Sunday 9 August 2015

...लेकिन शाही इमाम जिंदा है.

शाहजहां मर गए, सल्तनत चले गई, लोकतंत्र आ गया....लेकिन शाही इमाम जिंदा है. रवीश के प्रोग्राम से कारी साहब भागते नज़र आये. बहस में टिक न पायें, तो कुर्सी छोड़कर उठ खड़े हुए. तर्क वही पुराना, घिसा-पीटा कि इस्लाम के खिलाफ बात सुन नहीं सकता. धार्मिक तत्ववादी और हिन्दू कट्टरपंथियों में कोई अंतर नहीं है. एक हिन्दू धर्म की बुराई नहीं सुन सकता, दूसरा इस्लाम की. दोनों का तर्क से कोई लेना-देना नहीं. समाज आगे बढ़ गया, रीति-रिवाज बदल गए, नई सच्चाईयां सामने आ गयी, लेकिन हम हैं कि शाहजहां की दुम पकड़ कर बैठे रहेंगे. उन्हें मुल्क से कोई लेना-देना नहीं. मोदी से दूरी रखेंगे, लेकिन भाजपा से गलबहियां करने का रास्ता खोले रखेंगे और राजनाथ को बुलाएँगे. असल में सांप्रदायिक मिजाज के एक आदमी की दूसरे सांप्रदायिक संगठनों और उसकी विचारधारा से कोई दूरी नहीं होती. वे केवल यह चाहते हैं कि धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर एक समुदाय उनके पीछे लामबंद रहें, ताकि अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए वह दूसरे दलों से सौदेबाजी करता रह सकें. इसीलिए अल्पसंख्यक और बहूसंख्यक, दोनों की साम्प्रदायिकता खतरनाक है. दोनों एक-दूसरे को पालने-पोसने का ही काम करती है. इमाम बुखारी सुनियोजित तरीके से दोनों समुदायों के बीच की दूरी को बढ़ाने में लगे हैं. यही उनकी राजनीति भी है.

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