Saturday 25 July 2015

पार्टनर, सांप्रदायिकता पर तुम्हारा रुख क्या है?




जिनके नामों को लेकर हवा बनाने की कोशिश की गई थी, वे नहीं आये। केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल और वीरेन्द्र यादव ने सीधा बहिष्कार कर दिया, तो निदा फाजली अपना प्लेन ही नहीं पकड़ पाये। विष्णु खरे ने तो ‘पत्र बम’ ही फोड़ दिया। चंद्रकांत देवताले ने इस सरकार की सांस्कृतिक नीति पर ही सवाल खड़े कर दिये। भाजपा की नीतियों के प्रति राजेश जोशी की नीति तो जानी-पहचानी ही है, उनके आने का सवाल ही नहीं था। जब इतने सारे आमंत्रित ‘अनागत’ हो गये, तो महोत्सव की ‘महत्ता’ ही क्या रह गई?
लेकिन फिर भी जो आये, उनके आने के ‘लोकतांत्रिक अधिकार’ पर कोई सवाल नहीं। ‘लोकतंत्र’ कोई निरपेक्ष प्रणाली तो है नहीं। तो इस लोकतंत्र के साथ जो ‘अधिकार’ जुड़े हैं, उसके भी ‘निरपेक्ष’ होने का कोई सवाल नहीं। इन ‘अधिकारों’ का उपयोग और दुरूपयोग दोनों हो सकता है- व्यवहार में भी और तर्क प्रणाली में भी। इस तर्क में तो ‘दम’ है कि अंततः सरकारी पैसा आम जनता का ही पैसा होता है, इस पैसे को कुछ खास ‘जेबों’ तक ही क्यों जाने दिया जाये? लेकिन व्यवहार में सभी जानते हैं कि यह सरकारी पैसा ‘खास’ और ‘आम’ में फर्क नहीं करता, वह सबको ‘माल’ में ही बदलने का माद्दा रखता है। ... और जो ‘प्रगतिशील’ माल में ढलकर सरकारी गोदाम में जमा हो गये, वह उनका लोकतांत्रिक अधिकार था और निजी स्वतंत्रता भी। ‘असहमति का सम्मान’ के नारे से किसे गुरेज हो सकता है? यह अलग बात है कि यह नारा वो लोग दे रहे थे, जिन्होंने ‘असहमति’ को हमेशा बर्बर तरीके से कुचला है। इतिहास यह नहीं भूलेगा कि इन्होंने ही मुक्तिबोध की किताबें जलाई थीं और हबीब तनवीर के नाटकों में हंगामा किया था। आज भी वे ऐसा ही कर रहे हैं। आगे भी वे ऐसा ही करेंगे। इसलिए हमारा लोकतंत्र तो यही कहता है कि इस नारे के पीछे छुपे असली मकसद को पहचानो और उसको बेनकाब करो। यदि इस मकसद को पहचानते हुए भी इसको ‘बेनकाब’ करने की हिम्मत नहीं बची, तो समझो ‘सरकारी पैसा’ अपना काम कर गया!!
जिन लोगों ने इस महोत्सव का घोषित ‘बहिष्कार’ किया, उनकी ‘असहमति का सम्मान’ किस तरह किया गया, सब जानते हैं। इनकी लानत-मलानत करने की होड़ लगी थी- मंच पर भी और मंच के बाहर भी। एक ‘अन्तराष्ट्रीय कवि’ ने डबराल पर जिस भद्दे तरीके से अपनी बातें रखीं, मंडप में बैठे साहित्य प्रेमी उससे अवाक थे। जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपनी ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का उपयोग किया, वे भी ऐसे ‘सरकारी साहित्यकारों’ के हमलों से बच नहीं पाये। एक महानुभाव ने तो अशोक वाजपेयी के खिलाफ ‘देशद्रोह’ का मुकदमा ही दायर करने की मांग कर डाली- हिन्दी पर उनके ‘राष्ट्रभाषा’ वाले विचारों पर। डाॅ0 कमल किषोर गोयनका (वे बस बेचारे ‘हिन्दू’ शब्द को उच्चारित नहीं कर पाये) भारतीय संस्कृति और परंपरा की ध्वजा लहराते नजर आये। ‘साहित्य की शुचिता’ का सवाल ‘स्त्री की यौन -शुचिता’ में बदल गया। (ध्यान रहे, हिन्दू संस्कृति में ‘पुरुषों की यौन-शुचिता’ पर बात करना अपराध है!) और वे मैत्रेयी पुष्पा को कोसने से बाज न आये, भारतीयता की उनकी ‘अधकचरी’ समझ के लिए। प्रेमचंद को ‘प्रगतिशील मूल्यों के वाहक’ की जगह ‘भारतीय संस्कृति’ के वाहक के रुप में स्थापित करने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। अगले साल, या फिर उसके अगले साल निश्चित ही, प्रेमचंद और गांधी- दोनों ‘हिन्दू संस्कृति की श्रेष्ठता ’ के परचम लहराते मिलेंगे। इसके बाद संघी गिरोह की उनकी सदस्यता भी पक्की हो जाएगी। ठीक उसी तरह, जैसे विवेकानंद, भगतसिंह और सरदार वल्लभभाई पटेल को उन्होंने ग्रस लिया है।
रास्ट्रीय स्तर पर शिक्षा, साहित्य, संस्कृति और मीडिया के प्रति भाजपा सरकार की क्या नीति है, यह किसी से छुपी हुई नहीं है। इतिहास को मिथकों और पौराणिक कथाओं से प्रतिस्थापित करने की कोशिशें हो रही हैं। विज्ञान भी इससे अछूता नहीं है और वेदों में वैज्ञानिक आविष्कार खोजे जा रहे हैं। उद्देश्य स्पष्ट है- आम जनता को वैज्ञानिक सोच और यथार्थवादी ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काट दिया जाये और धर्म निरपेक्ष जीवन-दृश्टि की जगह हिन्दूवादी सांप्रदायिक मूल्यों को स्थापित किया जाये। वे अपनी सांप्रदायिक राजनीति को मजबूत करने के लिए इस देश की साझा संस्कृति, समन्वयवादी मूल्यों और बहुलतावादी जीवन-दर्शन के ताने-बाने को ही ध्वस्त कर देना चाहते हैं। केन्द्रीय सत्ता पर कब्जे के अवसर का उपयोग अब वे गुजरात के अपने प्रयोगों का पूरे देश में विस्तार करके करना चाहते हैं। मोहन भागवत का ‘हिन्दुस्तान और हिन्दू’ वाला बयान, सषमा स्वराज का ‘गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ’ बनाने की मांग, बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद अब ताजमहल को निशाने पर लेने की कोशिश, दंगे और धर्मांतरण- सब इसी मुहिम का हिस्सा है। भाजपा के इन प्रयोगों से छत्तीसगढ़ भी अछूता नहीं हैं।
जिन ‘प्रगतिशीलों’ ने पुरखौती मुक्तांगन में महोत्सव के लिए प्रवेश किया होगा, उनकी दृष्टि इस बात को देखने से नहीं ही चूकी होगी कि मुक्तांगन की दीवारों में छत्तीसगढ़ के इतिहास के नाम पर किन मिथकों को उकेरा गया है। वहां केवल राम जन्म की कहानी और बम्लेश्वसरी मैया के दर्शन ही होंगे। न शहीद वीरनारायण सिंह मिलेंगे, न गुण्डाधूर। ‘मुक्ताकाश’ की चैहद्दी पर भी ऐसी ही संस्कृति देखने को मिलेगी। भाजपा की संस्कृति नीति यही है।
फिर इस भाजपाई ‘महोत्सव’ में इतने ‘प्रगतिशीलों’ को आमंत्रण क्यों? कारण स्पष्ट है। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में अभी वे सफर शुरू कर रहे हैं और ढूढ़ने से भी उनको ऐसे दक्षिणपंथी संस्कृतिकर्मी नहीं मिलने वाले, जो उनके आयोजन को ‘महोत्सव’ का रुप दे सकें। यदि उनको संस्कृति की इतनी ही चिंता होती, तो छत्तीसगढ़ राज्य गठन के 14 सालों बाद भी राजधानी एक सर्वसुविधा युक्त आॅडिटोरियम से महरुम नहीं होती। कारण स्पष्ट है- इसका उपयोग कहें या दुरुपयोग, करने वाले केवल ऐसे कला-समूह ही मिलेंगे, जो प्रगतिवादी मूल्यों को ही आगे बढ़ा रहे होंगे, न कि हिन्दुत्व के पोंगापंथ को। उनसे गलती केवल यह हुई कि उन्होंने जगदीश्वर चतुर्वेदी- जैसे दूसरे साहित्यकारों को पहचानने में गलती कर दी और केदारनाथ सिंह से मंगलेश डबराल तक को आमंत्रित कर बैठे, जिन्होंने उनकी कसीदाकारी करना तो दूर, महोत्सव के बहिष्कार की घोषणा ही कर दीे और इसका प्रचार भी। अब बेचारे पंडित जी ही, सबकी तरफ से भाजपा सरकार के लिए सोशल मीडिया में मोर्चा संभाले बैठे हैं। जो पंडित जी कल तक बहिष्कार करने वालों को उनका लोकतांत्रिक अधिकारी बता रहे थे, वे आज उन सबको ‘अलोकतांत्रिक’ सिद्ध करने पर तुले हुए हैं। ‘असहमति का सम्मान’ के आह्वान की असली पोल पूरी तरह से खुल गई है। इन पंडित जी के साथ, उदयप्रकाश का आलाप भी बढि़या जम रहा है, जिन्हें दंगाई योगी के हाथों पुरस्कार-सम्मान लेने में शर्म नहीं आई थी!!
छत्तीसगढ़ आज विध्वंस की पीड़ा झेल रहा है। लगभग 2000 किसान हर साल आत्महत्या कर रहे हैं। बेरोजगारी से पीडि़त आत्महत्या करने वालों की संख्या अलग ही होगी। ग्रामीण अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो रही है। पलायन, मानव तस्करी और बलात्कार कम नहीं हैं। टोनही से लेकर हर प्रकार के अंधविश्वास व पोंगापंथ फल-फूल रहे हैं। आंख फोड़वा कांड से गर्भाशय कांड और नसबंदी कांड तक हजारों गरीब नागरिकों के जीवन से सरकारी संरक्षण में केवल खिलवाड़ किया जा रहा है। इन जन विरोधी नीतियों ने छत्तीसगढ़ को ‘मृत्युगढ़’ में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सरकारी संरक्षण में आदिवासियों की कथित ‘घर वापसी’ की मुहिम जारी है। माओवाद चरम पर है और माओवाद की आड़ में भ्रष्टटाचार और आदिवासियों का दमन भी चरम पर है। यहां के प्राकृतिक संसाधनों की बर्बरतापूर्वक लूट जारी है और ‘बंदूक की नोक’ पर उन्हें अपनी जमीन से अलग किया जा रहा है। सांप्रदायिक तनाव व धर्मांतरण की मुहिम के दंश से समाज विभाजित हो रहा है। हमारे समाज की इस पीड़ा से टकराये बिना कोई साहित्य-चिंतन-मनन सार्थक नहीं हो सकता। मुक्तिबोध और हबीर तनवीर सहित सभी मूर्धन्य संस्कृतिकर्मी इन्हीं सवालों से टकराते रहे हैं। लेकिन इस साहित्य ‘महोत्सव’ में शब्द-सर्जना की गर्जना तो थी, लेकिन क्या ‘समाज-चिंता’ की आंच भी कहीं थी? क्या धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, वैज्ञानिक सोच के संधान की कहीं थोड़ी सी भी झलक थी? भाजपा को तो वैसे ही इन विषयों से परहेज है। तो कला और साहित्य का सृजन महज ‘कला’ के लिए है या ‘जीवन’ के लिए? ‘समाज-चिंता’ और ‘जीवन-चिंता’ से कटकर किसी साहित्य-संस्कृति की साधना ‘कलावादियों’ को ही मुबारक हो सकती है।
साहित्य में ‘राजनीति की चर्चा’ से परहेज कोई अविचारित बात नहीं, बल्कि सुनियोजित ‘राजनीति’ है। यदि साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली ‘मशाल’ (प्रेमचंद) बनाना है, जो दंगाई को दंगाई और नंगाई को नंगाई कह सके, तो ‘राजनीति’ के इस मायने को ‘साहित्य’ में ढूढ़ा जाना जरूरी है, अन्यथा साहित्य, राजनीति का पिछलग्गू ही रहेगा।
यह आकस्मिक नहीं है कि जिस दिन छत्तीसगढ़ में भाजपाई सरकार अपने 11 वर्ष पूर्ण कर रही थी, उसी दिन अमित शाह का पर्दापण होता है और उसी दिन ‘साहित्य महोत्सव’ का आयोजन भी। यह महोत्सव ‘भाजपा की राजनीति’ की विजय को अप्रत्यक्ष तौर से रेखांकित कर रहा था। इस विजय के रेखांकन के लिए कमल छाप की टी-शर्ट लगाये भाजपा के कार्यकर्ता तीनों दिन महोत्सव में विचरण कर रहे थे। साहित्यकार समाज-चिंता, राजनीति-चिंता से परे अपनी साहित्य-साधना करते रहें, सांप्रदायिक राजनीति का हित इसी में छिपा है और भाजपाई साहित्य महोत्सव का असली मकसद भी यही था।
दिक्कत यही है कि साहित्य अपनी ‘प्रगतिशीलता’ में ही गतिशील होता है। साहित्य जिस सौंदर्य का सृजन करता है, वह सौंदर्य मनुष्य को मनुष्य के सुख-दुख से बांधता है। यह बंधन पूर्व जन्म का नहीं, वर्तमान का ही होता है। यह बंधन तर्क और विवेक का बंधन ही होता है। तर्क और विवेक का यह बंधन ही मनुष्य को उसके जाति, नस्ल, रंग, धर्म, भाषा आदि के पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है। सांप्रदायिक राजनीति को पूर्वाग्रहों से मुक्त, तर्क और विवेक से लैस मनुष्य की जरूरत नहीं है।
क्या आपने कोई ऐसा साहित्य पढ़ा है, जहां दंगों को महिमामंडित किया गया हो, जबकि राजनीति का यथार्थ सड़कों पर इसे महिमामंडित करने से नहीं हिचकता। साहित्य में हमेशा दंगों की त्रासदी को ही रेखांकित किया गया है और मनुष्य को मनुष्यता की डोर से ही बांधा गया है लेकिन सांप्रदायिक राजनीति को जाति भेद से युक्त, नस्लीय श्रेष्ठता से गर्वोन्मत, धार्मिक उन्माद से ग्रस्त, भाषाई घृणा से लिथड़ा ऐसा ‘गोबर-गणेश’ चाहिए, जो दंगों को महिमामंडित कर सके। ऐसे ‘गोबर-गणेश’ हिटलर को भी चाहिए थे, संघी गिरोह को भी चाहिए। जर्मनी के हिटलर का फासीवाद एक नये रंग-रुप के साथ भारत में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है- वैश्वीकरण के नये परिप्रेक्ष्य को अपने में समेटे हुए। यदि वह ‘असहमति का सम्मान’ की बात करता है, तो केवल इसलिए कि उसे थोड़ा समय चाहिए। इसलिए जगदीश्वर चतुर्वेदी-जैसे जो लोग संघ की कट्टरता और भाजपा की उदारता के बीच अंदरूनी संघर्ष का सिद्धांत पेल रहे हैं, वे खुद धोखे में है और सबको धोखा दे रहे हैं। संघी राजनीति यही चाहती है कि साहित्य अपनी ‘प्रगतिशील’ विचारधारा से कटकर ‘पोंगापंथ’ में घुस जाये और उसके ‘हिन्दू राष्ट्र’ के निर्माण में सहभागी बने।
ऐसे में जो साहित्यकार ‘महोत्सव’ से गदगद हैं और इसे औचित्य प्रदान करने के कामों में अपनी खुली भागीदारी निभा रहे थे, उन्हें सबसे पहले संघी गिरोह की करतूतों के बारे में अपने ‘पवित्र’ विचारों का खुलासा करना चाहिए। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि विश्वरंजन के नेतृत्व में ‘सलवा जुडूम’ को औचित्य प्रदान करने का काम भी इसी सरकार ने किया था। मुक्तिबोध ने पूछा था- ‘‘पार्टनर, तुम्हारी पाॅलटिक्स क्या है?’’ जो ‘सरकारी साहित्यकार’ नहीं है, जो चिर-परिचित मुद्रा में आज भी सत्ता विरोधी तेवर के साथ साहित्य-साधना में लगे हैं, उन सबसे आज का समय पूछ रहा है- ‘‘पार्टनर, सांप्रदायिकता पर तुम्हारा रुख क्या है?’’ आपने महोत्सव में शामिल होकर साहित्य सेवा की, यह आपका लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन प्लीज, इस लोकतंत्र की भलाई के लिए ही सांप्रदायिकता के प्रति अपना रुख भी स्पष्ट करो। लोकतंत्र और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों से त्रस्त जनता की आपसे अपेक्षा भी यही है।

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