Saturday 25 July 2015

हिन्दी मंच पर संस्कृत रंग- ‘‘चारूदत्तम्’


संस्कृत रंगों को हिन्दी मंच पर बिखेरने की लंबी परंपरा हमारे यहां रही
है। लेकिन शूद्रक या भास की ‘मृच्छकटिकम’ ही वह नाटक है, जिसे शायद
हिन्दी रंगमंच पर सबसे ज्यादा बार खेला गया है और शायद अलग-अलग नामों से
भी! हबीब तनवीर ने इसे ‘मिट्टी की गाड़ी’ के नाम से खेला, तो इप्टा के
मुक्तिबोध समारोह में निर्देशक रामजीबाली के ‘थियेटरवाला’ ने कल इसे
‘चारूदत्तम’ के नाम से पेश किया। संजय उपाध्याय ने भी इसे अपने तरीके से
खेला है। वसंतसेना और चारुदत्त की मूल कहानी भर जीवित रह गई, लेकिन
‘मृच्छकटिकम’ कितना रह गया, कहा नहीं जा सकता। हर निर्देशक ने उसमें अपना
नया रंग भरा, नया अर्थ दिया, उसे सामयिकता से जोड़ा। वास्तव में संस्कृत
का यह रंग हमारे देश के हर प्रकार के रंगमंच पर बिखरा है।
प्रेम, जीवन का मूल दर्शन है और मृच्छकटिकम’ इसी दर्शन पर विकसित हुआ है-- और प्रेम का कोई रंग नहीं होता, हालांकि वह बदरंग भी नहीं हो सकता।
इस प्रेम को न संस्कृत रंग के रुप में, न पारसी रंग के रुप में और न ही
मैथिल या हिन्दी रंग के रुप में उकेरा जा सकता है। यह मनुष्य की
स्वाभाविक प्रवृत्ति है, चाहे वह राज प्रासाद में रहता हो या झोपड़ी में।
शूद्रक की खासियत यह है कि उसने ‘मृच्छकटिकम’ के रुप में इस रंग को
राजप्रासादों की चारदीवारी से मुक्त किया और उसे जनसाधारण के रंग में रंग
दिया। इसमें शाकार की उपस्थिति राजा के साले के रुप में ‘निरंकुश सत्ता
के एक असंवैधानिक केन्द्र’ (बकौल हृषिकेश सुलभ) के प्रतीक के रुप में ही
है, लेकिन मूल कथा तो एक गरीब ब्राह्मण चारुदत्त और नृत्यांगना वसंतसेना के
बीच के प्रेम-विकास की ही है। भास के इस नाटक में लोच और नाट्य अपने पूरे
शबाब पर है। यहां बहुमत रंगदर्शक अपने आपको चारुदत्त की जगह रख सकते हैं।
शायद इसी उर्वर कल्पनाशीलता ने इस नाटक को सबसे ज्यादा खेला जाने वाला
नाटक भी बना दिया है। शूद्रक ने अपने नाटक में जिस प्रकृति-सौंदर्य का
वर्णन किया है, उसको मंच पर साकार करने के लिए निर्देशक की कल्पनाशीलता
कहीं बाधित नहीं होती।
लेकिन रामजीबाली ने अपनी कल्पनाशीलता का उपयोग करने के बजाए
दिखे-दिखाये को फिर से दिखाने की कोशिश की है। उनकी प्रस्तुति कहीं से भी
नया पाठ नहीं रचती, नाटक का ‘पुनर्सृजन’ नहीं करती।’ ‘मृच्छकटिकम’ का
वैसा ‘पुनर्सृजन’, जैसा हबीब तनवीर व संजय उपाध्याय ने किया है। यही कारण
है कि कलाकारों की मेहनत और अभिनय के बावजूद रंगदर्शक बोरियत महसूस करते
हैं और मोबाइल से खेलते दिखे। रामजी बाली की प्रस्तुति रंग-विमर्श के
क्षेत्र में कोई जमीन नहीं तोड़ पाती। यदि अपनी प्रस्तुति में वे कुछ
आधुनिक संदर्भ जोड़ देते, यदि संगीत प्रकाश में कुछ नया प्रयोग कर सकते,
यदि मंच को कुछ सज्जा दे पाते, तो यह एक बेहतर प्रयोग हो सकता था। लेकिन
फिर भी ..... न से, कुछ होना बेहतर है।
लेकिन रंग दर्शकों की मांग है कि जो है, उससे बेहतर चाहिए। यही बेहतर
प्रयोग योगेन्द्र चौबे ने खैरागढ़ संगीत महाविद्यालय के नाट्य विभाग के
अपने छात्रों के साथ मिलकर किया है-- ‘स्मृति मुक्तिबोध’ के नाम से। कल
13 नवंबर को मुक्तिबोध का जन्मदिन भी था और यह उन्हें सही श्रद्धांजलि भी
थी। यह सही है कि मुक्तिबोध की कवितायें जितनी विचार-सघन हैं, अन्य किसी
की कवितायें नहीं। आम पाठकों का इन कविताओं को समझना ही बहुत दुरुह कार्य
है, उसे बिंम्बों में उतारना तो और भी कठिन है। लेकिन मुक्तिबोध के
जीवन-संदर्भों और उनकी कविताओं के साथ जोड़कर जिस सामूहिक रचनात्मक
रंगाभिव्यक्ति का प्रदर्शन हुआ, वह बहुत बेहतर था। ऐसे प्रदर्शन ही समाज
के कचरे को साफ करने के लिए ‘मेहतर’ का काम कर सकते हैं।
(लेखक की टिप्पणी --बतौर एक दर्शक ही)

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