Monday 22 May 2017

रस्सी जल गई, लेकिन ऐंठ नहीं गई...बेचारा कल्लूरी!!


उनके किये अपराधों से रमन सरकार भी शर्मिंदगी महसूस कर रही है. इसी कारण बस्तर से हटाकर रायपुर लाया गया. रायपुर में भी निठल्ले बैठे हुए है. सरकार को उनकी काबिलियत की परवाह होती, तो शहरी नेटवर्क को ही ध्वस्त करने का काम दे सकती थी. लेकिन इस सरकार को उनका निठल्लापन पसंद है, लेकिन काबिलियत नहीं. यह सरकार कई निठल्लों को बैठे-बैठाए पगार दे रही है, उसमें एक की बढ़ोतरी और हुई!!
हरिशंकर परसाई ने 'निठल्ले की डायरी' लिखकर खूब नाम कमाया. वे बुद्धिजीवी थे. ये महाशय भी अपने निठल्लेपन का बखान कर सकते है. लेकिन ये बेचारे परसाई-जैसे बुद्धिजीवी नहीं है कि निठल्ले-समय पर अपने अक्ल को रोप सके. वैसे कार्पोरेट सेवा में अक्ल का क्या काम!! अक्ल लगाने से 'मेवा' से भी वंचित होना पड़ेगा. रौब-रुतबे से वंचित तो उस सरकार ने कर ही दिया है, जिसकी जी-हुजूरी करने में पूरी जिन्दगी बिता दी.
लेकिन निठल्ले-समय का उपयोग तो करना ही था. मानवाधिकार आयोग में पेशी में हाजिर होने का समय भले ही न मिला हो, लेकिन आईआईएमसी में भाषण देने के लिए वक़्त तो है ही. बाहर भले ही 'मुर्दाबाद' के नारे लग रहे हो, लेकिन इसी शहरी नेटवर्क के खिलाफ तो उनकी लड़ाई है. ये तो वक्त-वक्त की बात है. आज तो वे सिर्फ नारे सुन रहे हैं, कल तक तो वे ऐसे लोगों को गोलियों से भून रहे थे. नारे लगाना भी कोई बहादुरी है बच्चू...!!!
सो, उधर वे नारे लगा रहे थे, इधर वे 'हवन' में आदिवासियों को स्वाहा कर रहे थे. बता रहे थे कि बस्तर का आदिवासी गरीब और भूखा नहीं है. इसलिए उसको क्रांति की जरूरत भी नहीं है. कितना गहरा और विषद शोध और अध्ययन है कल्लूरीजी का. ऐसे ज्ञान पर कौन नहीं मर मिटेगा!!! अब रमन सरकार को चाहिए कि तमाम आदिवासी योजनाओं को बंद कर दे. आदिवासियों की कथित सेवा के नाम पर जो कल्याण आश्रम आरएसएस (-- रैकेट ऑफ़ सेक्स स्कैंडल्स --) ने खोल रखे है, उन्हें बंद कर दे. इससे आदिवासियों की हजारों करोड़ रुपयों की हथियाई गई भूमि भी मुक्त हो जायेगी.
बस्तर में न तो आदिवासियों को क्रांति की जरूरत है, न कल्लूरी को. तो फिर कल्लूरी महोदय किसकी सेवा कर रहे है? स्पष्ट है, उन लोगों की जिनको प्रतिक्रांति की जरूरत है. वे टाटा-बिडला-अडानी-अंबानी-जिंदल की सेवा कर रहे है. उन्हें आदिवासियों की जमीन चाहिए, उन्हें वहां की नदियों का बहता पानी चाहिए, उन्हें उनके जंगल चाहिए, उन्हें वह सब कुछ चाहिए जो उनके जंगलों में दबा पडा है. इस सब को पाने के लिए बस्तर के जंगलों से आदिवासियों को भगाना जरूरी है. इसके लिए कल्लूरी जरूरी है. कल्लूरी के इरादों को मजबूत करने के लिए भाजपा-आरएसएस जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट क सलवा जुडूम पर निर्णय इसी जरूरत का पर्दाफाश करता है. कोर्ट इसे 'कार्पोरेट आतंकवाद' का नाम देता है.
लेकिन कल्लूरी महाशय के लिए इस देश का कानून-कोर्ट-संविधान कोई महत्व नहीं रखता. वे ही संविधान हैं, वे ही कानून, वे ही अदालत हैं और वे ही जज. अभियोग और मुक़दमा चलाने वाली पुलिस तो खैर वे है ही. तो भाई साहब, जो कल्लूरी से पंगा लेगा, उसकी खैर नहीं. नंदिनी सुन्दर, अर्चना प्रसाद, संजय पराते आदियों की गिरफ़्तारी पर भले ही सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी हो, लेकिन उन्हें जब-तब गिरफ्तार करने की धमकी-चमकी तो दी ही जा सकती है. कौन झूठा और कौन सच्चा -- इसका सर्टिफिकेट तो बांटा ही जा सकता है. कोर्ट और मानवाधिकार आयोग के सामने पेश होते भले ही चड्डी गीली होती हो, लेकिन टीवी में बहादुरी दिखाने में, महिलाओं को 'फ़क यू' का मेसेज करने में उनकी अक्ल का जाता क्या है?
तो दिल्ली में कल्लूरी महाशय ने शहरी नेटवर्क को खूब गरियाया. लेकिन नक्सलियों के नाम पर जिन निर्दोष आदिवासियों को उन्होंने जेलों में कैद करके रखा है, उस पर वे चुप थे. उनके बहादुर सैनिकों ने जिन गांवों को जलाया, जिन महिलाओं से बलात्कार किया, जिन नौजवानों की हत्याएं की और मानवाधिकार आयोग ने जिन आरोपों की पुष्टि की है, उस पर बेचारे मौन ही रहे. अपने राज में हुए फर्जी मुठभेड़ों और फर्जी आत्मसमर्पणों पर उनको चुप ही रहना था. बस्तर में पूरा लोकतंत्र और मानवाधिकार सैनिक बूटों के नीचे कराह रहा है, उस पर वे चुप ही रहेंगे. हमें तो लगता था कि आरोप मानकर ही वे इसका खंडन कर देते, लेकिन ऐसी हिम्मत 'कार्पोरेट दल्लों' में नहीं होती.
तो हे कल्लूरी, तुम्हारी धमकी-चमकी-बदतमीजी से नक्सली डर सकते है, वे लोग नहीं, जो इस देश में लोकतंत्र और संविधान को बचाने की, इस देश के आम नागरिकों को कार्पोरेट लूट से बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. याद रखो, इस देश की जनता भगतसिंह को याद करती है, जनरल डायर को नहीं. हम जानते हैं कि रस्सी जलने के बाद भी ऐंठ नहीं जाती, लेकिन उसमें कोई बल भी नहीं होता.

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