Sunday 9 August 2015

पेड़ो पर पैसे फल सकते है , लेकिन...

पिछले 10-15 सालों से मौसम का मिजाज़ बदला है. पहले मानसून का आगमन 9-10 जून तक हो जाता था, अब 10 जुलाई के बाद ही होता है. इस वर्ष तो उसने 10 दिन और देरी कर दी. इस वर्ष जून मे गर्मी ने रिकॉर्ड तोड़ दिया और पिछले तीन दिनों की बारिश ने भी जुलाई की बारिश का रिकॉर्ड तोड़ दिया .
एक प्रदेश के रूप मे छत्तीसगढ़ ने भले ही सामान्य बारिश के आंकड़ों को छू लिया हो, लेकिन वास्तविकता यही है कि सरगुजा और महासमुंद जिला अभी भी सूखे से पीड़ित है. इस देश के 36 वर्षा-उपखंडों मे से 24 उपखंड अल्प और अतिअल्प वर्षा से ग्रस्त है---यानि देश का दो तिहाई हिस्सा सूखे से पीड़ित है. कांग्रेस और भाजपा नेताओ की 'इंद्र देवता' से चिरौरी किसी काम न आई. शायद दोनों के पुण्यों पर 'पाप' ही भारी पड़ रहे है.
मानसून की इस बेरुखी का पर्यावरण से सीधा सम्बन्ध है. विकास के नाम पर पहले पेड़ और जंगल काटो, फिर पर्यावरण बचाने के लिए वृक्षारोपण करो और काटने-बचाने के इस खेल मे दोनों हाथो से मुनाफा कूटो--- यही कांग्रेस -भाजपा की नीति है .
लेकिन इस सर्वनाशी नीति के नतीजे अब स्पष्ट है. मानसून की अनिश्चितता ने कृषि की अनिश्चितता और संकट को बढ़ा दिया है. यह संकट पूरी मानव जाति के लिए खतरा बनने जा रहा है . किसानो का जीवन तो खैर खतरे मे है ही .
पर्यावरण सुधार के नाम पर करोडो -अरबों झोंके जा रहे है. लेकिन जंगल उजाड़कर और हरे-भरे पेड़ों को काटकर कथित विकास करने का यही मॉडल जारी रहा तो फिर कोई पैसा काम नहीं आने वाला .
पेड़ो पर पैसे फल सकते है , लेकिन पैसों से पेड़ और जंगल नहीं लगाये जा सकते और न ही पर्यावरण को बचाया जा सकता है .

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