Saturday 25 July 2015

अमेरिकी इतिहास भी उतना ही काला है जितना भारतीय वर्तमान


(15 नवम्बर को मंचित नाटक' द फेयर लेडी' की समीक्षा)
रंगभेद अमेरिकी समाज का वैसा ही यथार्थ है जैसा भारतीय समाज का यथार्थ सांप्रदायिकता है। ये बीमारियां मानव समाज का रोगाणु हैं, क्योंकि एक समुदाय के खिलाफ दूसरे समुदाय उत्पीड़न को ये औचित्य प्रदानकरती हैं। इसीलिए चाहे अमेरिका में रंगभेद हो या भारत में जातिभेद औरसांप्रदायिकता, इनके खिलाफ संघर्ष उदात्त मानवीय भावनाओं की रक्षा करने और एक समानतामूलक समाज की रचना करने का एक व्यापक संघर्ष भी है। सदियों से यह संघर्ष चल रहा है और मानव समाज आगे बढ़ रहा है। इस संघर्ष ने अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग और अब्राहम लिंकन को पैदा किया है,तो भारत में अंबेडकर और ज्योतिबा फुले को। भगतसिंह भी इस संघर्ष की उपज थे, जिन्होंने स्पष्ट रुप से मानव द्वारा मानव के और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण को खत्म करने का आह्वान किया था। एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण को खत्म करने के लिए जरूरी है कि नव उप-निवेशवाद और साम्राज्यवाद को खत्म किया जाए, तो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को खत्म करने के लिए जरूरी है कि सामाजिक न्याय की स्थापना किया जाए। नस्ल, धर्म, जाति, भाषा, प्रांत के आधार पर बांटने वाली ताकतों और उनकी विचारधारा के खिलाफ संघर्ष करने की. तभी इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। एक शोषणमुक्त समाज के लिए यह एक वैश्विक संघर्ष है और यह संघर्ष चाहे जहां भी चल रहा हो, एक सच्चे इंसान को इसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए।
यही पक्षधरता 'द फेयर लेडी' के मंचन में रंगदर्शकों ने दिखाई। 18वें मुक्तिबोध नाट्य समारोह के चौथे दिन भोपाल इप्टा की इस प्रस्तुति ने रंगदर्शकों को बांधे रखा। रुचिर शुक्ला ने अपनी निर्देशकीय क्षमता का पूरा प्रदर्शन किया।
मूल नाटक ज्यां पाल सार्त्र का है, जो 20 वीं सदी के ऐसे फ्रांसीसी दार्शनिक थे, जिनके मार्क्सवादी विचारों और विश्लेषण का पूरी दुनिया पर प्रभाव पड़ा। लेकिन उनका दर्शन विश्लेषण साहित्य.संस्कृति से अलग नहीं, बल्कि उसका अभिन्न हिस्सा ही था। 1964 में उनके लिए नोबेल पुरस्कार की भी घोषणा की गई थी, लेकिन इस पुरस्कार के वर्ग.चरित्र से वे अच्छी तरह वाकिफ थे और उन्होंने इसे लेने से इंकार कर दिया था। तब उनकी काफी आलोचना भी हुई थी और उन्हें 'घमंडी' भी कहा गया था। लेकिन नोबेल पुरस्कारों में छिपी राजनीति भी पूरी तरह स्पष्ट हो गई और इसका अवमूल्यन तब पूरी तरह से सामने आ गया, जब ओबामा को विश्व शांति के लिए नोबेल से पुरस्कृत किया गया, जबकि उनकी नीतियां पूरी दुनिया में युद्ध का विध्वंस रच रही थी। ज्यां पाल सार्त्र ने अपनी लेखनी से अमेरिका के 'कालेपन' और 'अनैतिकता' को पूरी शक्ति से उजागर किया। 'द फेयर लेडी' में भी उन्होंने अमेरिकी श्वेत समाज के रंगभेदी पूर्वाग्रहों और अमेरिकी प्रशासन और न्याय व्यवस्था की रंगभेदी पक्षधरता को निर्ममता से उजागर किया है। यह वह वर्ग विभाजित समाज है, जो सामाजिक रुप से गोरे और कालों के बीच बंटा है, जहां श्वेत समाज का अर्थव्यवस्था, न्याय और राजनीति पर पूरा नियंत्रण है, और वह इसका उपयोग कालों के दमन.उत्पीड़न, उनके शोषण और उन पर अपना अमानवीय प्रभुत्व बनाये रखने के लिए करता है। लेकिन यह भी सही है कि गरीब गोरे (यहां वेश्या लिजी) की संवेदना गरीब काले की संवेदना से अलग नहीं है। उसे यह अहसास है कि किस प्रकार निर्दोष कालोें को 'शिकार' बनाया जाता है।
ज्यां पाल सार्त्र ने यह नाटक 1946 में लिखा था। 68 साल बाद भी 'अमेरिकी प्रजातंत्र' की हकीकत बहुत ज्यादा नहीं बदली है। ओबामा के शीर्षस्थ होने के बावजूद नस्लीय घृणा का दौर-.दौरा जारी है और अमेरिकी जेलें कालों से ठसाठस भरी हुई हैं।
चाहते तो दिनेश नायर इस नाटक का भारतीयकरण कर सकते थे और वह ज्यादा प्रभावी, प्रासंगिक और सामयिक होता। भारत में आज जिस रुप में दलित उत्पीड़न है, क्या वह अमेरिकी नस्लीय भेद से कम भयावह है? जिस प्रकार विध्वंसक दंगों के माध्यम से बहुमत समुदाय को अल्पमत समुदाय के खिलाफ खड़ा किया जाता है, वह रंगभेदी मारकाट से कम भयावह है? वास्तविकता तो यही है कि जिस प्रकार रंगभेद अमेरिकी प्रजातंत्र को खोखला कर रहा है, उसी प्रकार जातिभेद और सांप्रदायिकता विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को ध्वस्त कर रही है। भारतीय समाज के यह रोगाणु भारतीय संविधान के आदर्शों और स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को ही चोट पहुंचा रहे हैं और सामाजिक न्याय को बाधित कर रहे हैं।
पात्रों का अभिनय शानदार रहा है। खासकर लिजी की भूमिका में प्रिया उदेनिया, ट्रेवोन ;(नीग्रो) की भूमिका में स्कंद मिश्रा तथा सीनेटर की भूमिका में सुरेश जरगर ने सराहनीय अभिनय किया है। संगीत और प्रकाश ने पात्रों के अभिनय को जीवंत बनाने में अपना योगदान तो किया ही है।
(;लेखक की टिप्पणी.. बतौर एक दर्शक ही)

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