Saturday 25 July 2015

जाति क्यों नहीं जाती ?


जातिवाद भारतीय समाज की ज्वलंत सच्चाई है और इससे उपजी अस्पृश्यता (छुआछूत) भी. जो लोग छुआछूत नहीं मानते, उनमें से भी कई लोग दलित-आदिवासियों को अपने रसोईघर में प्रवेश देने के लिए तैयार नहीं हैं.
नेशनल कौंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च का सर्वे यह बताता है कि हमारे देश में 27% लोग आज भी किसी-न-किसी प्रकार का छुआछूत मानते है. हालांकि जातिवाद हिन्दू धर्म की बुराई है, लेकिन इस ' हिन्दुवाद ' के प्रभाव से कोई धर्म अछूता नहीं है. छुआछूत को मानने वालों में जितने हिन्दू हैं, उतने ही मुस्लिम, सिख और बौद्ध आदि भी है. वे दलित और आदिवासी भी छुआछूत को मानते हैं, जो इसके सबसे ज्यादा शिकार होते है. उनमें भी जातियों का पदानुक्रम सवर्ण हिन्दुओं के समान ही मौजूद हैं.
सर्वे इस तथ्य को इंगित करता है कि छुआछूत को मानने वालों में 52% लोग ब्राह्मण समाज से है, जो बहुत स्वाभाविक भी है. हिन्दीभाषी पट्टी इसका सबसे ज्यादा शिकार है. मध्य प्रदेश में 53% लोग छुआछूत को मानते हैं, तो हिमाचल में 50%, छत्तीसगढ़ में 48%, राजस्थान व बिहार में 47%, उत्तर प्रदेश में 43% तथा उत्तराखण्ड में 40% लोग छुआछूत को मानते है. हिन्दीभाषी पट्टी के विपरीत पश्चिम बंगाल में केवल 1% व केरल में केवल 2% तथा महाराष्ट्र में केवल 4% लोग ही छुआछूत में विश्वास करते हैं. ऐसा क्यों?
हिंदी पट्टी के ये राज्य आज भी बदतरीन सामंती विचारधारा से ग्रस्त हैं. किसी मूलगामी सामाजिक सुधार आन्दोलन का यहां कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं दिखता. कांग्रेस-भाजपा के 'राजनैतिक संरक्षण' में आबाओं और बाबाओं का साम्राज्य फैला दिखता है, जो केवल इन पार्टियों के लिए वोट बटोरने का ही काम करते हैं. उत्तरप्रदेश में मायावती भी छुआछूत की इस दीवार को नहीं तोड़ पाई, इसलिए कि मायावती के 'अम्बेडकरवाद' को 'सवर्ण हिन्दूवाद' ने आसानी से ग्रस लिया. मायावती की 'सोशल इंजीनियरिंग' भी सत्ता हथियाने का एक फार्मूला-भर बनकर रह गई और जातिवाद व छुआछूत पर वह कोई निर्णायक चोट नहीं कर पाई. हां, कुछ ब्राह्मण पर्सनालिटी मायावती के चरणों को स्पर्श करते जरूर दिखी. लेकिन स्पष्ट है कि सवर्णवाद अछूतों के आगे नत-मस्तक नहीं था. मायावती भी जातिवाद के सामाजिक-आर्थिक आधारों पर कोई चोट नहीं कर पाई.
इसके विपरीत बंगाल और केरल में यह काम हुआ. वहां स्वाधीनता-प्राप्ति से पहले से ही सामाजिक सुधार आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है. इन आन्दोलनों ने हिंदूवादी-सामंती सोच पर ही करारी चोट की तथा समाज पर हिंदूवादी जीवन पद्धति के प्रभुत्व को कमज़ोर करने का ही काम किया. महाराष्ट्र में यह चोट ज्योतिबा फुले ने की. इन सामाजिक सुधार आंदोलनों के साथ ही स्वाधीनता के राजनैतिक आंदोलन में यहां वामपंथ ने स्थान ग्रहण किया. कालांतर में यहां काफी भूमि-संघर्ष हुए और भूमि-सुधार में ये राज्य पूरे देश में अव्वल रहे. इन भूमि-सुधारों ने इन राज्यों के कमजोर और पिछड़े तबकों, विशेषकर दलित-आदिवासियों को आर्थिक हैसियत प्रदान की और राजनीति में भी सवर्णों के आर्थिक प्रभुत्व को तोड़ने में वे कामयाब रहे.
मनु की वर्ण-व्यवस्था ने अवर्णों को संपत्ति के अधिकार से वंचित ही इसीलिए किया था कि संपत्ति-संबंध किसी समुदाय की आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक हैसियत को निर्धारित करते हैं. यह व्यक्ति-विशेष की हैसियत को भी निर्धारित करता है. मायावती की व्यक्तिगत हैसियत का राज उनकी निजी संपत्ति में ही छुपा है. वे भी इसे जानती हैं और इसीलिए उनकी पूरी कोशिश अपनी संपत्ति-विस्तार में होती है. यह संपत्ति ही राजनीति में उन्हें प्रतिष्ठित करती है. एक अमीर के साथ जातिभेद-व्यवहार उसी तरह का नहीं होता, जिस निर्ममता के साथ किसी गरीब अवर्ण के साथ होता है. जातिभेद से उत्पन्न प्रताड़ना का दुःख दोनों के लिए अलग-अलग ही होता है.
इस सर्वे ने एक बार फिर जातिवादी रोग की गंभीरता को सामने ला दिया है. कांग्रेस-भाजपा से तो यह आशा नहीं की जा सकती कि वह इससे लड़ेगी, बल्कि ये दोनों पार्टियां के लिए तो जातिवाद 'संजीवनी बूटी' है. लेकिन सामंतवाद के खिलाफ जो ताकतें लड़ना चाहती हैं. जो ताकतें दलित-आदिवासियों की वर्त्तमान स्थिति से दुखी हैं, जो चाहते हैं कि जातिवाद-जैसी बुराई को जड़-मूल से किया जाएं, सामाजिक-न्याय को प्रतिष्ठित करने की दिशा में समानतामूलक समाज की स्थापना की जाये, उन सभी लोगों को सोचना होगा कि आखिर जाति क्यों नहीं जाती? मित्रों, आप क्या सोचते हैं??

No comments:

Post a Comment