Wednesday 6 July 2016

मुख्यमंत्री के नाम एक तुच्छ नागरिक का खुला पत्र

माननीय मुख्यमंत्री,
छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर.
महोदय,
इस राज्य के मुख्य सेवक को इस देश के एक तुच्छ नागरिक का सलाम.
आशा है, मेरे संबोधन को आप व्यंग्य नहीं समझेंगे, क्योंकि देश के प्रधानमंत्री अपने आपको इस देश का प्रधान 'सेवक' ही बता रहे हैं. इस देश में प्रधानमंत्री से ऊपर और कौन हो सकता है? -- वे अपने आपको 'मालिक' कह सकते थे, लेकिन 'प्रधान सेवक' से ऊपर जाने को तैयार नहीं हैं. जैसे 'विकलांग' को उन्होंने 'दिव्यांग' से प्रस्थापित कर दिया, वैसे ही 'मंत्री' 'सेवक' से हो गया. सो, आपको मैं 'मुख्य सेवक' कहने की धृष्टता कर सकता हूं.
वैसे प्रधानमंत्रीजी का दावा है कि वे 125 करोड़ लोगों के 'प्रधान सेवक' है, लेकिन मुझे यह पता नहीं है कि उन 125 करोड़ लोगों में मैं शामिल हूं या नहीं. वैसे यह तो वे ही बता सकते हैं कि 125 करोड़ की उनकी गिनती में कौन-कौन लोग/समुदाय शामिल नहीं हैं? लेकिन यदि छत्तीसगढ़ के 2.5 करोड़ लोगों के आप मुख्य सेवक हैं, तो मुझे लगता है कि इस लंबी कतार का अंतिम व्यक्ति मैं तो जरूर ही हूंगा, जिसे आपकी सरकार उसे अपना नागरिक अधिकार छोड़ने या अंजाम भुगतने की धमकी दे रही है. लेकिन इस प्रदेश में कुछ सिरफिरे आज भी मौजूद हैं, जो अपना नागरिक अधिकार छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं और उनमें से एक मैं हूं. इसे आप एक तुच्छ नागरिक का 'हठ' मान सकते हैं. वैसा ही हठ, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह हठ, 'राजहठ' से भी बड़ा होता है.
मुख्य सेवक को यह पत्र मैं अपने सभी साथियों की ओर से लिख रहा हूं. हम सब साथियों ने बार-बार बस्तर जाने की हठ ठानी है, भले ही आपका 'राजहठ' हम सबको 'माओवादी' घोषित करता रहे. इस देश का संविधान हमें एक नागरिक के रूप में बस्तर जाने की इजाज़त देता है, अपने राज्य और देश के लोगों से बात करने और उनकी समस्याओं को सुनने-समझने की अनुमति देता है और जरूरत पड़ी, तो उनकी मांगों के लिए उन्हें संगठित करने और जनतांत्रिक तरीके से आंदोलन करने का भी अधिकार देता है. अतः आपके 'राजदंड' की ताकत पर हम अपना नागरिक अधिकार खोने के लिए तैयार नहीं हैं.
हम जानते है कि बस्तर इस देश के उन कुछ खतरनाक और असुरक्षित जगहों में से एक है, जहां से सुरक्षित वापस लौटना संभव नहीं है. 'माओवादियों' और सुरक्षा बलों/पुलिस दोनों की गोलियों ने बस्तर का जीवन 'असुरक्षित' कर दिया है. आपके 'राजहठ' के लिए असली चुनौती यही है कि हम किसी की भी गोली का शिकार न होकर 'सुरक्षित' वापस कैसे लौट आये!! आपकी समझ है कि बस्तर को टाटा-बिडला-अडानी-एस्सार के भरोसे छोड़ दो -- वे बस्तर का विकास कर लेंगे. लेकिन इसके बाद भी कुछ लोग बस्तर जाने का साहस करें, तो ऐसे लोग 'विकासविरोधी' और 'देशद्रोही' ही हो सकते हैं !!...और ऐसे 'देशद्रोही' बस्तर जाकर सुरक्षित वापस आ जायें, तो वे 'माओवादी' के सिवा और कौन हो सकते हैं!!! ऐसे लोगों के खिलाफ 'राजदंड' का उपयोग नहीं होगा, तो 'देशसेवा' के 'राजहठ' का क्या होगा? मुख्य सेवक की हैसियत से आपने देशसेवा का व्रत लिया है, जनसेवा का नहीं. जनता के ऊपर देश है और देश तो बिन जनता के भी रह सकता है. सो, 'देशद्रोहियों' से निपटे बिना, जन सुरक्षा अधिनियम में उन्हें जेल में डाले बिना देश सेवा नहीं की जा सकती. यही असली 'राष्ट्रवाद' है -- प्रधान सेवक और मुख्य सेवक का.
महोदय, हमने तो सोचा था कि बवाल तो इस बात पर होगा कि हमने मुख्य सेवक की सेवा में कोई कसर कैसे निकाल ली? जिस सरकार को राज्य की सेवा के लिए अनगिनत पुरस्कार मिले हो, उसकी सेवा में इस देश के चार तुच्छ नागरिक कोई खोट निकाले, तो यह देशद्रोह के सिवा और क्या हो सकता है? हमारा सोचना था कि आप हमारे इस दावे को नकारेंगे कि मनरेगा में कोलेंग के लोगों को साल भर में केवल चार दिन ही काम मिला. जब हम लोगों को बतायेंगे कि दक्षिण बस्तर के ग्रामीणों की समस्त स्रोतों से पारिवारिक औसत आय 12000--30000 रूपये वार्षिक ही है, तो मुख्य सेवक हंसी बिखेरकर विनम्रतापूर्वक बतायेगा कि श्रीमान, राज्य का आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि इस प्रदेश में पारिवारिक आय औसतन लगभग 4 लाख रूपये वार्षिक है !! हमारी अपेक्षा यह थी कि राशन वितरण में अपनी उपलब्धियों का बखान करेंगे और हमारे सर्वे दल के इस अध्ययन को नकारेंगे कि आपकी नीतियों के कारण अधिकांश ग्रामीण परिवारों की राशन की मात्रा में कटौती हो गई है और इसके बावजूद राशन कार्डों की एंट्री बताती है कि महीनों से उन्हें अनाज नहीं मिला है और वे भुखमरी का शिकार हो रहे हैं. हम जहां भी गए, इस भारी अकाल में भी मुख्य सेवक की 'सेवा' के दर्शन नहीं हुए. लेकिन अब हमें अपने निष्कर्षों में इस निष्कर्ष को और जोड़ना पड़ रहा है कि किसी 'राष्ट्रवादी' सरकार की चिंता में ये तुच्छ सवाल और ऐसी तुच्छ समस्याएं नहीं होती. ऐसी तुच्छ खबर तो कुछ तुच्छ नागरिक ही ला सकते हैं.
महोदय, अपने भ्रमण में हमने देखा कि पूरे बस्तर में हर 2 से 5 किमी. पर एक शिविर बैठा हुआ है सुरक्षा के नाम पर. पर बताएं कि जिन आदिवासियों को उनकी वनभूमि से विस्थापित करके या जिनको उनकी राजस्व पट्टे की भूमि से भगाकर इन शिविरों को स्थापित किया गया है, वे आदिवासी अपने-आपको सुरक्षित कैसे समझें? एटेबालका का वह आदिवासी अपने को सुरक्षित कैसे समझेगा, जिसकी बेटी के साथ बलात्कार करके एसपीओ ने मुंह मोड़ लिया है, और जिसके खिलाफ थाने में की गई शिकायत को थानेदार, तहसीलदार व एसडीएम तीनों ने मिलकर जिन्दा दफना दिया? शिकायत तो जिन्दा दफ्न हो गई, लेकिन मुख्य सेवकजी आप ही बताईये, उस जिन्दा बच्चे को कहां दफ्न करें, जो आपके सुरक्षाकर्मी की काली करतूतों के कारण इस धरती पर आ चुका है!! वह नवजात और उसकी बलात्कृत मां अपनी जिंदगी जीने का केवल वह अधिकार मांग रही है, जो आपका कानून उसे दे सकता है. लेकिन शायद इस पीड़ित मां की कहानी आपके पास पहुंची नहीं होगी, क्योंकि आपने और आपके प्रशासन ने हमारी रिपोर्ट पढ़ी ही नहीं होगी. वे तो केवल इस बात में मशगूल है कि आपके 'राजदंड' का मजा हमें कैसे चखाया जाएं, ताकि आगे से हम या कोई और बस्तर जाने की हिम्मत भी न कर सकें.
आदरणीय मुख्य सेवकजी, मैं उस तमाशे और साजिश की कहानी को दुहराना नहीं चाहता, जो हमारे बस्तर से वापस आने के बाद आपकी कुशल पुलिस ने हमारे खिलाफ गढ़ने की कोशिश की है. जो आरोप आपके प्रशासन ने हम पर मढ़े हैं, उसकी असलियत --इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया-- दोनों ने सामने ला दी है. लेकिन इस साजिश से एक और सवाल पैदा होता है कि क्या बस्तर एक ऐसे पुलिस राज्य में तब्दील हो गया है, जहां आम नागरिकों के कोई नागरिक अधिकार सुरक्षित नहीं बचे हैं और पुलिस इस स्थिति में आ गई है कि एक लोकतांत्रिक राज्य की नीतियों को निर्देशित कर रही है? निश्चित ही आप इसे नकारेंगे. निश्चित ही आप ये सही दावा करेंगे कि ये जवान देश की सुरक्षा के लिए चाक-चौबंद रहते हैं और नक्सलियों के हाथों बर्बरतम तरीके से मारे जा रहे हैं. लेकिन इन तमाम बातों के होते हुए भी क्या सुरक्षा बलों को यह अधिकार मिल जाता है कि वे हमारी मां-बहनों के साथ बलात्कार करें, हमारे घर-गांव लूटे-जलाएं या फिर हमारे लोगों को 'केवल' माओवादी होने के संदेह में झूठे मुठभेड़ में मार गिराएं? मानवाधिकार आयोग से लेकर आदिवासी आयोग तक और एडिटर्स गिल्ड से लेकर तमाम स्वतंत्र रिपोर्टें तो यही बता रही है कि एक लोकतांत्रिक राज्य हाशिये पर पड़ा हुआ है और पुलिस/सुरक्षा बल ही सत्ता का केंद्र बन गए हैं. इन तमाम आयोगों ने और स्वतंत्र प्रेक्षकों ने पुलिस/सुरक्षा बलों की आम नागरिकों पर ज्यादतियों को बार-बार उजागर किया है और हर बार आपकी सरकार उनके खिलाफ कार्यवाही करने में असफल रही है.
मुख्य सेवकजी, हम आदिवासी भी इंसान हैं, भेड़-बकरी नहीं और एक इंसान की तरह जिन्दा रहने का हक हम आपसे मांग रहे हैं. उस कुमाकोलेंग की, जहां की तीन-चौथाई जनता माओवादी हमले के बाद गांव से ही भाग गई है, की गुहार सुन लीजिये कि हे सरकार, उन्हें माओवादियों के रहम पर मत छोडिये, उनके जान-माल की रक्षा कीजिये. हे सरकार, उन्हें स्कूल चाहिए, सड़क चाहिए, मनरेगा में काम चाहिए, राशन दुकान से अनाज चाहिए, बीमारी का ईलाज चाहिए.
मुख्य सेवकजी, यदि ये तमाम बातें करना 'देशद्रोह' है, तो बेशक हमें फांसी पर चढाईये. लेकिन हमारा विनम्र आग्रह है कि हमें उन बातों का आरोपी न बनाईये, जो हमने किया-कहा ही नहीं. बेशक, अपने 'राजदंड' का उपयोग कीजिये, लेकिन अपने 'राजहठ' में आदिवासियों को 'कार्पोरेट यज्ञ' की समिधा न बनाएं. इतिहास को याद रखिये, 'राजहठ' से बड़ा 'नागरिक हठ' होता है और हमारा हठ है कि आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए, उनके जल, जंगल, जमीन, खनिज की रक्षा के लिए हम आपके 'राजदंड' को बार-बार चुनौती देंगे -- 'देशद्रोह' के आरोपों का खतरा उठाकर भी. कृपया बस्तर पुलिस और प्रशासन को इस देश के नागरिकों के खिलाफ युद्ध करने का अधिकार देकर अपनी सरकार की भद्द न पिटवायें. बस्तर में क्या हो रहा है, उस पर पूरी दुनिया की नज़रें टिकी हुई है.
फिर से, इस राज्य के 'मुख्य सेवक' को प्रणाम.
आपका
संजय पराते
एक तुच्छ नागरिक

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