Saturday 19 December 2015

तेल कहे मोदी से, तू क्या मांगे मोर...

जून 2014 में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत थी 105 डॉलर प्रति बैरल, जो आज दिसम्बर 2015 में घटकर 34.39 डॉलर प्रति बैरल रह गयी है. डेढ़ सालों में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के कच्चे तेल की कीमतों में 67.25% की गिरावट आई है.
जून 2014 में देश में पेट्रोल की कीमत थी 71.51 रूपये प्रति लीटर तथा डीजल की कीमत थी 57.28 रूपये प्रति लीटर. इन कीमतों में सभी प्रकार के सरकारी टैक्स मिले हुए थे.
यदि देश में बिकने वाली पेट्रोल-डीजल की कीमतों का सीधा संबंध अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से है, तो उक्त कीमतों में 67.25% की गिरावट आनी चाहिए थी. ...और तब पेट्रोल की कीमत होती 23.40 रूपये और डीजल की 18.76 रूपये प्रति लीटर -- सभी प्रकार के टैक्सों को मिलाकर.
लेकिन वास्तव में आज पेट्रोल की कीमत है 60.48 रूपये और डीजल की 46.55 रूपये प्रति लीटर -- अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर आधारित कीमतों की गणना से क्रमशः 2.6 और 2.5 गुना. इसका एकमात्र कारण यही है कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत में गिरावट होते ही सरकार ने एक बार फिर पेट्रोल-डीजल पर सरकारी टैक्स बढ़ा दिया है. अब आम जनता पेट्रोल पर प्रति लीटर 19.36 रूपये और डीजल पर 11.83 रूपये प्रति लीटर उत्पाद शुल्क चुका रही है.
फेंकू महाराज का तर्क है कि उत्पाद शुल्क बढाकर वह बजट घाटे की भरपाई करेगी, जबकि वास्तविकता यह है कि यह बजट घाटा इसलिए है कि हर साल पूंजीपतियों को 5-6 लाख करोड़ रुपयों की छूट करों में दी जा रही है.
अब कांग्रेस की तरह ही आरएसएस-भाजपा सरकार की नीति भी स्पष्ट है -- आम जनता को निचोड़कर पूंजीपतियों की तिजोरियों को भरो. यही कारण है कि मोदी के डेढ़ साल के राज में अदानी की संपत्ति तो डेढ़ गुना हो गई, लेकिन आम जनता और कंगाल हो गई.
ये वे धनकुबेर हैं, जो न तेल का उत्पादन करते हैं और न ही खपत. वे केवल तेल से खेलते है और मालामाल हो रहे हैं.

Friday 4 December 2015

बहुलतावाद की रक्षा में व्योमेश का सांस्कृतिक हस्तक्षेप


एक कृति के कितने पाठ हो सकते हैं ? निश्चय ही उतने, जितनी एक घटना की व्याख्याएं. कई-कई पाठ और कई-कई व्याख्याएं बहुलतावाद को जन्म देती है. इन पाठों और व्याख्याओं का एक साथ रहना-गुनना ही सहनशीलता की संस्कृति को जन्म देता है. आज यही संस्कृति हिंदुत्ववादियों के निशाने पर है. वे अपनी एकरंगी व्याख्या से बहुलतावाद को हड़पना चाहते हैं और इस कोशिश में वे हमारी संस्कृति के महानायकों का भी हरण करने से नहीं चूक रहे हैं. वे महात्मा गांधी और भगतसिंह का हरण कर रहे हैं, तो ' महाप्राण ' निराला को भी उग्र हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं. निराला को हड़पने की कोशिश में वे ' वह तोड़ती पत्थर ' को ठुकराते हैं, ' राम की शक्ति-पूजा ' का सहारा लेते हैं.
आधुनिक हिंदी साहित्य में निराला का एक विशेष स्थान है. ' राम की शक्ति-पूजा ' उनकी कालजयी रचना है. लेकिन ये राम न वाल्मिकी के ' अवतारी ' पुरूष हैं और न तुलसी के ' चमत्कारी ' भगवान ' . वे महज़ एक संशययुक्त साधारण मानव है, जो लड़ता है, हताश-निराश होता है, फिर प्रकृति से शक्ति प्राप्त करता है और शक्ति के संबल से विजय प्राप्त करता है. द्वितीय विश्व युद्ध में आम जनता के आत्मोत्सर्ग से हिटलर के नेतृत्व वाली फासीवादी ताकतों की पराजय सुनिश्चित होती है. इस विश्व युद्ध की पूर्वबेला में निराला ' राम की शक्ति-पूजा ' करते हैं. वे मानस के कथा-अंश को नए शिल्प में ढालते हैं.
लोक परंपरा से मिथक शक्ति ग्रहण करते हैं. यदि ये मिथक गलत हाथों में चले जाएं, तो उसका दुरूपयोग संभव है. भारतीय राजनीति की हकीकत भी आज यही है कि यहां गलत हाथों में मिथक चले गए हैं और पूरी राजनीति ' राम ' और ' गाय ' के मिथकों के सहारे लड़ी जा रही है. इसीलिए बहुलतावादी संस्कृति की रक्षा में इन मिथकों के पुनर्पाठ, पुनर्व्याख्या की जरूरत है.
व्योमेश शुक्ल का रंगमंच इसकी पूर्ति करता है. भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक ताकतें जिन मिथकों का सहारा ले रही हैं, उन्हीं मिथकों का सहारा वे उन्हें पछाड़ने के लिए कर रहे हैं. अपनी बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे दिनकर, प्रसाद, निराला और भास तक जा रहे हैं और रंगमंच पर राम और महाभारत का बहुलतावादी पुनर्सृजन कर रहे हैं. भारतीय संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे बहुत कुछ तोड़ रहे हैं, बहुत-कुछ जोड़ रहे हैं और इस जोड़-तोड़ से रंगमंच की लोक परंपरा को पुनर्सृजित कर रहे हैं. इस पुनर्सृजन में वे सितारा देवी के ' हनुमान परन ' का भी उपयोग कर रहे हैं, ' राणायनी संप्रदाय ' के बापटजी के ' सामगान ' का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, तो पंडित जसराज के भजन भी उनके रंगमंचीय साधन है. लेकिन लोक परंपरा के इस पुनर्सृजन धार्मिकता कहीं हावी नहीं है. वे राम की एक ऐसी लोक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, जो देश-काल-धर्म के परे स्थापित होती है. राजनीति और संस्कृति में धर्म के इस्तेमाल के खतरे से वे वाकिफ हैं. उन्हें मालूम है कि राजनीति का चेहरा गहरे अर्थों में सांस्कृतिक भी होता है और यदि संस्कृति के क्षेत्र में धर्म को हावी होने दिया जाएगा, तो राजनीति के चेहरे को सांप्रदायिक होने से कौन रोक सकता है ?
सो, व्योमेश शुक्ल की ' राम की शक्ति-पूजा ' निराला की साहित्यिक परंपरा का रंगमंचीय सृजन है. उनकी यह नृत्य-नाटिका अभिनय और नृत्य का अदभुत मिश्रण है. पात्रों का रंगाभिनय मूक अभिनय का निषेध करता है और नृत्य के लय-ताल-गति को स्थापित करता है. शास्त्रीय संगीत में डूबी बनारसी राम लीला के इस मंचन में भरतनाट्यम और छाऊ नृत्यों का अदभुत संगम स्थापित किया गया है.
व्योमेश शुक्ल की कल की दूसरी प्रस्तुति ' पंचरात्रम ' भी महाभारत के एक दूसरे पाठ को सामने लाती है, जिसकी रचना महाकवि भास ने की है. यहां " सुईं के नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा " का अंध-राष्ट्रोंन्माद नहीं है, बल्कि द्रोणाचार्य को दक्षिणा के रूप में आधे राज्य को देने को तैयार दुर्योधन खड़ा है. यहां दुर्योधन की ओर से लड़ने वाला अभिमन्यु है, जो विराट के गायों के अपहरण के लिए अर्जुन से लड़ता है और भीम से पराजित होता है. पांच दिनों में पांडवों को खोजने की दुर्योधन की शर्त पूरी होती है और पांडवों को आधा राज्य मिलता है. भास की यह कृति ' महाभारत ' का निषेध है. जिसका साहसिक मंचन कल व्योमेश ने किया. इस देश में जब बहुलतावाद और सहिष्णुता की संस्कृति संघी गिरोह के निशाने पर है, व्योमेश के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप की सराहना की जानी चाहिए.
(लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही)

दानिश इकबाल की ' अकेली '


दिल्ली के ' सदा आर्ट्स सोसाइटी ' के दानिश इकबाल कला-जगत की एक प्रतिभाशाली हस्ती है. रंगमंच के साथ ही वे टीवी, फिल्म व रेडियो से भी जुड़े हैं. लेकिन रंगमंच ने उन्हें विशेष पहचान दी है. सारा का सारा आसमान, सारांश, कैदे-हयात, शास्त्रार्थ, डांसिंग विथ डैड, अ सोल सागा जैसे प्रसिद्ध  नाटक उनके खाते में है. संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत तथा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित दानिश के तीन नाटक सर्वश्रेष्ठ नाटक के पुरस्कार से भी नवाजे जा चुके हैं. बाजारीकरण के इस दौर में भी दानिश रंगमंच से जुड़े हैं, तो यह उनका जूनून ही है.

रायपुर इप्टा द्वारा 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह के पांचवें दिन उनकी प्रस्तुति ' अकेली ' ने रंग-दर्शकों को बंबईया टीवी सीरियल का अहसास दिलाया. इस नाटक ने दिल्ली में खूब प्रसिद्धि पाई है, जहां लोग ऊंची दरों पर भी टिकेट खरीदकर नाटक देखने जाते हैं. raipur के मुक्ताकाशी मंच पर रंग-दर्शक मुक्त रूप से मुफ्त आवाजाही करते हैं. दोनों प्रकार के रंग-दर्शकों का रंग-मानस अलग-अलग होता है. क्योंकि दर्शक समुदाय के चरित्र की भिन्नता इसमें निहित रहती है. अतः यह जरूरी नहीं कि दिल्ली का प्रसिद्ध नाटक रायपुर के रंगमंच पर भी जमे. हुआ भी ऐसा ही, लेकिन इसमें निर्देशक दानिश इकबाल का कोई कसूर नहीं था.

वास्तव में विभिन्न शहरों और विभिन्न दर्शक-समुदायों का रंग-स्वाद अलग-अलग होता है.दिल्ली का जो रंग-दर्शक अल्पना की समस्या से जुड़ाव महसूस करता है, वैसा ही जुड़ाव रायपुर का रंग-दर्शक महसूस नहीं कर पाता और वह केवल नाटक के हास्य-व्यंग्य का मजा लेता है. दिल्ली का रंग-दर्शक ' एलीट ' है और raipur का ' मध्यम, मजदूर वर्गीय '. दिल्ली के दर्शक के लिए अल्पना की शादी की समस्या वास्तविक हो सकती है, लेकिन रायपुर के दर्शक के  लिए नहीं. रायपुर की ' अकेली ' महिला की समस्या सिर्फ शादी की नहीं होती, वह घर-बाहर -- नाते-रिश्तेदारों के बीच, घर और ऑफिस के बीच, ऑफिस के अंदर -- सब जगह अलग किस्म की समस्याओं का सामना करती है. उसका ' अकेलापन ' सधवा अकेली से भी नितांत भिन्न होता है. इसीलिए दानिश कि ' अकेली ' यहां रंग-दर्शकों को छू नहीं पाई. 
                                                     (लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही)

जीवन के अर्थ खोजती ' सारांश '


वह महेश भट्ट की फिल्म थी -- उनकी सबसे प्रिय फिल्म, जिसके जरिये 28 साल की उम्र में अनुपम खेर ने फिल्म जगत में प्रवेश किया था. लेकिन यह दानिश इकबाल का नाटक था, जिसे उन्होंने महेश भट्ट के मार्गदर्शन में ही तैयार किया है. इस प्रकार यह एक मिली-जुली कृति है. खचाखच खरे रायपुर के मुक्ताकाशी मंच पर रंग दर्शक सांस थामे मंचन देखते रहे. जबरदस्त तालियों के साथ उन्होंने दिल खोलकर कलाकारों के अभिनय की सराहना की. फिल्म पर रंगमंच का पलड़ा भारी दिखा.
ऊपरी तौर पर यह एक रिटायर्ड हेड मास्टर बी वी प्रधान की कहानी है, जो अपने बेटे की अकारण हत्या के बाद अपनी पत्नी पार्वती के साथ मिलकर जीवन के नए अर्थों की तलाश करता है. इस ' तलाश ' में वह टूटता-बिखरता है, लेकिन हारता नहीं. वह अपनी पत्नी के चेहरे की झुर्रियों में अपने जीवन का ' सारांश ' खोजता है.
लेकिन गहरे अर्थों में यह आज़ादी के बाद बने पतनशील समाज की कहानी है, जिसके मूल्य बिखर रहे हैं, सपने हवा हो रहे हैं. इस समाज पर भ्रष्टाचार का रोग लगा है. राजनीति पर अपराधीकरण हावी है और इस राजनीति का मुख्य लक्ष्य केवल चुनाव जीतना और पैसे बनाना रह गया है. यह राजनीति इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि कोख में पनप रहे बच्चे की भी हत्या पर वह उतारू है.
लेकिन पतनशीलता के खिलाफ एक लड़ाई हमेशा जारी रहती है. अपने बेटे अजय की हत्या प्रधान और उसकी पत्नी भूल नहीं पाते. सुजाता की कोख में पार्वती अपने बेटे अजय को देखती है.दोनों मिलकर इस बच्चे को जन्म देना ठानते हैं. लेकिन प्रधान नहीं चाहते कि उनकी पत्नी कल्पना-स्वप्न में जीयें. वे कठोरता से सुजाता व विलास को घर से अलग करके बच्चे का जन्म सुनिश्चित करते हैं. प्रधान दंपत्ति जिंदगी का सामना करने फिर से तैयार होते हैं, क्योंकि मृत कभी वापस नहीं आते और जीवन असीमित है.
' सारांश ' में अनुपम खेर ने प्रधान की भूमिका निभाई थी और असहिष्णुता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. जिस संघर्ष को उन्होंने परदे पर लड़ा -- वह केवल अभिनय था, वास्तविक नहीं. वास्तविकता तो यह है कि आज वे असहिष्णुता की उन्हीं ताकतों के साथ हैं, जो न केवल राजनैतिक गुंडागर्दी कर रही है, बल्कि उनका बस चले तो अपनी विरोधी ताकतों को ' देशनिकाला ' दे दें. पर्दे पर वे अपने बेटे अजय की हत्या से विचलित दिख सकते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में एक अफवाह पर भीड़ द्वारा इखलाक की हत्या कर देने से वे विचलित नहीं होते. वे उस राजनीति के पक्ष में खड़े हैं, जो इखलाक, पानसारे, कलबुर्गी की हत्या के लिए जिम्मेदार है. वे उन लोगों की अगुवाई कर रहे हैं, जो इस समाज की ' उदार ' मानसिकता को ' असहिष्णु ' मानसिकता में बदल देना चाहते हैं और जो ताकतें असहिष्णुता के खिलाफ लड़ रही है, उन्हें ही ' असहिष्णु ' बताते हुए गरिया रही है. यह जरूरी भी नहीं कि एक अच्छा अभिनेता, एक अच्छा इंसान भी हो.
अनुपम खेर के ' सारांश ' से एकदम जुदा है दानिश इकबाल का ' सारांश ' . फिल्म का नायक तो आज खलनायक बन चूका है और रंगमंच आज नायक की भूमिका अदा कर रहा है -- एक ' असहिष्णु ' समाज के निर्माण के प्रयासों के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ रहा है.
यह मुक्तिबोध के नाम पर आयोजित इप्टा के 19वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आखिरी दिन था, जिस पर समर्पण और श्रद्धांजलि विवाद हावी रहा. लेकिन कलबुर्गी, पानसारे-जैसे इस देश के अप्रतिम योद्धाओं के लिए न कोई श्रद्धांजलि थी, न कोई समर्पण. कहीं यह इप्टा के जेबी संगठन बनने और वैचारिक क्षरण का लक्षण तो नहीं ? मुक्तिबोध आज इप्टा से ही पूछ रहे हैं -- किस ओर खड़े हो तुम ? दंगाईयों के साथ या दंगों के खिलाफ ?? इप्टा को आज मुक्तिबोध के ' अंधेरे में ' को समझना बहुत जरूरी है.

(लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही)

Thursday 3 December 2015

' अकाल-उत्सव ' मनाने की तैयारी में सरकार



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गरीबी
 छत्तीसगढ़ की विडम्बना है कि सरकारी उत्साह व जमीनी हकीक़त में जमीन-आसमान का अंतर होता है. अब धान खरीदी के सवाल को ही लें. छत्तीसगढ़ अकाल की भयंकर चपेट में है और 150 में से 117 तहसीलों की सरकारी आनावारी रिपोर्ट 50 पैसे से भी कम है, लेकिन रमन सरकार ने 70 लाख टन धान खरीदी का लक्ष्य निर्धारित किया है. इस प्रदेश में धान का औसत उत्पादन लगभग 115 लाख टन होता है. स्पष्ट है कि अकाल के कारण इस बार इसकी आधी पैदावार भी नहीं हुई है, लेकिन खरीदी का लक्ष्य कुल उत्पादन से भी ऊंचा है!! जाहिर है कि धान को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार जो ढ़ोल पीट रही है वह हकीकत से कोसों दूर है.
सरकार द्वारा धान खरीदी के घोषित आंकड़े यही बता रहे हैं. ढाई माह की खरीदी अवधि के प्रथम चरण में अभी तक 8.453 लाख टन धान की ही प्रदेश में खरीदी हुई है. खरीदी की यदि यही रफ़्तार रही, तो अधिकतम 40 लाख टन धान की ही खरीद की जा सकेगी. यह अनुमान भी वास्तविक धान उत्पादन की मात्रा के संगत में नहीं है.
लेकिन इस संभावित खरीदी के रास्ते में भी सरकार की नीतियां ही सबसे बड़ी बाधा है. अकाल राहत के नाम पर अभी तक कोई समुचित कदम नहीं उठाये गए हैं. इस प्रदेश में ऋणग्रस्तता किसानों की सबसे बड़ी समस्या है और एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में हर किसान परिवार पर औसतन 7.5 लाख रुपयों का क़र्ज़ चढ़ा हुआ है. यह क़र्ज़ देश में सबसे ज्यादा है. यह क़र्ज़ संस्थागत भी है और महाजनी भी. लेकिन क़र्ज़ मुक्ति तो दूर की बात, क़र्ज़ वसूली में राहत के लिए भी अभी तक कोई कदम नहीं उठाये गए हैं.
नतीजा यह हैं कि सहकारी समितियां किसानों से जबरन क़र्ज़ वसूल रही है. उत्पादन कम होने के कारण प्रत्याशित रकम किसानों के हाथों में नहीं आ रही है और इसलिए वे समितियों में धान बेचने से इनकार कर रहे हैं, भले ही वहां न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी हो. इसलिए निश्चित है कि सरकार अपने लक्ष्य का आधा भी धान इस वर्ष खरीद नहीं पाएगी.
लेकिन नीतिगत रूप से तो सरकार धान खरीदी व सार्वजनिक वितरण प्रणाली की झंझट से ही छुटकारा पाना चाहती है. इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं है. परेशान तो वह किसान है, जिसे मंडियों या बाज़ार में लागत मूल्य भी नसीब नहीं, जिसका धान 1000 रूपये प्रति क्विंटल से ऊपर बिचौलिए देने को तैयार नहीं है. संस्थागत क़र्ज़ की अदायगी से बचने के लिए वह बाज़ार में लुटने को तैयार है, क्योंकि ‘ महाजनी क़र्ज़ ‘ के डंडे से उसे कोई निजात नहीं है. अकाल का मौसम महाजनों और साहूकारों के लिए ‘ अच्छे दिन ‘ लेकर आता है और इस वर्ष वे पूरे उत्साह से ‘ अकाल-उत्सव ‘ मनाने की तैयारी कर रहे हैं.
जो किसान सूखे की मार से कमोबेश कम प्रभावित हुए हैं, वे भी सुखी नहीं हैं, क्योंकि उनकी सरकारी खरीद पर मात्रात्मक प्रतिबन्ध लगा हुआ है. राज्य सरकार ने यह नियम बनाया है कि किसी भी किसान से प्रति एकड़ 15 क्विंटल से ज्यादा धान ख़रीदा नहीं जाएगा, जबकि सिंचित क्षेत्र में उन्नत कृषि के कारण धान की औसत पैदावार 25 क्विंटल से ऊपर चली गयी है. ऐसे किसान भी बाज़ार में लुटने को तैयार बैठे हैं. इस प्रतिबन्ध को हटाकर सरकारी खरीद की मात्रा बढाने में इस सरकार की कोई रूचि नहीं है.
इन्हीं नीतियों का नतीजा है कि हर तीसरे दिन प्रदेश में एक किसान आत्महत्या कर रहा है. पिछले ढाई माह में दो दर्ज़न से ज्यादा किसानों की आत्महत्या व भुखमरी के कारण मौतें हो चुकी हैं. आने वाले दिनों में ऐसी घटनाओं में और तेज़ी आएगी.