Saturday 25 July 2015

नक्सलवाद का केवल कागजों में ही खत्म...

'इंडियन एक्सप्रेस' ने छत्तीसगढ़ में भाजपा की रमन सरकार की नक्सल-उन्मूलन में सफलता के दावों की पोल खोलकर रख दी है. इस रिपोर्ट के अनुसार--
--- जनवरी 2012-मई 2014 के बीच बस्तर में केवल 29 नक्सलियों ने सरेंडर किय
--- लेकिन जून-नवम्बर 2014 के बीच 377 नक्सलियों ने समर्पण किया. इसमें से अकेले नवम्बर में 155 नक्सलियों ने समर्पण किया और 26 नवम्बर को तो 63 नक्सलियों ने. ये सभी समर्पण एसआरपी कल्लूरी के बस्तर आईजी बनने के बाद हुए. उल्लेखनीय है कि बस्तर में जब भी कल्लूरी आते हैं, आत्म-समर्पण की बाढ़ आ जाती है.
--- इनमे से अधिकाँश लोग या तो सामान्य ग्रामीण हैं या साधारण अपराधी और किसी भी तरह से नक्सलियों की श्रेणी में नहीं आते. इसीलिए इनमे से किसी को समर्पण के बाद मिलने वाली मदद या पुनर्वास पैकेज नहीं मिला. इनमे से एक भी कथित नक्सली ने हथियारों के साथ समर्पण नहीं किया.
--- पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार, 100 से भी कम लोगों को 2-5 हजार तक की प्रोत्साहन राशि मिली. 10 से भी कम लोगों को चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरियां मिलीं.
--- जनवरी 2009-मई2014 के बीच समर्पण करने वाले 139 नक्सलियों में से एक को भी किसी तरह की कोई सरकारी मदद नहीं मिली.
अब इस रिपोर्ट को सीआरपीएफ के पूर्व महानिदेशक दिलीप त्रिवेदी के उस बयान के साथ जोड़कर पढ़े, जिसमें उन्होंने कहा है कि छत्तीसगढ़ सरकार की नक्सल-उन्मूलन में कोई वास्तविक दिलचस्पी नहीं है. उसकी दिलचस्पी तो केवल नक्सलियों से निपटने के नाम पर मिलने वाली रकम से है, जिसमें भयानक भ्रष्टाचार है. केपीएस गिल भी इसी तरह की बात कह चुके हैं.
स्पष्ट है कि नक्सलियों के नाम पर दमन का निशाना उन आदिवासियों को ही बनाया जा रहा है, जिनका नक्सलियों से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं है. इन आदिवासियों को वनाधिकार क़ानून के तहत न तो जंगल-जमीन के पत्ते दिए गए हैं और न वनों पर इनके सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी गई हैं. मनरेगा में रोजगार गारंटी के लाभों से भी ये वंचित हैं. अनुसूचित क्षेत्र के संवैधानिक प्रावधानों को तो यहां लागू ही नहीं किया गया हैं. ...हां, इनकी बेदखली के लिए जरूर जोर-शोर से उपाय किये जा रहे हैं, ताकि बस्तर की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा को देशी-विदेशी पूंजीपतियों और कार्पोरेटों को आसानी से सौंपा जा सकें. इसीलिए नक्सल समस्या भी यहां जिंदा रखी गयी हैं.

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