिकार को ही बड़े पैमाने पर कुचलकर कुछ लोगों की तकदीर चमकाई जा रही है.

एक नए सलवा-जुडूम का आगाज़
सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिबंधित किये जाने के बावजूद नए-नए रूपों में सलवा-जुडूम अभियान को पुनर्जीवित करने की कोशिशें जारी हैं. अब पुलिस प्रशासन के संरक्षण में नक्सलविरोध के नाम पर लंपट तत्वों को एकत्रित कर 'सामाजिक एकता मंच' का गठन किया गया है. ऐसा आरोप लगाया जा रहा है कि इसकी फंडिंग भी पुलिस ही कर रही है और यह सोशल मीडिया में भी पुलिस के पक्ष में आतंक का अभियान चलाने में सक्रिय है.

बाहरहाल, पिछले छः महीनों के दौरान इसने एक ऐसे संगठित गिरोह का रूप ले लिया है, जो नक्सलविरोध के नाम पर क़ानून अपने हाथों में लेकर कथित नक्सल-समर्थक लोगों को सबक सीखाने का काम कर रही है. अब किसी की हत्या को जायज ठहराने के लिए उस पर नक्सल-समर्थक होने का ठप्पा लगाना ही काफी है. इस संगठन ने बस्तर में आदिवासी-हितों के लिए तथा यहां की प्राकृतिक संपदा की लूट के खिलाफ काम करने वाले तमाम लोगों को, जिनमें वकील, पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक-मानवाधिकार कार्यकर्त्ता आदि शामिल हैं, खुले हमले किये हैं तथा उन्हें बस्तर छोड़ने को बाध्य किया है. 'असली माओवादियों' से लड़ने की जगह ये जनता से ही लड़ रहे हैं. इसलिए समय रहते सरकारी संरक्षण में पल रहे ऐसे संगठनों व तत्वों की गतिविधियों पर रोक लगाने की जरूरत है.

खौफ में जी रहे हैं पत्रकार
हमारे दौरे से पहले एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया की फैक्ट फाइंडिंग टीम ने 13-15 मार्च तक बस्तर का दौरा किया था. इसने बड़ी संख्या में वहां के पत्रकारों से बात की, जिनमें से एक सुब्बा राव को छोड़कर सभी ने यह स्वीकार किया कि वे स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उन पर पुलिस औए नक्सलियों दोनों का दबाव रहता है. उनके फोन टेप किये जाते हैं और अघोषित रूप से निगरानी रखी जाती हैं. प्रतिष्ठित अखबार 'देशबंधु' के संपादक ललित सुरजन ने टीम को बताया कि अगर आप स्वतंत्र रूप से तथ्यों का विश्लेषण करना चाहे, तो वे सीधे-सीधे पूछते हैं कि आप सरकार के साथ हो या माओवादियों के? बीबीसी के पत्रकार आलोक पुतुल ने जब एक खबर के लिए एसआरपी कल्लूरी का पक्ष जानना चाह, तो उन पर न सिर्फ पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग का आरोप लगाया गया, बल्कि यह भी कहा गया कि 'देशभक्त' मीडिया पुलिस के साथ हैं. इसके बाद उन्हें तुरंत वह इलाका छोड़ देने की धमकी दी गई.

और यह 'देशभक्त' मीडिया कौन है? ये सुब्बा राव हैं, जो दो दैनिक अखबारों के कथित रूप से संपादक हैं और 'सामाजिक एकता मंच' के संयोजक भी हैं. एडिटर्स गिल्ड की टीम को उन्होंने बताया कि मूल रूप से वह एक ठेकेदार हैं और कई सरकारी काम उनके पास हैं. इन महाशय को ही पत्रकारिता के पेशे में पुलिस से कभी कोई दिक्कत नहीं आई. इस मंच के दूसरे नेता मनीष पारख है, जो जगदलपुर से भाजपा विधायक संतोष बाफना के रिश्तेदार हैं और राजस्थान के निवासी हैं. बेला भाटिया को 'बाहरी' कहकर हमला करने वालों में इनकी प्रमुख भूमिका थी.

राजनैतिक पहलकदमी जरूरी
आज बस्तर माओवादियों और राजकीय दमन के बीच पिस रहा है और निर्दोष आदिवासी इसके बर्बर शिकार हो रहे हैं. इसलिए आज यहां एक ऐसी राजनैतिक पहलकदमी की जरूरत है, जो शांति व विकास के लक्ष्य को केन्द्र में रखकर ऐसी जनतांत्रिक प्रक्रिया को उन्मुक्त करें, जो आम जनता के राजनैतिक, नागरिक व मानवाधिकारों को तरजीह दें तथा राजकीय दमन के खिलाफ जनतांत्रिक विरोध की आवाज को जगह दें. नक्सलवाद के खिलाफ लड़ने के लिए एक व्यापक राजनैतिक सहमति बनाने के लिए ' राजनैतिक असहमतियों ' का आदर किये बिना सरकार आम जनता का विश्वास नहीं जीत सकती. लेकिन भाजपा सरकार से क्या यह अपेक्षा की जा सकती हैं कि वह जनतंत्र की रक्षा के लिए मानवाधिकारों तथा नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी?

बाबा साहेब की प्रासंगिकता

बाबा साहेब की प्रासंगिकता 

डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर भारतीय समाज के दलित-शोषित-उत्पीड़ित तबकों के विलक्षण प्रतिनिधि थे, जिन्होंने हिन्दू धर्म में जन्म तो लिया, लेकिन एक हिन्दू के रूप में उनका निधन नहीं हुआ. एक हिन्दू से गैर-हिन्दू बनने की उनकी यात्रा उनकी स्थापित मूर्तियों में साकार होती हैं, जिसमें वे पश्चिमी पोशाक के साथ संविधान हाथ में लेकर, आधुनिक भारतीय समाज का दिशा-निर्देशन करते दिखते हैं. लेकिन उनकी यह यात्रा महज उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, बल्कि वे समूचे भारतीय दलित-वंचित तबकों के दमन के विरूद्ध संघर्षों के नायक के रूप में सामने आते हैं. दलित-वंचित तबकों का यह संघर्ष केवल जातिवाद की बेड़ियों से मुक्ति के लिए नहीं है, इस संघर्ष में केवल आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने का सवाल ही निहित नहीं हैं; बल्कि यह संघर्ष एक ऐसी समाज-व्यवस्था के निर्माण का संघर्ष हैं, जहां मनुष्य को मनुष्य के रूप में सम्मान और इज्जत मिले, जहां पददलित-वंचित तबके के लोगों को मानवीय गरिमा के साथ जीने और अपना समग्र विकास करने का अधिकार मिले. ऐसी व्यवस्था के निर्माण के संघर्ष के सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक आयाम होते हैं.

इस दृष्टि से बाबा साहेब ने जिस संघर्ष की शुरूआत की थी, वह संघर्ष आज भी अधूरा है और अपनी मंजिल पाने को लड़ रहा है. देश की राजनैतिक आज़ादी के बाद भी वह संघर्ष अधूरा है, तो इसलिए कि हमारे शासक वर्ग ने "गोबर के ढेर पर महल का निर्माण" करने की कोशिश की. नतीजा, आज़ादी के बाद और संविधान के दिशा-निर्देशन के बाद भी, एक ऐसे समतावादी समाज के निर्माण में हम असफल रहे हैं, जो सामाजिक न्याय और दलित-वंचित तबकों की मानवीय गरिमा को सुनिश्चित कर सके.

20 नवम्बर, 1930 को गोलमेज अधिवेशन में बाबा साहेब ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद की इन शब्दों में मुखालफत करते हुए 'राजसत्ता' पर अधिकार की मांग की थी -- "... अंग्रेजों के आने के पहले हमारी दलितों की जो स्थिति थी, उसकी तुलना यदि हम आज की परिस्थितियों से करते हैं, तो हम पाते हैं कि आगे बढ़ने के बजाये हम एक स्थान पर कदमताल कर रहे हैं. अंग्रेजों के आने के पहले छुआछूत की भावना के चलते हमारी सामाजिक स्थिति घृणास्पद थी. उसे दूर करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कुछ किया क्या? अंग्रेजों के आने से पहले हमें मंदिरों में प्रवेश नहीं मिला था. वह हमें आज मिल रहा है क्या?..."
अम्बेडकर आज जीवित होते, तो फिर यही सवाल करते कि आज़ादी से पहले जो स्थिति दलित-वंचितों की थी, आज भी वह जस-की-तस है, तो क्यों? क्यों आज रोहित वेमुला आत्म-हत्या कर रहे हैं और क्यों दलित-दमन के अपराधी कोर्टों से बाइज्जत बरी हो रहे हैं?? क्यों आज भी दलित और महिलायें मंदिर प्रवेश के लिए संघर्ष कर रही हैं और क्यों संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद आज नौकरियों में आरक्षित सीटें खाली है??? वे यह भी पूछते कि आज संविधान की जगह मनुस्मृति को स्थापित करने की कोशिशें क्यों चल रही हैं और क्यों आज भी जनता का बहुमत तबका आर्थिक न्याय और न्यूनतम वेतन तक से वंचित हैं?

आज बाबा साहेब नहीं हैं, लेकिन इन सवालों का जवाब अब अंग्रेजों को नहीं , संघ-निर्देशित भाजपा सरकार को देना है, जिसके मुखिया नरेन्द्र मोदी हैं. यही वह संघी गिरोह हैं , जो 'फेंकने' में तो आगे हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि बाबा साहेब के ' धर्म-निरपेक्ष भारत ' को, ' हिंदू राष्ट्र ' में बदलने के लिए ज़हरीला अभियान चला रही है, जिसके बारे में बाबा साहेब ने कहा था -- " अगर इस देश में हिन्दू राज स्थापित होता है, तो यह एक बहुत बड़ी आपदा होगी. ... हिन्दू धर्म स्वतंत्रता का दुश्मन है. हिंदूराज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए." जो चुनौती बाबा साहेब के सामने थी, वही चुनौती अपने आकार में कई गुना बढ़कर आज हमारे सामने उपस्थित हैं. बकौल, के सी सुदर्शन (संघ के पूर्व सरसंघचालक) -- " भारत का संविधान हिन्दूविरोधी है. ... इसलिए इसको उठाकर फेंक देना चाहिए और हिन्दू ग्रंथों के पवित्र ग्रंथों पर आधारित संविधान को लागू किया जाना चाहिए." इसीलिए संघी गिरोह गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का अभियान चलाता है, जिसे अम्बेडकर ने 'प्रतिक्रांति का दर्शन' कहा था. इसीलिए जब-जब संविधान पर संघी गिरोह हमला करता है और उसकी समीक्षा करने की बात करता है, इस देश के दलित-उत्पीड़ित-वंचित तबके 'मनुस्मृति' को जलाने के लिए आगे आते हैं. प्रकारांतर से यह लड़ाई एक पुरातनपंथी वर्ण व्यवस्था को स्थापित करने के प्रयत्नों के खिलाफ एक वैज्ञानिक-चेतना संपन्न समतावादी आधुनिक भारत के निर्माण के प्रयास के लिए संघर्ष में तब्दील हो जाती है.

यह संघर्ष कितना कटु है, इसका अंदाज़ केवल इस तथ्य से लगा सकते हैं कि संघी गिरोह भारतीय जन-मानस में आये किसी भी प्रगतिशील-वैज्ञानिक चेतना के अंश को मिटा देना चाहता है. 6 दिसंबर, जो कि बाबा साहेब का निर्वाण दिवस भी है, को बाबरी मस्जिद का विध्वंस कोई आकस्मिक कार्य नहीं, बल्कि सुनियोजित षडयंत्र था. यह संघी कुकृत्य बाबा साहेब के संविधान पर हमला भी था और उनकी स्मृति को जनमानस से पोंछने का प्रयास भी. आज वे बाबा साहेब की समूची विचारधारा को हड़पने का अभियान चला रहे हैं और इस क्रम में हास्यास्पदता की हद तक जाकर वे उन्हें संघ-संस्थापक डॉ. हेडगेवार के 'सहयोगी' के रूप में चित्रित कर रहे हैं तथा दुष्प्रचार कर रहे हैं कि उन्हें संघ की विचारधारा में विश्वास था. जबकि बाबा साहेब के किसी भी सामाजिक-राजनैतिक अभियान/संघर्षों में 'काली टोपी, खाकी निक्कर'-वालों की कोई भागीदारी नहीं मिलती. अम्बेडकर तो क्या, देश के किसी भी स्वाधीनता संग्राम सेनानी से साथ संघियों का कभी कोई इन संबंध ही नहीं रहा हैं, क्योंकि इस समूची अवधि में 1925 से लेकर 1947 तक वे अंग्रेजों के साथ ही खड़े रहे और स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ अंग्रेजों की मुखबिरी करते रहे. आज़ादी के बाद भी, हिन्दू कोड बिल के मामले में उन्होंने बाबा साहेब के पुतले जलाने तथा उन्हें धिक्कारने का ही काम किया था.

इस प्रकार, बाबा साहेब की विचारधारा का संघी गिरोह की 'वर्णाश्रमी समाज-व्यवस्था और हिन्दू-राष्ट्र के निर्माण की कल्पना'-वाली विचारधारा से सीधा टकराव है. दलित-शोषित-उत्पीड़ित व वंचितों का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष जितना तेज होगा, यह टकराव भी उतना ही बढेगा.

इस संघर्ष को तेज करने और आगे बढ़ने के लिए मनुष्य को शोषण से मुक्त करने की चाहत रखने वाली सभी ताकतों को एक साथ आना होगा. अपने जीवन काल में ही अम्बेडकर ने इसे समझ लिया था. 1927 में महाड के तालाबों के पानी के लिए जो विशाल सत्याग्रह हुआ और जिसमें 'मनुस्मृति' को जलाया गया, उस आंदोलन में ब्राह्मणों के शामिल होने के बारे में बाबा साहेब ने कहा था --" जन्म से ऊंची और नीची भावनाओं का बना रहना ही ब्राह्मणवाद है. ...हम ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं हैं. हम ब्राह्मणवाद के विरोधी हैं. ...हमारे इस आंदोलन में कोई भी, किसी भी जाति का व्यक्ति भाग ले सकता है."

उल्लेखनीय है कि बाबा साहेब के जीवन में उदार और ब्राह्मण समाज-सुधारकों का भी बहुत योगदान रहा था. स्वयं बाबा साहेब ने 'अम्बेडकर' सरनेम एक ब्राह्मण शिक्षक से लिया था, जो एक नेक दिल इंसान थे और जिन्होंने उनकी पढ़ाई में काफी मदद की थी.

बाबा साहेब के चिंतन का दायरा केवल जाति-दायरे तक सीमित नहीं था. अपने सामाजिक चिंतन को उन्होंने अर्थनीति और राजनीति से भी जोड़ा. उन्होंने किसानों व मजदूरों का मुद्दा उठाया, कम्युनिस्टों द्वारा हडताल का समर्थन किया तथा कोंकण में जमींदारी प्रथा का विरोध किया. उन्होंने जिस पहली राजनैतिक पार्टी -- इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी -- का गठन किया तह, उसका झंडा कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे की तरह ही लाल रंग का था. उन्होंने कहा, " राजनीति वर्ग चेतना पर आधारित होनी चाहिए. जिस राजनीति में वर्ग चेतना ही न हो, वह राजनीति तो महज ढोंग है. इसलिए आपको ऐसी राजनैतिक पार्टी से जुड़ना चाहिए, जो वर्गीय हितों व वर्गीय चेतना पर आधारित हो."

13 फरवरी, 1938 को नासिक में रेलवे दलित वर्ग कामगार सम्मलेन में बोलते हुए उन्होंने कहा --" मेरे ख्याल से ऐसे दो शत्रु हैं, जिनसे इस देश के मजदूरों को निपटना ही होगा. वे दो शत्रु हैं -- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद. ... यदि समाजवाद लाना है, तो इसे लाने का सही तरीका है -- इसे जन-जन तक प्रचारित करना और आमजनों को इस उद्देश्य के लिए संगठित करना. समाजवाद गिने-चुने कुलीन वर्गों या भद्रजनों को रिझाने-फुसलाने से तो नहीं आयेग."

1937-38 में बाबा साहेब ने कम्युनिस्टों के साथ मिलकर किसानों की बड़ी-बड़ी रैलियां की. इन रैलियों में प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता  शामलाल परूलेकर, बी टी रणदिवे, जी एस सरदेसाई तथा एस ए डांगे ने भी हिस्सा लिया. खोट प्रथा को समाप्त करने तथा साहूकारी शासन को हटाने की मांग को लेकर 12 मार्च, 1938 को बंबई में 20000 किसानों ने पदयात्रा की. कम्युनिस्टों व क्रांतिकारियों के प्रभाव को रोकने के लिए बंबई प्रांत के कांग्रेस मंत्रालय ने औद्योगिक विवाद विधेयक पेश किया. इसके खिलाफ व्यापक अभियान चलाया गया. 7 नवम्बर को हड़ताल आयोजित की गई और इसके आयोजन के लिए आईएलपी, कम्युनिस्टों तथा उदारवादियों की संयुक्त समिति गठित की गई. हड़ताल जबरदस्त रूप से सफल रही. एक लाख लोगों की सार्वजनिक रैली आयोजित हुई, जिसे अम्बेडकर व डांगे ने संबोधित किया. इस रैली में दलित कामगारों ने पूरी तरह से भाग लिया. रैली में पुलिस के साथ हुई झड़प में 683 मजदूर घायल हुए थे. बंबई में मृत कामगारों की स्मृति में कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाली मजदूर यूनियन द्वारा आयोजित जुलूस और सभा में अम्बेडकर भी शामिल हुए.

इस प्रकार, इतिहास में बाबा साहेब के संघियों के साथ नहीं, बल्कि कम्युनिस्टों के साथ संबंधों के ही पुष्ट प्रमाण मिलते हैं.

लेकिन फिर भी यह स्पष्ट है कि बाबा साहेब मार्क्सवादी नहीं थे और कम्युनिस्ट भी अम्बेडकर की विचारधारा के अनुयायी नहीं है. शोषण से मानवता की मुक्ति की चाहत रखने वाली ये दोनों धाराएं कालांतर में समानांतर और सशक्त रूप से विकसित हुई. पहले के लिए जातिप्रथा का उन्मूलन सर्वोच्च था, दूसरे के लिए वर्गीय शोषण के खिलाफ संघर्ष का महत्त्व था. लेकिन स्वतंत्रता के बाद का अनुभव बताता है कि दोनों संघर्ष एक-दूसरे के पूरक हैं और संघर्ष की इन दोनों धाराओं में समन्वय आज सबसे बड़ी जरूरत है. जातिवाद के खिलाफ लड़ाई छेड़े बिना मजदूर के दिल में बैठे "ब्राह्मणवाद" को मारा नहीं जा सकेगा. यह 'ब्राह्मणवाद' वर्गीय एकता का सबसे बड़ा दुश्मन है, जो एक मेहनतकश को दूसरे मेहनतकश से अलग करता है. इसी प्रकार, वर्ग संघर्ष को तेज किये बिना संपत्ति के असमान वितरण की समस्या से नहीं जूझा जा सकता, क्योंकि वर्गीय शोषण जातीय भाईचारा नहीं देखता और अपने आर्थिक प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए एक धनी दलित दूसरे गरीब दलित के शोषण से भी नहीं हिचकता. इसलिए वर्गीय दृष्टि से शोषित वर्ग की सामाजिक दृष्टि से दलित-वंचित-उत्पीड़ित तबकों के साथ एकता समाज के रूपांतरण के लिए बहुत जरूरी है -एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए जहां सामाजिक न्याय, आर्थिक स्वतंत्रता व राजनैतिक अधिकार सुनिश्चित किये जा सके.

1890 में ज्योतिबा फुले ने कहा था -- " शिक्षा के अभाव में ज्ञान का लोप हो जाता है, ज्ञान के अभाव में विकास का लोप हो जाता है, विकास के अभाव में धन का लोप हो जाता है, धन के अभाव में शूद्रों का विनाश हो जाता है."  ज्योतिबा का यह कथन आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को जोड़ने की राह दिखाता है.

आज ये दलित-उत्पीड़ित-वंचित तबके उत्पादन के साधनों व क्रय-शक्ति की सामर्थ्य - दोनों से वंचित हैं. जमीन पर अधिकार का मुद्दा इस तबके को एकजुट करता है और उसे वर्गीय शोषण और जातीय उत्पीड़न से लड़ने के लिए प्रेरित करता है. जल, जंगल, जमीन, खनिज व अन्य प्राकृतिक संसाधनों को जिस प्रकार कार्पोरेट लूट के हवाले किया जा रहा है और इस लूट को सुनिश्चित करने के लिए जिस प्रकार संविधान के बुनियादी आधारों पर हमला किया जा रहा है, उसके खिलाफ संघर्ष केवल वामपंथी तथा अम्बेडकर की विचारधारा से प्रतिबद्ध ताकतें ही चला सकती हैं. लाल रंग वर्ग संघर्ष का और नीला रंग सामाजिक न्याय का प्रतीक है. लाल और नीले की एकता -- कुंओं और कारखानों, खेतों व मंदिरों पर लाल व नीले झंडे की फरफराहट -- ही इस देश में बुनियादी परिवर्तन के संघर्ष को आगे बढ़ा सकती हैं. यही समय की मांग है. इसी मायने में बाबा साहेब आज भी प्रासंगिक हैं.