Sunday 9 August 2015

निजी क्षेत्र की पैरोकारी, उदारीकरण से यारी


छत्तीसगढ़ की कृfarmer suicideषि और किसान समुदाय दोनों गंभीर संकट से गुजर रहे हैं। इस संकट की अभिव्यक्ति प्रदेश में घटते कृषि रकबे, बढ़ती लागत, ग्रामीणों के गिरते जीवन स्तर, कृषि निवेश में कमी, कृषि ऋण व फसल बीमा तक पहुंच न होने, लाभकारी मूल्य के अभाव तथा सर्वाधिक ‘किसान आत्महत्या दर’ में होती है।
पिछले वर्ष अक्टूबर में छत्तीसगढ़ की भाजपाई सरकार ने कृषि नीति जारी किया था। इस पर व्यापक रुप से किसान समुदाय और राज्य में कार्यरत किसान संगठनों के बीच विचार-विमर्श होना चाहिये था, लेकिन यह मुख्यतः उनकी नजरों से ओझल ही रखा गया। इसका सीधा-सीधा कारण यही है कि भाजपा सरकार नीति-निर्माण में इन तबकों की भूमिका की सुनियोजित तरीके से उपेक्षा करती है और कुछ नौकरशाहों के हाथ में ही ऐसे कामों को सौंपकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री करना चाहती है। इसका नतीजा वही है, जो अक्सर ऐसे नीति-दस्तावेजों में होता है- अंतर्विरोधों की भरमार, गलत-सलत आंकड़ों की बौछार (-लेकिन इन आंकड़ों को कोई विश्लेषण नहीं कि किसी सार्थक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके-) और किसान समुदाय के नाम पर ऐसी पूर्वाग्रही नीतियों का ही प्रतिपादन, जो उनकी बर्बादी के लिए जिम्मेदार है।
भूमि सुधार ‘गायब’
प्रदेश की जीडीपी (सकल घरेलु उत्पाद) में कृषि का हिस्सा लगातार गिरताजा रहा है। वर्ष 2004-05 में यह 15.84 प्रतिशत था, जो 2010-11 में घटकर मात्र 12.30 प्रतिशत (स्थिर भावों पर) रह गया है। इसी प्रकार कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर वर्ष 2005-06 के 25.3 प्रतिशत से गिरकर 2010-11 में 9.94 प्रतिशत रह गयी है। यह वृद्धि दर प्रदेश की जनसंख्या की वृद्धि दर की आधी है। लेकिन कृषि पर निर्भर आबादी में कोई कमी नहीं आयी है। इस आबादी के 76 प्रतिशत के पास कुल कृषि रक्बा का मात्र 34 प्रतिशत ही है, जिसे सीमांत व लघु किसानों के रुप में चिन्हित किया जाता है। प्रदेश में किसानों की कुल संख्या का 32 प्रतिशत इसी श्रेणी के दलित-आदिवासियों का है, जिनके पास प्रदेश के कुल कृषि रकबे का मात्र 15 प्रतिशत है। इस प्रकार अपनी सामाजिक श्रेणी के भीतर ही लगभग तीन चौथाई दलित-आदिवासी सीमांत व लघु किसान हैं। प्रदेश के 24 प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि भूमि का 66 प्रतिशत रकबा है।
इसी दस्तावेज में 2-4 हेक्टेयर भू-स्वामित्व वाले मध्यमवर्गीय किसानों के कोई आंकड़े नहीं दिये गये हैं, लेकिन ये स्पष्ट है कि प्रदेश में भूमि का वितरण बहुत ही असमान है और गांव में खासकर कमजोर आर्थिक वर्गों तथा निचले पायदान पर स्थित सामाजिक समूहों के पास भूमि का स्वामित्व बहुत ही कम है। ये स्थिति प्रदेश में भूमि सुधार की तत्काल जरूरत को रेखांकित करती है, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार की कृषि नीति में भूमि सुधार का कोई स्थान ही नहीं है। उसे मसौदे में इस शब्द के उपयोग तक से परहेज है।
इसी दस्तावेज में बताया गया है कि प्रदेश में 5.28 लाख हेक्टेयर भूमि पड़त है और इसके अलावा 8.56 लाख हेक्टेयर भूमि ऐसी है, जिसमें खेती नहीं होती। इस 13.84 लाख हेक्टेयर भूमि को कृषि योग्य बनाया जा सकता है। सरकार के पास इस का कोई आंकलन नहीं है कि सीलिंग के बाहर कितनी जमीन है और कितनी जमीनें भूदान जैसी योजनाओं के तहत उसके पास उपलब्ध है। और यह भी कि वनभूमि पर आदिवासियों और परंपरागत वन निवासियों का वास्तविक कब्जा कितना है। लेकिन यदि ये सब भूमि वितरण के लिये हासिल की जाये, तो राष्ट्रीय किसान आयोग की इस सिफारिश को आसानी से लागू किया जा सकता है कि प्रदेश के 24.63 लाख गरीब किसानों को 1-1 एकड़ तथा लगभग 9 लाख भूमिहीनों को 2-2 एकड़ जमीन दी जाये। लेकिन भाजपा सरकार के लिये एम.एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशें तो कोई महत्व ही नहीं रखतीं।
सदिच्छाओं का पुलिंदा
छत्तीसगढ़ की भाजपाई सरकार की कृषि नीति का मसौदा नीति के बजाय सदिच्छाओं का पुलिन्दा है, जिसमें ‘स्पष्ट नीति का होना आवश्यक है’, ‘दीर्घकालीन रणनीति तैयार की जायेगी’, ‘विशेष बल दिया जायेगा’, ‘बढ़ावा दिया जायेगा’, ‘अधिनियमों में आवश्यकतानुसार संशोधन किया जावेगा’, ‘कार्ययोजना तैयार की जायेगी’, ‘विचार किया जावेगा’ जैसे अस्पष्ट शब्दों की भरमार है। इन सदिच्छाओं को प्राप्त करने के लिये क्या ठोस नीति अपनायी जायेगी, उसके क्रियान्वयन के लिये संसाधन कहां से जुटाये जायेंगे या किस तरह बजटीय व्यवस्था की जायेगी- इस पर एक लंबी चुप्पी है। और यदि कहीं नीतिगत उल्लेख भी है, तो वहां केवल उदारीकरण की पैरोकारी  ही है, जिसके कारण कृषि व किसान आज पूरे देश में बेहाल हैं।
दस्तावेज में रेखांकित किया गया है–‘‘भूमंडलीकरण से कृषि व्यवसाय (-क्या वास्तव में कृषि ‘व्यवसाय’ है?-) को जोड़ने से कृषि की हालत और नाजुक एवं उग्र होगी। अतः तत्काल उपचारात्मक उपायों की आवश्यकता हैं।’’ (पैरा 7.3) और यह भी कि- ‘‘कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के समझौता के अनुसार आयातों पर मात्रात्मक प्रतिबंधों को हटाये जाने से विश्व बाजार में कृषि उत्पादों के मूल्यों में अस्थिरता बढ़ेगी, जिसका प्रतिकूल प्रभाव निर्यात पर पड़ेगा।’’ (पैरा 9.8.2) उल्लेखनीय है कि कृषि उत्पादों पर मात्रात्मक प्रतिबंध हटाये जाने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा भाजपानीत एनडीए सरकार के समय ही हुआ था। आज छग की भाजपा सरकार इसके दुष्प्रभावों को रेखांकित कर रही है। भाजपा तब सही थी या आज गलत है?
निजीकरण-उदारीकरण की पैरोकारी
लेकिन भारतीय कृषि और छत्तीसगढ़ के किसानों पर भूमंडलीकरण और विश्व व्यापार संगठन के हमलों से बचाने के लिये इस नीतिगत दस्तावेज में क्या उपाय बताये गये हैं? आईये, निम्न घोषणाओं पर ध्यान दें–
ऽ       भू स्वास्थ्य पर निरंतर निगरानी रखने हेतु पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप माॅडल पर मिट्टी परीक्षण प्रयोगशालायें स्थापित की जावेगी। (पैरा 9.2.1.2)
ऽ       (कृषि भूमि विकास) नीति के अंतर्गत भू राजस्व संहिता एवं मध्यप्रदेश कृषि जोत उच्चतम सीमा अधिनियम- 1960 की समीक्षा करने की अनुशंसा की जाती है। (पैरा 9.2.1.7)
ऽ       संकर बीज उत्पादन के निरीक्षण और मार्गदर्शन हेतु बेरोजगार कृषि स्नातकों को संविदा के रुप में निश्चित क्षेत्र हेतु रखा जा सकता है। (पैरा 9.4.1)
ऽ       विभिन्न फसलों के संकर किस्मों के बीज उत्पादन हेतु पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप माडल एवं निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जायेगा। (पैरा 9.4.1.4)
ऽ       कृषि सेवा केन्द्र एवं कृषि यंत्र बैंक की स्थापना पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप तर्ज पर या निजी क्षेत्र में की जायेगी। (पैरा 9.4.4)
ऽ       कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने हेतु कंपनी एक्ट- 2002 में संशोधन कर उत्पादक कंपनियों की स्थापना का रास्ता प्रशस्त किया है। इन कंपनियों की स्थापना के लिये कार्ययोजना तैयार कर निजी क्षेत्र के निवेशकों को आकर्षित किया जायेगा। ( पैरा 9.4.5.2)
ऽ       मंडी क्षेत्र को उदार बनाया जायेगा। (पैरा 9.8.2)
ऽ       राज्य में आधुनिक भंडारण व्यवस्था एवं शीत श्रृंखला द्वारा खेत से बाजार को जोड़ने हेतु रणनीति (-प्रत्यक्ष विदेशी निवेश?-) तैयार की जायेगी। (पैरा 9.8.5)
ऽ       संविदा कृषि को प्रोत्साहित करने हेतु आवश्यक कदम उठाये जायेंगे। (पैरा 9.8.6)
इस प्रकार भाजपा सरकार कृषि और किसानी के संकट का हल पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप , निजी क्षेत्र, कंपनियों की स्थापना, उदारीकरण, संविदा नियुक्त्यिों, संविदा कृषि, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश………..आदि-इत्यादि में खोज रही है। ये वही हल है, जिसे निजीकरण-उदारीकरण के पैरोकार पिछले दो दशकों से साम्राज्यवादी ताकतों के इशारे पर ‘रामबाण औषधि’ की तरह लागूू करते हैं और पूरे देश की बर्बादी का कारण बने हैं। वैश्वीकरण और विश्व व्यापार संगठन के खिलाफ गर्जन-तर्जन के बावजूद भाजपा सरकार उन्हीं नीतियों को लागू करने पैरोकारी कर रही है, जिसके चलते छत्तीसगढ़ में ‘किसान आत्महत्या दर’ देश में सर्वाधिक है।
छत्तीसगढ़ में किसानों का 76 प्रतिशत छोटे व सीमांत किसानों का है, जो औसतन 1.8 एकड़ जमीन पर खेती करते हैं। उन्हें जिन भारी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उसका संबंध मुख्यतः लागतों पर बढ़ते हुये खर्चों, अलाभकारी मूल्यों और संस्थागत ऋण, तक्नाॅलाॅजी व मंडियों तक उनकी पहुंच के अभाव से हैं। इसलिए उन्हें अधिक सरकारी सहायता और हस्तक्षेप की जरूरत है। लेकिन नीतिगत दस्तावेज इस दिशा में या तो चुप हैं या फिर निजीकरण-उदारीकरण की खुराक देने की कोशिश करता है।
व्यवसाय नहीं है कृषि
हमारे प्रदेश के लिये कृषि तीन-चैथाई आबादी का जीवनाधार है और इस तबके के लिये कृषि कभी भी ‘व्यवसाय’ नहीं रहा। लेकिन यह नीतिगत दस्तावेज कृषि को ‘व्यवसाय’ के रुप में प्रतिपादित करता है। वैश्वीकरण के युग में कोई भी व्यवसाय अधिकतम मुनाफे की दृष्टि से संचालित होता है और इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा में न केवल छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है, बल्कि दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था पर कब्जा करने की रणनीति भी अपनायी जाती है। इस प्रक्रिया में कार्पोरेटीकरण बढ़ता है और छोटे व्यवसायी बाजार से बाहर फेंक दिये जाते हैं। इसी कारण भाजपा सरकार कृषि के क्षेत्र में उपरोक्त जिन समाधानों को पेश कर रही है, वह भूमिहीनों तथा सीमांत व लघु किसानों की बर्बादी का रास्ता है।
यह वैश्वीकरण के हिमायतियों की खुशफहमी ही है कि संविदा कृषि या कृषि के क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और कंपनियों की स्थापना के जरिये वे कृषि उत्पादन का आधुनिकीकरण कर लेंगे–‘‘कृषि में निवेश को आकर्षित करने हेतु संविदा कृषि एक उत्तम विकल्प है।…….. संविदा खेती से कृषक को उसके उत्पाद का परस्पर पूर्व में निर्धारित विक्रय मूल्य प्राप्त होगा, वहीं प्रसंस्करण इकाई को आवश्यकतानुरूप निरंतर निर्धारित गुणों वाला कृषि उत्पाद प्राप्त होगा। संविदा कृषि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कृषि उत्पाद ब्रांड स्थापित करने में मददगार होगा।’’ (पैरा 9.8.6)- इतनी भोली सोच पर कौन नहीं मर मिटेगा! लेकिन अनुभव तो यही बताता है कि वैश्विक एकाधिकार उत्पादक और उपभोक्ता दोनों को बुरी तरह निचोड़ता है।
यही कारण है कि मंदी के दौर में बिक्री न बढ़ने के बावजूद विश्व के शीर्ष 250 खुदरा व्यापारियों के मुनाफे का मार्जिन लगातार बढ़ रहा है। यह तभी संभव है जब उत्पादकों को पूरा लागत मूल्य भी न दिया जाये और उपभोक्ताओं के लिये अंतिम उत्पाद की कीमतें लगातार बढ़ाई जायें।
अंतर्राष्ट्रीय अनुभव बताता है कि इन बहुराष्ट्रीय व्यापारियों की या कंपनियों की दिलचस्पी कृषि उत्पादन में भारी निवेश करके खतरा उठाने में तो कतई नहीं होती, उनकी दिलचस्पी तो कृषि उत्पादन में प्रत्यक्ष भागीदारी किये बिना सिर्फ लाभ कमाने तक सीमित होती है। अतः यदि इन बहुराष्ट्रीय व्यापारियों या कंपनियों को (जिसमें किसानों की भागीदारी की ‘थोथी’ बात
कही गयी है) प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से उत्पादन प्रक्रिया को नियंत्रित करने की इजाजत दी जाती है तो इससे छोटे उत्पादक और भी ज्यादा हाशिये पर पहुंच जायेंगे। इसके साथ ही, राजनैतिक संरक्षण में विदेशी पूंजी के बल पर खुदरा व्यापारियों की भूमाफियाओं के साथ गठजोड़ सामने आ रहा है, और जिस प्रकार गैर-कृषि कार्यों के लिये कृषि भूमि को अवैध ढंग से हड़पने की प्रक्रिया चल रही है, यह प्रक्रिया और तेज ही होगी और इसका सबसे बदतर शिकार छोटे किसान ही होंगे।
सच तो यह है कि सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारियों से हाथ झाड़ने के रास्ते के रुप में पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप तथा निजी क्षेत्र की बात की जाती है, जबकि पिछले दो दशकों का भारतीय अनुभव तो ऐसे प्रयोगों के खिलाफ ही जाता है। वास्तविकता यह है कि कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश और राजकीय हस्तक्षेप बढ़ाने तथा इसके जरिये किसानों को कच्चे माल (कृषि आदान) सस्ते में उपलब्ध कराने तथा उसकी फसलों का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित कराने की जरूरत है। लेकिन ऐसी जरूरतों के प्रति तो इस दस्तावेज में एक घुप्प चुप्पी ही साधी गयी है।
एफडीआई पर निर्भरता
देश में कृषि उपज मंडियों की स्थापना का प्राथमिक लक्ष्य किसानों को उनकी फसलों का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना था। उदारीकरण के इस दौर में यह लक्ष्य हाशिये पर चला गया है। प्रदेश में अधिकांश कृषि मंडियां बदहाल हैं और घाटे में चल रही हैं। दक्षिण बस्तर में तो इन मंडियों पर सुरक्षा बलों का ही कब्जा है। जो मंडियां अधमरी हालत में चल रही हैं, वहां किसानों को लाभकारी मूल्य तो क्या, न्यूनतम समर्थन मूल्य भी सुनिश्चित नहीं हो रहा है। घाटे में चल रही इन मंडियों की आय की बदौलत ‘मूल्य स्थिरीकरण निधि’ की स्थापना हास्यास्पद ही है। सरकारी सोसायटियों के जरिये धान खरीदी में हर वर्ष 2000 करोड़ रुपयों का भ्रष्टाचार होता है। इस समस्या से निपटने के बजाय मंडी क्षेत्र को उदार बनाने की ही नीति अपनायी जा रही है।

यही हालत अनाज भंडारण का है। प्रदेश में 50 शीत भंडार हैं, जिनमें से 48 निजी क्षेत्र में हैं और जिनकी भंडारण क्षमता 2.67 लाख टन है, जबकि सरकारी आंकलन के हिसाब से 5.86 लाख मीट्रिक टन भंडारण क्षमता की आवश्यकता है। इसके विकास के लिये सार्वजनिक निवेश के जरूरत है, लेकिन इसे निजी क्षेत्रों के भरोसे छोड़ दिया गया है–‘‘राज्य में आधुनिक भंडारण व्यवस्था और शीत श्रृंखला द्वारा खेत से बाजार को जोड़ने हेतु रणनीति तैयार की जायेगी।’’ (पैरा 9.8.5) यह रणनीति विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर ही निर्भर है, जो केवल अपने व्यवसायिक हितों से ही प्रेरित होते हैं, न कि व्यापक किसान समुदाय के हितों से। सच तो ये है कि कंपनियां या निजी क्षेत्र जो कुछ भी शीत कृह बनायेंगे, वे सब अपने व्यवसायिक कार्यों के लिये ही बनायेंगे, न कि किसानों व उपभोक्ताओं के लिये। यह सोच कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां छत्तीसगढ़ की खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में आमूल परिवर्तन करके उसे आधुनिक बना देंगे, मिथ्या सोच के अलावा कुछ नहीं है।
‘जैविक कृषि’ का नारा
इसी प्रकार उर्वरकों की कीमतों को विनियंत्रित कर विश्व बाजार से जोड़ने का नतीजा यह हुआ है कि इनकी कीमतों में तेजी से वृद्धि हुयी है तथा खेती की लागत बहुत बढ़ी है। इसका समाधान केवल इन नीतियों को पलटना तथा सहकारिता के जरिये न्यूनतम दरों पर अच्छी गुणवत्ता का खाद किसानों को उपलब्ध कराना ही है, ताकि वे बाजार के झटकों से महफूज रहे। लेकिन इसका एक मात्र समाधान जैविक कृषि में खोजने की कोशिश की जा रही है। वैसे भी छत्तीसगढ़ की कृषि भारतीय मानकों से बहुत दूर है।

 छत्तीसगढ़ में खरीफ के मौसम में वर्ष 2012 में रासायनिक खाद का प्रति हेक्टेयर उपभोग 74.21 किलोग्राम तथा रबी मौसम में उपभोग 121.27 किलोग्राम था।  इस प्रकार वर्ष भर में प्रति हेक्टेयर औसत उपभोग मात्र 83.6 किलोग्राम था, जो औसत भारतीय उपभोग 168.29 किलोग्राम का मात्र 49 प्रतिशत है। आदिवासी क्षेत्रों में तो औसत उर्वरक उपभोग 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ही है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना कि रासायनिक खेती के कारण छत्तीसगढ़ के किसान तबाह हो रहे हैं, बहुत ही सरलीकृत है।
थोड़ा और गहराई में जायें। प्रदेश में खरीफ सीजन में रासायनिक खाद का औसत उपभोग वर्ष 2009 के 94.96 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से घटकर वर्ष 2012 में 74.21 किलोग्राम ही रह गया है, जो वर्ष 2007-08 के औसत उपभोग के समकक्ष है। लेकिन इसकी तुलना में जैविक खाद का उपभोग नहीं बढ़ा है। लेकिन रबी सीजन (जो मुख्यतः सिंचाई साधनों पर आश्रित होने के कारण धनी तबकों की कृषि है) में रासायनिक खाद के औसत उपभोग में 6-7 गुना वृद्धि हुई है और यह वर्ष 2000 के 18.8 किलोग्राम से बढ़कर  वर्ष 2012 में 121.27 किलोग्राम हो गयी है। स्पष्ट है कि रासायनिक खाद की बढ़ती कीमतों तथा बाजार में उसकी सहज उपलब्धता के अभाव की मार गरीब किसानों पर ही पड़ी है और इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ रहा है। रसायन के साथ ही किसानों को सस्ते व उन्नत बीजों, दवाईयों, कृषि उपकरणों की भी जरूरत पड़ती है। और इन सबके बाद, बाजार की व्यवस्था ऐसी हो कि उसे लाभकारी मूल्य प्राप्त हो। इसके अभाव में जैविक कृषि एक एक आकर्षक नारा तो बन सकती है, लेकिन वास्तविक समाधान नहीं।
ऋण व बीमा तक पहुंच नहीं
कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक पूंजी निवेश का एक महत्वपूर्ण माध्यम कृषि ऋण है। व्यवसायिक बैंकों का प्रदेश में फसल ऋण का योगदान मात्र 5 प्रतिशत ही है। शेष ऋण सहकारी बैंक ही वितरित कर रहे हैं। लेकिन इन बैंकों की वास्तविक स्थिति क्या है? वर्ष 2009-10 में इन सहकारी बैंकों द्वारा सम्मिलित रुप से 9.09. लाख किसानों को 1869.38 करोड़ रुपयों का ऋण दिया गया, जो प्रति किसान औसत मात्र 20565 रुपये बैठता है। कृषि की बढ़ती लागत के मद्देनजर इतने ऋण से तो एक हेक्टेयर की कृषि भी मुश्किल है। लेकिन इन ग्रामीण सहकारी बैंकों में कृषि ऋण उपलब्ध करवाने हेतु सरकारी निवेश की कोई योजना सरकार के पास नहीं है।
प्रदेश के कुल कृषकों के केवल 41 प्रतिशत ही इन सहकारी बैंकों के सदस्य हैं। इन सदस्यों में से भी केवल 9 लाख (कुल कृषकों के केवल 25 प्रतिशत) सदस्य ही लेन-देन करते हैं और 5 लाख से अधिक सदस्य इसकी परिधि से बाहर हैं। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि प्रदेश में जो 8 लाख मध्यम व बड़े किसान हैं, उन्हें तो कृषि ऋणों (और सस्ते कृषि ऋणों) का लाभ मिल रहा है, लेकिन सीमांत व लघु किसान इन सस्ते ऋणों की पहुंच के बाहर ही हैं। ये गरीब  किसान महाजनी कर्ज में फंसे हुये हैं। इन गरीब किसानों को महाजनी कर्ज से मुक्त करने की कोई नीति भाजपा सरकार के पास नहीं है। आखिर ये धनाढ्य महाजन ही तो कांग्रेस-भाजपा का ‘ग्रामीण आधार’ तैयार करते हैं।
छत्तीसगढ़ में केवल 9 फसलें- धान, मक्का, मूंगफली, सोयाबीन, अरहर, चना, अलसी, सरसों और आलू- ही बीमा योजना के दायरे में आते हैं। वर्ष 2001 में 3.91 लाख परिवार ही राष्ट्रीय फसल बीमा योजना के दायरे में थे। ये वे किसान थे, जो अपेक्षाकृत अधिक साधन संपन्न थे तथा जिनकी पहुंच सहकारी बैंकों, वाणिज्यिक बैंकों तथा प्राथमिक सहकारी समितियों से मिलने वाले ऋणों व खाद्य, बीज, कीटनाशक आदि तक है। 5 एकड़ से कम वाला कोई सीमांत किसान तो शायद ही इस योजना में शामिल हों।

 वर्ष 2001 के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों में कुल बीमा राशि का मात्र 3 प्रतिशत (2.58 करोड़ रुपये) ही बांटा गया था जबकि इन जिलों में बीमित किसानों की कुल संख्या 37146 राज्य के कुल बीमित किसानों का 9 प्रतिशत थी। इससेे यह निष्कर्ष स्पष्ट तौर से उभरता है कि जिन आदिवासी किसानों को सूखा व बाढ़ में राहत व मुआवजें की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, उन्हें नहीं के बराबर मदद मिलती है और उन सामान्य आदिवासियों की पहुंच बैंकों तक है ही नहीं, जिसकी मदद की उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है।
राष्ट्रीय फसल बीमा योजना के आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद इस योजना के तहत पिछले 13 सालों में औसतन 7.52 लाख किसानों को ही (कुल किसानों का 23 प्रतिशत) फसल बीमा की छतरी हासिल थी तथा रबी और खरीफ दोनों फसलों को मिलाकर मात्र 15.22 लाख हेक्टेयर (दोनों सीजनों की सम्मिलित कृषि भूमि का मात्र 29 प्रतिशत) ही इसके दायरे में आये हैं। इन किसानों में से मात्र 1.28 लाख किसान ही (कुल किसानों का 3.95 प्रतिशत और कुल बीमित किसानों का 17.1 प्रतिशत) लाभान्वित हुये हैं, जिन्हें औसतन 29.42 करोड़ रुपये (औसतन 2287 रुपये प्रति किसान) के दावे ही स्वीकृत हुये हैं।
ये सभी आंकड़े प्रदेश में फसल बीमा की दयनीय स्थिति बताते हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि फसल बीमा की सुरक्षा केवल आर्थिक रुप से ताकतवर बड़े किसानों को ही प्राप्त है, न कि आर्थिक-सामाजिक रुप से निचले वर्ग के लोगों को। अतः बीमा व ऋण के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में वृद्धि करनी होगी, तभी इसका लाभ सीमांत व लघु किसानों तक पहुंचेगा।
बदहाल रोजगार गारंटी
राज्य निर्माण के बाद कृषि के रकबे में लगभग 10 लाख हेक्टेयर की कमी आयी है। लगभग इतने ही किसान भूमिहीनों और सीमांत श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। अब इनकी आजीविका मुख्यतः खेत मजदूरी व ग्रामीण रोजगार या पलायन पर ही निर्भर रह गयी है। अतः ग्रामीण जीवन को बेहतर बनाने के लिए रोजगार गारंटी का बेहतर क्रियान्वयन जरूरी है। इस योजना के जरिये छत्तीसगढ़ की कृषि को न केवल रोजगारपरक बनाया जा सकता है, बल्कि गांवों में कृषि-अधोसंरचना का भी बड़े पैमाने पर विकास किया जा सकता है। लेकिन कृषि नीति के दस्तावेज में इस योजना को केवल भूमि एवं जल सरंक्षण तक ही सीमित कर दिया गया है।
वास्तव में तो छत्तीसगढ़ में ग्रामीण रोजगार गारंटी का हाल बेहाल ही है। कैग की रिपोर्ट के अनुसार ही पिछले सात सालों में इस योजना के 3272 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किये गये, जबकि मजदूरों को काम के औसत दिनों की संख्या गिरकर 30-35 ही रह गयी है। मनरेगा को सुनियोजित तरीके से निहित स्वार्थी तबकों द्वारा ‘छत्तीसगढ़ की कृषि को क्षति पहुंचाने वाला’ बताया जा रहा है, क्योंकि यह योजना ग्रामीण गरीबों विशेषकर खेत मजदूरों के आत्मसम्मान व सामूहिक सौदेबाजी की ताकत तो बढ़ाती ही है। लेकिन ग्रामीण जीवन पर प्रभुत्वशाली वर्ग ठीक यही नहीं चाहता– और सरकार भी इन्हीं वर्गों के साथ है!
घटता कृषि रकबा
कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग तथा इसके लगातार सामने आ रहे दुष्परिणामों के बारे में भी इस दस्तावेज में नीतिगत चुप्पी साध ली गयी है और केवल भू राजस्व संहिता एवं कृषि जोत अधिनियम की समीक्षा की बात कही गयी है। जबकि शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के नाम पर भू माफियाओं व पूंजीपतियों को प्रदेश के जल, जंगल, जमीन व प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लाइसेंस थमा दिये गये हैं। प्रदेश की नदियों का पानी खेती को सींचने की बजाय उद्योगों के लिये मुनाफा पैदा कर रहा है, खनिजों की अंधाधुंध खुदाई करके जंगलों की जैव विविधता खत्म की जा रही है।
उद्योग बनाम कृषि
चूंकि कृषि व उद्योग दोनों की मूलभूत जरूरत भूमि ही है, अतः छत्तीसगढ़ जैसे कृषि प्रधान राज्य के लिए दोनों क्षेत्रों में संतुलित विकास की नीति अपनाना आवश्यक है। उद्योगों को कृषि पर किसी भी प्रकार की प्राथमिकता देने से आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में असंतुलन, विकृतियां तथा असमानता पैदा होगी। इसलिए उद्योग नीति  और कृषि नीति को एक दूसरे का पूरक होना चाहिये। लेकिन वास्तविकता यह है कि दोनों नीतियां एक दूसरे की विरोधी ही हैं। कृषि नीति में जहां एक ओर सैद्धांतिक रुप से कृषि के रकबे तथा जैव विविधता की रक्षा की बात की जाती है, तो वहीं दूसरी ओर औद्योगिक नीति में व्यवहारिक रुप से कृषि भूमि के अंधाधुंध अधिग्रहण और लोगों के उचित पुर्नवास बिना विस्थापन, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के जरिये जैव विविधता तथा पर्यावरण विनाश की नीतियों को क्रियान्वित किया जा रहा है।
उद्योग के क्षेत्र में अपनाये जा रहे कुछ कदमों के खुलासे से ही भाजपा सरकार द्वारा कृषि के क्षेत्र में की जा रही लफ्फाजी का खुलासा हो जाता है। छत्तीसगढ़ में लगभग 70000 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए एमओयू किये गये हैं या ताप विद्युत परियोजनायें निर्माणाधीन हैं जबकि 2022 में पीक लोड केवल 5800 मेगावाट अनुमानित है (केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण की वर्ष 2012 की रिपोर्ट)। पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन रिपोर्टों के अनुसार इसके लिए कम से कम 70000 एकड़ भूमि की आवश्यकता होगी। इन संयंत्रों को चलाने के लिये प्रतिवर्ष 33 करोड़ टन कोयले की जरूरत पड़ेगी, जिसके लिए 1.5 लाख हेक्टेयर वन भूमि का प्रतिवर्ष खनन करना होगा। इन संयंत्रों को चलाने के लिए 2669 घन मिलियन पानी प्रतिवर्ष खर्च होगा, जिससे प्रदेश में 5.33 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकती है, (रिपोर्ट आॅफ द कमिटी आॅन इन्टीग्रेटेड इन्फ्रास्ट्रक्चार डव्हलपमेंट, छत्तीसगढ़ सरकार)। हमारे प्रदेश की प्रमुख नदियों के जल प्रवाह तथा जल संग्रहण क्षमता को शामिल करने से भी इतना पानी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह केवल बिजली क्षेत्र में औद्योगिकीकरण का आंकलन है।

 स्पष्ट है कि कृषि पर उद्योगों को प्राथमिकता देते हुये यदि अंधाधुंध औद्योगिकीकरण की नीतियां अपनायी जायेंगी, तो प्रदेश के नागरिकों को सिंचाई तो क्या, पीने का पानी भी नहीं मिलेगा। दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार औद्योगिकीकरण के नाम पर ठीक इन्हीं ‘सर्वनाशी’ नीतियों का क्रियान्वयन कर रही है और जिसका कृषि नीति से कोई ‘मानवीय’ संबंध नहीं है। ऐसी नीतियों से पूंजीपतियों की तिजोरियां तो भरी जा सकती हैं, कृषि अर्थव्यवस्था पर आश्रित जनता का भला नहीं किया जा सकता। ऐसी कृषि विरोधी औद्योगिक विकास के सबसे बर्बर शिकार प्रदेश के आदिवासी एवं गरीब किसान हो रहे हैं, जो अपनी आजीविका के साधनों से ही पूरी तरह वंचित हो रहे हैं। इसकी अभिव्यक्ति उद्योगों के लिए किये जा रहे भूमि अधिग्रहण या जल प्रबंधन के खिलाफ प्रदेश में जगह-जगह फूट रहे स्वतःस्फूर्त किसान संघर्षों में भी हो रही है।
किसान विरोधी कृषि नीति को ठुकराओ
कुल मिलाकर, छत्तीसगढ़ की कृषि गरीब किसानों व खेत मजदूरों की कृषि है। इसलिए कृषि नीति का मुख्य लक्ष्य खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी के जरिये खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना तथा किसानों व ग्रामीणों के जीवन स्तर को बेहतर बनाना ही हो सकता है। लेकिन यह दिशा कृषि के क्षेत्र में भूमि सुधार, सार्वजनिक निवेश में वृद्धि तथा सरकारी हस्तक्षेप की मांग करती है। इसके अभाव में पिछले 12 वर्षों में प्रदेश में 20 हजार से ज्यादा किसान कृषि संकट से जूझते हुये आत्महत्या कर चुके हैं। कृषि नीति के नाम पर भाजपा सरकार फिर उदारीकरण-निजीकरण की तगड़ी खुराक पिलाना चाहती है– मजे की बात यह है कि यह सब वैश्वीकरण से लड़ने के नाम पर किया जा रहा है! स्पष्ट है कि संकट से जूझता छत्तीसगढ़ का किसान समुदाय इस नीति से कुछ राहत नहीं पा सकता। उदारीकरण-निजीकरण की नीति केवल उसकी बर्बादी का रास्ता तैयार करेगी। भूमिहीनों व गरीब किसानों के हितों के प्रति चिंतित सभी ताकतों को ऐसे किसान विरोधी कृषि नीति के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिये, जो कि साररुप में किसानों के साथ ही खाद्यान्न आत्मनिर्भरता को भी बर्बाद करती है।

No comments:

Post a Comment